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सियालदाह की एक घटना


मित्रगण, क्या आपने कभी किसी लिबो सिक्के के बारे में सुना है? ये एक चमत्कारी सिक्का है! यदि इसके सामने तेज गति से चलती बस आ रही हो तो ये उसके इंजन को बंद कर सकता है, किसी भी मशीन को रोक सकता है! हाँ, यदि कार्बनपेपर में लपेटा गया हो तो ऐसा नहीं करेगा यह! यदि जलती हुई मोमबत्ती के पास इसको लाया जाए तो उसकी लौ इसको तरफ झुक जाती है! चावल के पास लाया जाए तो चावल इसकी ओर आकर्षित हो जाते हैं! यदि बिजली के टेस्टर को इस समीप लाया जाए तो वो जलने लगता है! आपकी इलेक्ट्रॉनिक घड़ी इसके संपर्क में आते ही बंद हो जायेगी, बैटरीज फट जाएंगी! ए.ए. सेल्स पिघल जायेंगे! 
दरअसल इस सिक्के में तीन ऊर्जा-क्षेत्र जोते हैं, जर्मनी में निर्मित एक ख़ास मशीन इसकी इस ऊर्जा को सोखती है! इस मशीन की कीमत दस लाख डॉलर के आसपास है, यदि इस सिक्के को किसी बड़े बिजली के ट्रांसफार्मर के पास लाया जाए तो वो फट जाता है! इसको टेस्ट करने में ०.१ लाख डॉलर का खर्च आता है, और इसका परीक्षण निर्जन स्थान एवं समुद्रीय तट-रेखा के पास ही किया जाता ही!
अब प्रश्न ये कि ये सिक्के आये कहाँ से?? और इसमें इतनी शक्ति कैसे है? कौन सी शक्ति?
बताता हूँ,
सबसे पहले शक्ति बताता हूँ, इस सिक्के में ताम्र-इरीडियम नामक पदार्थ होता है, ये अति विध्वंसक और दुर्लभ तत्व है! अब पुनः प्रश्न ये कि ये सिक्के आये कहा से?
वो भी बताता हूँ!
१६०३ ईसवी में, ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में अपना व्यापार आरम्भ कर लिया था, इसका मुख्यालय लंदन इंग्लैंड में था, उन्होंने भारत में कुछ सिक्के अथवा मोहरें ढलवायीं ताकि व्यापार को समृद्धि मिले! इस प्रकार वर्ष १६१६ ईसवी, १७ मार्च को एक खास मुहूर्त था, गृह-कुटमी मुहूर्त, ये पांच घंटे का था, ये ग्रहण समय था, एक अत्यंत दुर्लभ खगोलीय घटना! ईस्ट इंडिया कंपनी ने इस समय पर कुछ भारतीय मनीषियों और खगोल-शास्त्रियों के हिसाब से, अलग अलग वजन और आकार के, अलग अलग सिक्के ढलवाए, ये कुल १६ थे, हाथों से बने, इनमे इरीडियम-ऊर्जा समाहित थी! आज भी कुल सिक्के १६ ही हैं! ऐसा ही एक सिक्का ईस्ट इंडियन कंपनी ने हांगकांग के राजा लियो को भेंट किया था सन १६१६ में ही! बाद में यही सिक्का अमेरिका में १८७१ में २०० बिलियन डॉलर का बिका था! आप तस्वीर देखिये इस सिक्के की, शेष मै आपको अगले भाग में बताता हूँ! 

विशेषताएं:- लिबो सिक्के पर एक ओर जहां उस खुदरा मूल्य अंकित है वहीँ दूसरी ओर उस पर नौ ग्रह भी बने हुए हैं, इसीलिए इनको नवग्रह-सिक्के भी कहा जाता है, लिबो का यूनानी भाषा में अर्थ है सूर्य-प्रहरी! इनमे और भी विशेषताएं हैं, इनको चार्ज मभी किया जा सकता है तब ये अपनी क्षमता में वृद्धि कर लेते हैं! ८७ प्रकार के पदार्थ इसमें संघनित होते हैं प्रत्येक की अपनी विशेषता है! इस पर अंकीर्ण नवग्रह जैसे चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शनि, शुक्र, शनि, राहु और केतु के साथ स्व्यं सूर्य भी होते हैं, कइयों पर नाग बने हैं और कइयों पर कुछ अन्य चिन्ह भी अंकित हैं! ये सभी ग्रह एक दूसरे से शिराओं से जुड़े हुए हैं और इन्ही से इसमें ऐसी शक्तियां निहित हैं! कहा जाता है, इन सिक्कों में सभी ग्रहों के पदार्थ अवशोषित हैं! धातुविद् जानकारों ने ये पदार्थ तीन भाग में बांटे हैं, इनमे इक्कीडयम, इरीडियम और वीरेडियम मुख्य हैं! सन १६१६ में इन सिक्कों की कीमत ही लाखों में थी और आज तो खरबों रुपयों में है!
ऐसा ही एक सिक्का पद्मा जोगन के पास मैंने देखा था! पद्मा जोगन रहने वाली नरसिंहगढ़, मध्य-प्रदेश की थी, लेकिन उस समय वो सियालदाह में रह रही थी, उसको ये सिक्का उसके गुरु योगी राज कद्रुम ने दिया था! वो उसको अपने गले में बंधी एक छोटी सी डिब्बी में रखती थी, कार्बन पेपर में लपेट कर! खूब चर्चा में रही वो! बहुत लोगों ने प्रपंच लड़ाए लेकिन कुछ काम न आये! और फिर वर्ष २०१२ के दशहरे के दिन पद्मा जोगन अपने स्थान से गायब हो गयी! उसने कभी किसी को नहीं बताया कि वो कहाँ जा रही है! कहते हैं उसने जल-समाधि ले ली, कुछ कहते हैं हत्या हो गयी, कुछ कहते हैं भूमि में समाधि ले ली! लेकिन उसका सिक्का? वो कहाँ गया? उस सिक्के का मोल बहुत अधिक है! और इस तरह हुई उस सिक्के की खोज आरम्भ!
मेरे पास ये खबर दिवाली से दो रोज पहले आयी थी, हालांकि मुझे कोई आवश्यकता नहीं थी सिक्के की, मै बस इस से चिंतित था कि पद्मा जोगन का क्या हुआ? वो पैंतालीस साल की थी, हाँ, देखने में कोई तीस साल की लगती थी, सुन्दर और अच्छी मजबूत कद काठी की थी, मेरी मुलाक़ात उस से करीं पद्रह वर्ष पहले हरिद्वार में हुई थी, तभी से वो और मै एक दूसरे को जानते थे, सिक्के वाली बात तो मुझे बाद में पता चली थी! तब मेरी ज़िद पर वो सिक्का उसने मुझे दिखाया था, उसने बिजली का टेस्टर उसके पास रखा था और वो जलने लगा था! बहुत अजीब सा सिक्का लगा था मुझको वो!
खैर, एक दिन मेरा आना हुआ सियालदाह शर्मा जी के साथ, तब मै उसके स्थान पर गया था, तब तक वो समाधि ले चुकी थी, ऐसा मुझे बताया गया, उसने किसी को बताया भी नहीं था और बिना खबर किये वो गायब भी हो गयी थी! 
जब मै वहाँ गया तो मुझे वहाँ के संचालक भान सिंह से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ, भान सिंह राजस्थानी थे, उन्होंने भी मुझे पद्मा जोगन के बारे में वही बताया जो कि सुना-सुनाया था! कोई ठोस और पुख्ता जानकारी नहीं मिल सकी थी!
उस दिन शाम के समय मै और शर्मा जी आदि लोग बैठे हुए थे, मदिरा का समय था, वही सब चल रहा था, तभी पद्मा जोगन का ज़िक्र चल पड़ा! मेरी बात हुई इस औघड़ से, वो पद्मा जोगन के गायब होने से कुछ घंटे पहले ही मिला था उस से, नाम था छगन!
"तुम्हे कुछ आभास हुआ था?" मैंने पूछा,
"नहीं तो" वो बोला,
"कोई आया गया था उसके पास से?" मैंने पूछा,
"मै उसके साथ दोपहर से था, कोई आया गया नहीं था" उसने कहा,
"क्या पद्मा ने कुछ कहा था इस बारे में?" मैंने पूछा,
"नहीं तो" वो बोला,

मै सोच में पड़ गया!
पद्मा जोगन के जान-पहचान का दायरा वैसे तो बहुत बड़ा था, परतु उसको एकांकी रहने ही पसंद था, इक्का-दुक्का लोगों के अलावा और किसी से नहीं मिलती थी, तो हत्या वाला सिरा ख़ारिज किया जा सकता था, न उसके पास धन था और न कोई अन्य विशेष सिद्धि, हाँ मसान अवश्य ही उठा लेती थी, हाँ, वो सिक्का किसी से दुश्मनी का सबब बन सकता था, किसी धन की चाह रखने वाले के लिए, ये सम्भव था,
"छगन?" मैंने पूछा,
"जी?" उसने कहा,
"कोई नया आदमी मिलने आता था उस से?" मैंने पूछा,
"नहीं तो" वो बोला,
"कोई औरत?" मैंने पूछा,
"हाँ, एक औरत आती थी" उसने सुलपा खींचते हुए बताया,
"कौन?" मैंने पूछा,
"बिलसा" उसने धुंआ छोड़ते हुए कहा,
और सुलपा मुझे थमा दिया, मैंने कपडे की फौरी मारी और एक कश जम के खेंचा! तबियत हरी हो गयी! बढ़िया सुतवां लाया था छगन!
"कौन बिलसा?" मैंने पूछा,
''रंगा पहलवान की जोरू" उसने सुलपा लेते हुए कहा,
"वो मालदा वाला डेरू बाबा का रंगा पहलवान?" मैंने पूछा,
"हाँ, वही" उसने धुआं छोड़ते हुए गर्दन हिलाई,
"तो बिलसा काहे आई इसके पास?" मैंने पूछा,
"कोई रिश्ता है दोनों में" उसने कहा,
"किसमे?" मैंने पूछा,
"रंगा में और पद्मा में" वो बोला,
'अच्छा?" मैंने हैरत से पूछा,
"हाँ" वो बोला,
"क्या रिश्ता है?" मैंने पूछा,
"ये नहीं पता?" उसने बताया,
मेरे लिए जानना ज़रूरी था!
"अब बिलसा कहाँ है?" मैंने पूछा,
"वहीँ मालदा में" वो बोला,
"अच्छा, डेरू बाबा के पास?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
अब मैंने छगन को अंग्रेजी माल बढ़ाया उसके गिलास में! उसने उठाया, बत्तीसी दिखायी और गटक गया!
"छगन?" मैंने कहा,
"हाँ जी" वो बोला,
"पद्मा के सिक्के के बारे में कुछ पता है?" मैंने पूछा,
"नहीं जी" वो बोला,
"कहीं बिलसा इसी मारे तो नहीं आती थी वहाँ?" मैंने शक ज़ाहिर किया,
"पता नहीं जी" उसने कहा,
"चल कोई बात नहीं, मैं खुद बिलसा से पूछूंगा!" मैंने कहा,
"वहाँ जाओगे?" उसने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"मैं भी चलूँ?" उसने पूछा,
"चल" मैंने कहा,
"ठीक है" वो बोला,

अब हमारा कार्यक्रम तय हो गया, कल हम मालदा जाने वाले थे!

गले दिवस हम निकल पड़े मालदा, सुबह कोई सात बजे, ये तीन सौ छब्बीस किलोमीटर दूर है सियालदह से, सो बस पकड़ी और चल दिए, पूरा दिन लग जाना था, अतः नाश्ता-पानी कर के चल दिए थे!
जब हम वहाँ पहुंचे तो रात के ९ बज गए थे, यात्रा बड़ी बुरी और थकावट वाली थी, घुटने, पाँव और कमर दर्द कर रहे थे! हम सीधे अपने जानकार के डेरे पर पहुंचे, हम वहीँ ठहरे, और स्नान आदि से निवृत हो कर भोजन किया और फिर लम्बे पाँव पसार कर सो गए!
सुबह उठे तो ताज़ा थे, थकावट हट गयी थी! दूध आ गया गरम गरम! दूध पिया और साथ में कुछ मक्खन-ब्रेड भी खाये, नाश्ता हो गया!
"छगन?" मैंने कहा,
"हाँ जी?" वो बोला,
"डेरू बाबा का डेरा कहाँ है यहाँ?" मैंने पूछा,
"होगा यहाँ से कोई पचास किलोमीटर" वो बोला,
"चल फिर" मैंने कहा,
"चलो जी" वो बोला.
अब हम उठे, मैं संचालक से मिला उसको बताया और हम वहाँ से निकल गए डेरू बाबा के डेरे के लिए!
सवारी गाड़ी पकड़ी और उसमे बैठ कर चल दिए, डेढ़ घंटा लग गया पहुँचने में वहाँ, ऊंचाई पर बना था डेरा, बड़ा सा स्वास्तिक बना था दरवाज़े पर और झंडे कतार में लगे थे!
हम अंदर गए, परिचय दिया तो उप-संचालक से बात हुई, उसने हमे एक कक्ष में बिठाया, डेरू बाबा वहाँ नहीं था, खैर, हमे तो रंगा से मिलना था, उप-संचालक ने एक सहायक को भेज दिया उसको बुलवाने के लिए और चाय मंगवा दी, हम चाय पीने लगे, पंद्रह मिनट के बाद सहायक आया और बताया कि रंगा गया हुआ है डेरू बाबा के साथ और शाम को आना है उनको वापिस!
खैर जी,
अब हमने रंगा पहलवान की पत्नी से मिलने की इच्छा जताई, उप-संचालक ने सहायक को भेज दिया बिलसा को बुलवाने के लिए!
थोड़ी देर में एक अधेड़ उम्र की औरत आयी वहाँ, उसने नमस्कार किया हमने भी नमस्कार किया,
"बिलसा? तू ही है?" शर्मा जी ने पूछा,
"हाँ" उनसे कहा,
"आदमी कहाँ है तेरा?" उन्होंने पूछा,
''गया हुआ है डेरू बाबा के साथ" उसने बताया,
"अच्छा" अब मैंने कहा,
"शाम तलक आयेंगे" वो बोली,
"एक बात बता, पद्मा जोगन को जानती है तू?" मैंने पूछा,
वो चुप!
"बता?" मैंने पूछा,
"नहीं" उसने कहा,
अब छगन ने मुझे देखा और मैंने बिलसा को!
"वो सियालदाह वाली पद्मा जोगन?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
"कहाँ गयी वो?" मैंने पूछा,
"पता नहीं" वो बोली,
"आखिरी बार कब मिली तू उस से?" मैंने पूछा,
"तभी उसके जाने के दो दिन पहले" वो बोली,
"कुछ बताया था उसने?" मैंने पूछा,
"नहीं" वो बोली,
"मैंने कुछ पूछा?" मैंने कहा,
"नहीं" वो बोली, और फिर एक दम से उठकर चली गयी बाहर!
मैं आश्चर्यचकित!
"ये बहुत कुछ जानती है, या फिर कुछ भी नहीं खाकधूर कुछ भी नहीं" मैंने कहा,
"लेकिन ये उठ क्यों गयी?" शर्मा जी ने पूछा,
"अपने आदमी के सामने बात करेगी" मैंने कहा,
"यानि कि शाम को" वे बोले,
"हाँ, मैंने कहा,
"चलो कोई बात नहीं, शाम को ही सही" उन्होंने कहा,
"हाँ, शाम को सही" मैंने कहा,
अब हम उठे वहाँ से, बिलसा का रवैय्या पसंद नहीं आया मुझे, लगता था कुछ छिपा रही है हमसे! पर अब शाम को ही बात बन सकती थी!
हम कक्ष से बहार आये, उप-संचालक के पास गए और फिर शाम को आने की कह दिया, वो तो हमको वहीँ रोक रहे थे, लेकिन मैंने मना कर दिया,
हम बाहर आ गए, बाहर आकर भोजन किया और फिर अपने डेरे पर वापिस आने के लिए सवारी गाड़ी पकड़ ली, आराम से हम आ गए अपने डेरे पर!
छगन वहाँ से अपने किसी जानने वाले के पास चला गया और अब यहाँ रह गए हम दोनों, हमने आराम किया और एक झपकी लेने के लिए अपने अपने बिस्तर पर लेट गए!
जन आँख खुली तो २ बजे थे, मौसम सुहावना था, शर्मा जी सोये हुए थे अभी, मैं बाहर आ गया और आकर एक पेड़ के नीचे वहाँ पत्थर से बनी एक कुर्सी पर बैठ गया, और पद्मा जोगन के बारे में सोचने लगा, कोई क्यों चाल खेलेगा उस से? सिक्के के लिए? हाँ, ये हो सकता है, लेकिन वो कहाँ गयी? ये था सवाल असली तो!
तभी शर्मा जी भी बाहर आ गए और मेरे पास आ कर बैठ गए!
"कब उठे?'' उन्होंने पूछा,
"अभी बस आधा घंटा पहले" मैंने कहा,
"थक गया था मैं, इसीलिए ज़यादा सो लिया" वो बोले,
"कोई बात नहीं" मैंने कहा,
"चाय पी जाए" वे बोले,
उन्होंने एक सेवक को चाय लाने के लिए कह दिया! वो चला गया और हम बातचीत करते रहे!
"ये पद्मा जोगन शादीशुदा थी?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"तो इसका आदमी?" उन्होंने पूछा,
"शादी के एक महीने बाद ही रेल से कटकर मर गया था" मैंने कहा,
"ओह" वे बोले,
"कोई संतान?" उन्होंने पूछा,
"कोई नहीं" मैंने कहा,
"ओह" वे फिर बोले,
"तो सियालदाह वो अपने गुरु के साथ रहती थी?" वे बोले,
"हाँ, उसके गुरु ने ही उसकी शादी करवायी थी" मैंने कहा,
"अच्छा" वे बोले,
सहायक चाय लाया और हमने चाय की चुस्कियां लेना आरम्भ किया, साथ में चिप्स भी लाया था, देसी चिप्स!
हम चाय का मज़ा ले रहे थे, तभी छगन का वहाँ आना हुआ, ओ जिस से मिलकर आया था वो एक स्त्री थी, छगन के गाँव की स्त्री, छगन हमारी तरफ बढ़ा तो मैंने कहा, "मिल आये छगन?" 
"हाँ जी" वो बोरा और अपना झोला एक तरफ रख दिया,
"कुछ लाया है क्या वहाँ से?" मैंने पूछा,
"हाँ, कुछ सामान है" उसने बताया,
"अच्छा" मैंने कहा,
"सोचा लेता आऊं, बाद में नहीं आना होता इधर" वो बोला,
"चल ठीक रहा" मैंने कहा,
"हाँ जी" वो बोला,
"जा चाय ले आ अंदर से" मैंने कहा,
वो चाय लेने चला गया,
"गुरु जी, ये छगन क्या करने जाता था उस जोगन के पास?" शर्मा जी ने पूछा,
"ऐसे ही जाता होगा, मिलने के लिए" मैंने कहा,
"हम्म" वे बोले,
"और वैसे भी जोगन बहुत कम मिला करती थी मिलने वालों से" मैंने कहा,
"अच्छा" वे बोले,
छगन चाय ले आया इस बीच, चाय पीने लगा,
"आज शाम निकलते हैं छह बजे, क्यों छगन?" मैंने पूछा,
"हाँ, चलते हैं" वो बोला,
"और सुना छगन, कोई ऐसी बात जो काम की हो?" मैंने पूछा,
"ऐसी तो कोई बात नहीं, हाँ एक बात मुझे खटकती थी वहाँ" वो बोला,
"क्या?" अब मैंने चौंका,
"बिलसा जब भी आती थी तो अक्सर उसके साथ एक लड़की होती थी" वो बोला,
"लड़की?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" वो बोला,
"कैसी लड़की?'' मैंने पूछा 
"बाहरी" उसने कहा,
बाहरी मतलब किसी डेरे की नहीं,
"क्या उम्र होगी उसकी?" मैंने पूछा,
"बीस-बाइस से ज्यादा नहीं होगी" वो बोला,
अब रहस्य में एक गाँठ और लगा दी थी कस के छगन ने!
"बिलसा कुल कितनी बार आयी होगी मिलने के लिए?" मैंने पूछा,
"करीब छह-सात बार, चार-पांच महीने में" वो बोला,
"अच्छा" मैंने कहा,
इसके बाद मैं चिंता में पड़ा, कौन लड़की? किसलिए आती थी? क्या कारण था? खैर, अब इसका पता बिलसा या रंगा से मिल सकता था, और आज शाम हम जाने वाले थे वहाँ,
मैं और शर्मा जी अपने कमरे में आ गए, छगन नहाने धोने चला गया,
"अब ये लड़की कौन?" शर्मा जी ने पूछा,
"पता नहीं?" मैंने कहा,
'वो भी बाहरी?" उन्होंने पूछा,
"पता करते हैं आज" मैंने कहा,
"ये तो रहस्य गहराता जा रहा है" वे बोले,
"हाँ, अवश्य ही कुछ गड़बड़ है, पक्का" मैंने कहा,
"अंदेशा है मुझे भी ऐसा" उन्होंने ऐसा कह और मोहर दाग दी!
"बाहरी, अर्थात कोई और" मैंने स्व्यं से सवाल किया,
"लेकिन कौन? किसलिए?" एक और सवाल!
इसी उहापोह में आगे का समय कटा, खैर जी, खाना खाया और फिर टहलने के बाद वापिस कक्ष में आ गए हूँ तीनों, पांच बज चुके थे और छह बजे करीब निकलना था वहाँ से, सो सोचा थोडा सा आराम और फिर कूच!
इस बीच छगन ने मुझे कुछ और बातें भी बताईं, कुछ ज़रूरी भी और कुछ ऐसे ही!
और अब बजे छह,
"चलो" मैंने कहा,
"चलिए" वे बोले,
और हम निकल गए,
डेरू बाबा के डेरे पहुंचे. अब वहाँ रौनक सी थी, हम अंदर गए और फिर संचालक से हमने रंगा पहलवान से मिलने की इच्छा जताई, अपना परिचय भी दिया,
"आप लोग बैठिये, मैं बुलवा लेता हूँ" संचालक ने कहा,
"ठीक है, धन्यवाद" मैंने कहा,
हम कक्ष में बैठ गए!
और थोड़ी देर बाद रंगा पहलवान आ गया अपनी पत्नी बिलसा के साथ, चेहरे पर अजीब से भाव लिए!
रंगा पहलवान अन्दर आया और सामने पड़े मूढ़े पर बैठा गया, देह उसकी पहलवान की ही थी, जवानी में खूब पहलवान रहा होगा, पता चलता था, उसकी पत्नी वहीँ एक चारपाई पर बैठ गयी, अब मैंने बात आरम्भ की, "रंगा, मैं दिल्ली से आया हूँ, पद्मा जोगन के बारे में जानना चाहता हूँ, तुम्हारी पत्नी बिलसा अक्सर उसके पास जाया करती थी"
"हाँ, जाया करती थी" उसने कहा,
"कोई लड़की भी जाती थी बिलसा के साथ, कोई बाहरी लड़की" मैंने पूछा,
"हाँ, वो लड़की मेरी भतीजी है, कोलकाता में रहती है" उसने बताया,
"तुमको तो मालूम है, पद्मा जोगन अचानक से गायब हो गयी थी?" मैंने कहा और सीधे ही मुख्य विषय पर आ गया,
"हाँ, सुना था" उसने कहा,
"क्या पद्मा जोगन ने इस बारे में कभी बिलसा को कुछ बताया था?" मैंने पूछा,
"नहीं" उसने कहा,
"क्या बिलसा कुछ कहेगी इस बारे में?" मैंने पूछा,
"नहीं" उसने कहा,
"क्यों?" मैंने पूछा,
"आप बताइये कि क्यों बताये?" उसने कहा,
"मैं तो जानना चाहता हूँ कि कुछ सुराग मिल जाए कुछ उसका?'' मैंने कहा, 
"आप जानना चाहते हैं?" उसने कहा,
"हाँ" मैंने कहा,
"बताता हूँ" उसने कहा,
अब मेरे कान खड़े हुए!
"पद्मा जोगन ने स्व्यं कहीं जाकर समाधि ले ली है, कहाँ ये नहीं पता, यदि पता होता तो मैं आपको अवश्य ही बताता, जितना जानता हूँ उतना ही बताया है" वो बोला,
"ये तुमको कहाँ से पता चला?" मैंने पूछा,
"मुझे एक औघड़ दीना नाथ ने बताया था" वो बोला,
उसकी आवाज़ में लरज़ नहीं थी, कपट नहीं था, छल नहीं था, अस्वीकार नहीं किया जा सकता था!
"अच्छा! ये औघड़ दीनानाथ कहाँ रहता है?" मैंने पूछा,
"ये सियालदह में ही है" उसने मुझे फिर पता भी दे दिया,
अब हमारा काम यहाँ ख़तम हो गया था, रंगा ने भरसक बताया था, यक़ीन करना ही था, चोर में साहस नहीं होता, नहीं तो वो चोरी ही न करे!
अब हम उठे वहाँ से और फिर वापिस चल दिए अपने डेरे की तरफ, रंगा पहलवान छोड़ने आया हमको बाहर तक, नमस्कार हुई और फिर हम वापिस चल पड़े!
औघड़ दीनानाथ! अब इस से मिलना था! और ये सियालदाह में था, अर्थात अब वापिस सियालदह जाना था उस से मिलने के लिए, जहां का पता था वो जगह काफी जंगल जैसी थी, वहाँ क्रियाएँ आदि हुआ करती थीं, साधारण लोग वहाँ नहीं जा सकते थे, काहिर हमको तो जाना ही था, बिलसा और रंगा दोनों ही कड़ी से बाहर थे अब, और वो लड़की भी! अब फिर से थकाऊ यात्रा करनी थी! तीन सौ किलोमीटर से अधिक की यात्रा, पूरा दिन लग जाना था! पर क्या करें, जाना तो था ही!
तो मित्रो, हम तीनों निकल पड़े वहाँ से अगले दिन सुबह, नाश्ता कर लिया था, भोजन बाद में कहीं करना था, हमने बस पकड़ी और निकल दिए! हिलते-डुलते, ऊंघते-जागते आखिर रात को सियालदह पहुँच गए! जाते ही अपने अपने बिस्तर में घुस गए, थकावट के मारे चूर चूर हो गए थे, लेटे हुए भी ऐसा लग रहा था जैसे बस में ही बैठे हैं! फिर भी, नींद आ ही गयी! हम सो गए!
जब सुबह उठे तो सुबह के आठ बजे थे, शर्मा जी जाग चुके थे और कक्ष में नहीं थे, छगन दोहरा हुआ पड़ा था अपने बिस्तर में! मैं भी उठा और दातुन की, फिर स्नान करके आया और फिर अपने बिस्तर पर बैठ आज्ञा, छगन को जगाया और छगन नमस्ते कर बाहर चला गया! अब शर्मा जी आ गए, वे नहा-धो चुके थे पहले ही!
"कहाँ घूम आये?" मैंने पूछा,
"दूध पीने गया था" वे बोले,
'वाह! राघव मिला?" मैंने पूछा,
"हाँ, उसी ने प्रबंध किया" वे बोले,
"बढ़िया है" मैंने कहा,
"आप चलिए?" उन्होंने पूछा,
"यहीं आ जाएगा राघव अभी" मैंने कहा,
"हाँ, ये तो है" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"अच्छा गुरु जी?" उन्होंने कहा,
"हाँ?" मैंने कहा,
"कहाँ जाना है आज?" वे बोले,
"है यहाँ से कोई बीस किलोमीटर" मैंने कहा,
"कब चलना है?" वे बोले,
"चलते हैं कोई ग्यारह बजे" मैंने कहा,
"ठीक है" वे बोले,
तभी एक सहायक आया, लोटा लाया, लोटे में दूध और साथ में एक गिलास, साथ में रस्क! मैंने पीना आरम्भ किया!
"दूध बढ़िया है" मैंने कहा,
"गाय का है जी" वे बोले,
'वाह!" वे बोले,
"अब शहर में ऐसा दूध कहाँ!" मैंने कहा,
"हाँ जी!" वे बोले,
मैंने दूध समाप्त किया!
"शर्मा जी?' मैंने कहा,
"जी?" वे बोले,
"अभी थोड़ी देर बाद चलते हैं बाहर, मुझे एक महिला से मिलना है" मैंने कहा,
"कौन?" वे बोले,
"श्रद्धा" मैंने कहा,
"समझ गया" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"उचित है" वे बोले,
श्रद्धा वहाँ रेलवे विभाग में कार्यरत थीं, उनसे मिलने जाना था, मेरे पुराने जानकारों में से एक हैं वे!
फिर कुछ देर बाद!
"चलें?" मैंने पूछा,
"चलिए" मैंने कहा,
और हम दोनों फिर निकल पड़े श्रद्धा से मिलने के लिए!
उनके घर!
हम श्रद्धा जी के घर पहुंचे, भव्य और विनम्र स्वागत हुआ, मुझे दिल्ली की वापसी कि भी टिकट करानी थी, सो चाय आदि पी कर और ब्यौरा देकर हम वापिस आ गए यहाँ से, जब वापिस आये तो छगन वहीँ मिला हमसे, अब हमको दीनानाथ औघड़ के पास जाना था, अतः एक फटफटी सेवा लेकर उसमे बैठकर हम पहुँच गए दीनानाथ के ठिय़े पर, बाहर कुछ लोग खड़े थे, जैसे कोई तैयारी चल रही हो, किसी आयोजन की! पता चला ये एक बाबा नेतराम का आश्रम है और औघड़ दीनानाथ आजकल यही शरण लिए हुए हैं! हम अंदर गए, छगन रास्ता बनाता संचालिका के पास पहुंचा, और दीनानाथ औघड़ के बारे में मालूमात की, एक सहायक हमको दीनानाथ के कक्ष तक ले गया और हमने कक्ष में प्रवेश किया, अंदर दीनानाथ कौन स था पता नहीं था, पता करने पर पता चल गया, वो कोई पचास बरस का औघड़ रहा होगा, दरम्याना क़द था उसका, लम्बी-लम्बी काली सफ़ेद दाढ़ी थी और शरीर का कोई अंग ऐसा नहीं था जो भस्मीभूत ना हो! गले में और भुजाओं में तांत्रिक आभूषण सुसज्जित थे उसके!
"आइये बैठिये" वो बोला,
हम बैठ गए!
"कहिये, क्या काम है?" उसने पूछा,
"पद्मा जोगा, उसी के बारे में बात करनी है" मैंने कहा,
वो ना तो चौंका और ना ही चेहरे के भाव बदले उसके! हाँ, कुछ पल शांत हुआ और अपने चेले-चपाटों को उसने बाहर भेज दिया,
"क्या बात करनी है उसके बारे में?" उसने पूछा,
"वो गायब हो गयी अचानक से, क्या आपको कुछ मालूम है?'' मैंने पूछा,
वो शांत हुआ!
कुछ देर दाढ़ी पर हाथ फिराया!
"बला!" वो बोला,
"बला?" मैंने हैरत से पूछा,
"हाँ बला!" वो बोला,
"कैसे?" मैंने पूछा,
"वो लिबो सिक्का, वही बला" उसने कहा,
"अर्थात?" मैंने पूछा,
"हाँ, उसी की वजह से वो गायब हुई होगी, खबर तो ये हर जगह थी" वो बोला,'
"हुई होगी?" मैंने पूछा,
"हाँ" वो बोला,
"आपने वो सिक्का देखा था?" मैंने पूछा,
"हाँ" वो बोला,
"हम्म" मैंने कहा,
और मैं अब अधर में था!
"किसको जानकारी थी?" मैंने पूछा,
"नुकरा नुकरा पर" उसने कहा,
अर्थात नुक्कड़ नुक्कड़ पर!
"आपके हिसाब से क्या हुआ होगा?" मैंने पूछा,
"मार दिया होगा, गाड़ दिया होगा कहीं किसी ने?" उसने भौंहे उचकाते हुए कहा,
"और वो खुद कहीं चली गयी हो तो?" मैंने पूछा,
"हो सकता है" वो बोला,
अब तक चाय आ गयी, पीतल के कपों में! हमने चाय पीनी आरम्भ की,
"आपने 'खोज' नहीं की उसकी?" मैंने पूछा,
"क्या ज़रुरत?" उसने मेरी बात काट दी!
अब मामला और गम्भीर!
दीनानाथ का बताने का लहज़ा बहुत रूखा था, उसने ये दिखाया था कि वो क्या जाने क्या हुआ पद्मा जोगन का! ये बात मुझे अच्छी नहीं लगी थी, अब मेरा लहजा भी उसी की तरह हो गया!
"देख लगा लेते तो 'खोज' हो जाती" मैंने कहा,
"मैंने बताया नहीं? क्यों?" उसने मुझे घूर के कहा,
"इसलिए कि कम से कम वो आज ज़िंदा होती" मैंने कहा,
"और फिर और मुसीबत पैदा किया करती" उसने कहा,
"नहीं, आवश्यक नहीं ये" उसने कहा,
खैर, अब ये स्पष्ट हो ही गया कि दीनानाथ के हृदय में कोई जगह नहीं पद्मा जोगन के लिए, चाहे वो जिए या मरे!
"ठीक है, कोई बात नहीं" मैंने कहा,
उसने हाथ जोड़े,
"चलता हूँ" मैंने कहा,
"अब आप लगा लो देख" उसने कहा,
व्यंग्य किया,
"हाँ, वो तो लगाऊंगा ही" मैंने कहा,
"पता चल जाए तो मुझे भी बता देना" उसने कहा,
"हाँ" मैंने कहा,
अब मैं वहाँ से निकला, मुंह का स्वाद कड़वा कर दिया था उसके व्यवहार ने, अब देख लगानी ही थी मुझे! अन्य कोई रास्ता नहीं था, खोज ज़रूरी ही थी! मैंने पद्मा जोगन के रहस्य से पर्दा उठाना चाहता था, चाहे किसी को कोई फ़र्क़ पड़े या नहीं परन्तु मुझे उत्सुकता थी जहां एक तरफ वहाँ निजी चाह भी थी!
अब हम वहाँ से वापिस आये, मैं अपने स्थान पर पहुंचा, मैंने छगन से किसी जगह के बारे में पूछा, उसने हामी भर ली, जगह का प्रबंध हो गया,
अगली दोपहर मैं छगन के साथ उसके स्थान पर पहुँच और एक खाली स्थान पर कुछ सामग्रिया आहूत कर मैंने देख लगायी, पहली देख भम्मा चुड़ैल की थी, वो खाली हाथ आयी, दूसरी देख वाचाल की, वो भी खाली हाथ आया, तीसरी देख कारिंदे की और वो भी बेकार! अब निश्चित था कोई अनहोनी घटी है पद्मा जोगन के साथ, अब मेरे पास देख थी एक ख़ास, शाह साहब भिश्ती वाले! मैंने शाह साहब का रुक्का पढ़ा, एक पेड़ के तने में एक चौकोर खाना छील और उसमे काजल भर दिया, अब दरख़्त को पाक कर मैंने शाह साहब की देख लगायी, पहले एक रास्ता दिखा, उस रास्ते पर बुहारी करने वाला आया, फिर एक भिश्ती आया, पानी छिड़क कर जगह साफ़ की, फिर एक तखत बिछाया गया, और उस पर क़ाज़ी साहब बैठे, शाह साहब, उनको पद्मा जोगन के बारे में पूछा गया और उनके नेमत और मेहरबानी से कहानी आगे बढ़ी, तीन-चार मिनट में ही कहानी पता चल गयी, मैंने शाह साहब का शक्रिया किया और फिर पर्दा ढाँपने के लिए अपनी पीठ उनकी तरफ कर ली! शाह साहब की सवारी चली गयी! और मेरे हाथ मेरा सवाल का उत्तर लग गया!
मैं वापिस आया वहाँ से, छगन और शर्मा जी वहीँ बैठे था,
"काढ़ लिया?" छगन ने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"खूब!" वो बोला
"हाँ" मैंने कहा,
"हत्या हुई उसकी?" उसने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
"फिर?" उसने पूछा,
"बता दूंगा" मैंने कहा,
"जी" वो बोला.
अब हम वहाँ से अपने स्थान के लिए निकल पड़े!
हम अपने स्थान पहुंचे, छगन रास्ते में ही उतर गया था किसी के पास जाने के लिए,
"क्या हुआ था?" शर्मा जी ने पूछा,
"जो कुछ हुआ, मुझे अभी तक विश्वास नहीं" मैंने कहा,
"मतलब?" उन्होंने उत्सुकता से पूछा,
"पद्मा जोगन ने जलसमाधि ली थी" मैंने कहा,
"कहाँ?'' उन्होंने पूछा,
"अंजन ताल में" मैंने कहा,
"वहाँ क्यों?" उन्होंने पूछा,
"पता नहीं" मैंने बताया,
"लेकिन समाधि क्यों?" उन्होंने पूछा,
"ये भी नहीं पता" मैंने कहा,
"ओह" वो बोले,
मैं चुप रहा,
"ये अंजन ताल कहाँ है?" उन्होंने पूछा,
"वहीँ, एक सामान्य सा ताल है" मैंने कहा,
"अच्छा" वे बोले,
"इसका मतलब कोई अनहोनी नहीं हुई उसके साथ?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
अब कुछ पल दोनों चुप,
"अब?" वे बोले,
"अब इन सवालों के उत्तर जानने हैं" मैंने कहा,
"कौन देगा उत्तर?" उन्होंने पूछा,
"स्व्यं पद्मा जोगन" मैंने कहा,
"ओह! उठाओगे उसे?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"कब?'' उन्होंने पूछा,
"आज रात" मैंने कहा,
"अच्छा" वे बोले,
"लेकिन पद्मा जोगन की कोई वस्तु आवश्यक नहीं?" पूछा उन्होंने,
"हाई, हम चलते हैं अभी" मैंने कहा,
"ठीक है" वे बोले,
और फिर हम निकल ही लिए पद्मा जोगन के स्थान के लिए, अब इस रहस्य से पर्दा उठना ज़रूरी था, मेरे अंदर उत्सुकता छलांग मारे जा रही थी!
करीब एक घंटे में हम पद्मा जोगन के स्थान पर पहुँच गए, संचालक से मिले, उसने हमारी मदद करने का ना केवल आश्वासन ही दिया बल्कि मदद भी की, उसने हमको पद्मा जोगन के कक्ष की चाबी दे दी, कक्ष अभी तक बंद था, हमने कक्ष खोला और मैं पिछली मुलाक़ात में पहुँच गया, सुन्दर औरत थी वो, सीधी-सादी, व्यवहार-कुशल, अपने में ही सिमटे रहने वाली थी वो जोगन! मुझे वो अच्छी लगती थी अपनी सादगी से, अपने मित्रवत व्यवहार से, भोज-कला से, खाना बहुत लज़ीज़ बनाती थी! बहुत अच्छी तरह से परोस कर खिलाती थी, मेरे ह्रदय में उसके प्रति सम्मान था, जैसे कि एक बड़ी बहन के प्रति होता है!
अंदर उसके वस्त्र टंगे थे, सफ़ेद और पीले वस्त्र! कुछ बैग से और कुछ कुर्सियां और मूढ़े! मैंने एक जगह से एक अंगोछा ले लिया, ये उसका ही था, अक्सर अपने पास रखती थी, गुलाबी रंग का अंगोछा, संचालक को कोई आपत्ति नहीं हुई! हमने धन्यवाद किया और वहाँ से वापिस हुए!
अपने स्थान पहुंचे,
अपने स्थान पहुँच कर मैंने रणनीति बनानी आरम्भ की, क्या किया जाए और कैसे किया जाए, किस प्रकार जांच को आगे बढ़ाया जाए आदि आदि, दरअसल मुझे पद्मा जोगन की रूह को खोजना था, वही बता सकती थी असल कहानी, एक एक कारण का खुलासा हो सकता था उस से, और मेरी उत्सुकता भी शांत हो सकती थी! मैंने उसी शाम अपने एक जानकार हनुमान सिंह से संपर्क किया और शमशान में एक स्थान माँगा, उसने घंटे भर के बाद बात करने को कहा, उम्मीद थी कि स्थान मिल जाएगा, तभी शर्मा जी ने कुछ सवाल पूछे,
"आज पता कर लेंगे आप?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, शत प्रतिशत" मैंने कहा,
"ठीक है" वे बोले,
"मुझे कारण जानना है" मैंने कहा,
"हाँ, सही कहा आपने" वे बोले,
घंटा बीता, हनुमान सिंह से बात हुई, उस रात्रि कोई स्थान नहीं उपलब्ध था, स्थान अगली रात को ही उपलब्ध हो सकता था, अब अन्य कोई चारा भी नहीं था, इंतज़ार करना ही पड़ता, तो हनुमान सिंह को अगली रात का प्रबंध करने के लिए कह दिया,
मन में कई चिंताएं उमड़-घुमड़ रही थीं, जैसे कोई अकेली मछली सागर का ओरछोर देखने की अभिलाषा में दिन रात, अनवरत तैरे जा रही हो, भूखी प्यासी!
"शर्मा जी, आज प्रबंध कीजिये मदिरा का, आप संचालक से कह के ले आइये, साथ में खाने के लिए भी कह दीजिये, मैं कक्ष में जा रहा हूँ" मैंने कहा,
"जी, अभी कहता हूँ" वे बोले,
अब वो अपनी राह और मैं कक्ष की राह,
मन में बौछार बिखर रही थीं चिंताओं की, धुन्गार फैली थी पूरे मस्तिष्क में! काऱण क्या और कारण क्या, बस इस ने जैसे मेरी जान लेने की ठान राखी थी!
शर्मा जी ले आये सभी सामान, मैंने मदद की उनकी, सामान काफी था और ताज़ा बना हुआ था, मछली की ख़ुश्बू ज़बरदस्त थी! मैंने एक बड़ा सा टुकड़ा उठाया और खा लिया, वाक़ई लाजवाब थी!
"कुछ और लाऊं गुरु जी?" उन्होंने पूछा,
"क्या?" मैंने पूछा,
"फलादि?" उन्होंने पूछा,
"नहीं, रहने दो" मैंने कहा,
"जी" वे बोले.
"गुरु जी एक प्रश्न है दिमाग में" उन्होंने पहला पैग बनाते हुए कहा,
"कहिये" मैंने कहा,
"शाह साहब भिश्ती वाले नहीं बताएँगे ये?" उन्होंने पूछा,
"शाह साहब हाज़िर तो कर सकते हैं पद्मा को, लेकिन बुलवा नहीं सकते उसकी गैर-राजी के" मैंने कहा,
"ओह! मैं समझ गया!" वे चौंक गए!
गैर-राजी, यही बोला था मैंने!
"मैं स्व्यं उसको पकड़वाउंगा और पूछूंगा" मैंने कहा,
"ये ठीक है" वे बोले,
अब हमने मदिरा का सम्मान करते हुए, माथे से लगाते हुए, षोडशोपचार करते हुए अपने अपने गले में नीचे उतार लिया!
"अलख-निरंजन! दुःख हो भंजन" दोनों ने एक साथ कहा!
फिर दूसरा पैग!
"अलख-निरंजन! खप्परवाली महा-खंजन!" दोनों ने एक साथ कहा!
फिर तीसरा पैग!
"अलख निरंजन! नयन लगा मदिरा का अंजन!"दोनों ने एक साथ कहा,
तीन भोग सम्पूर्ण हुए!
"कल आप सफल हो जाओ, फिर देखते हैं क्या करना है" वे बोले,
"हाँ" मैंने गर्दन हिला कर कहा,
"पता चल जाए तो सुकून हो" वे बोले,
"बिलकुल" मैंने कहा,
फिर पैग बनाया गया, मैंने मछली साफ़ कर दी थी, वे उठे और बाहर गए, और ले आये!
हमने फिर से दौर आरम्भ किया!
"पद्मा जोगन के बारे में कोई और जानकारी?" उन्होंने पूछा,
"पद्मा जोगन की एक बहन थी, अब जीवित नहीं है, वो दुर्गापुर में बसी थी, पद्मा सारा सभी कुछ उसको भेज देती थी, मुझे उसका पता नहीं है कि कहाँ है" मैंने कहा,
"ओह! तो आपको कैसे पता कि वो जीवित नहीं?" उन्होंने पूछा,
"स्वयं पद्मा ने ही बताया था, वो बड़ी बहन थी उसकी" मैंने कहा,
"बड़े दुर्भाग्य की बात है"
"हाँ, भाई आदि और कोई नहीं" मैंने बताया
उस रात हम काफी देर तक बातचीत करते रहे, या यूँ कहें कि पेंच निकालते और डालते रहे, कई जगह रुके और फिर आगे चले, फिर वापिस मुडे और फिर आगे चले! यही करते रहे, जब मदिरा का मद हावी हुआ तो जस के तस पसर गए बिस्तर पर, हाँ मैं कुछ बड़बड़ाता रहा रात भर, शायद पद्मा जोगन से की हुई कुछ बातें थीं!
और जब सुबह मेरी नींद खुली तो सर भन्ना रहा था! घड़ी देखी तो सुबह के छह बजे थे, सर पकड़ कर मैं चला स्नानालय और स्नान किया, थोड़ी राहत मिली, स्नान से फारिग हुआ तो कमरे में आया, शर्मा जी भी उठ गए थे, नमस्कार हुई, मौन नमस्कार, और वे फिर स्नान करने के लिए स्नानघर चले गए, वे भी स्नान कर आये और अब हम दोनों बैठ गए, तभी सहायक आ गया, चाय लेकर आया था, साथ में फैन थे , करारे फैन, दो शर्मा जी ने खाये और तीन मैंने, चाय का मजा आ गया!
"सर में दर्द है, आपके भी है क्या?" मैंने पूछा,
"हाँ, दर्द तो है" वे बोले,
"अभी चलते हैं बाहर, यहाँ बाहर अर्जुन के पेड़ हैं उसकी छाल चबाते हैं, दर्द ठीक हो जाएगा,
"ठीक है" वे बोले,
अब हम बाहर चले और एक छोटे अर्जुन की पेड़ की छाल निकाली और फिर चबा ली, अब आधे घंटे में दर्द ख़तम हो जाना था!
"आज हनुमान सिंह खुद बात करेगा या उसको फ़ोन करना पड़ेगा?" उन्होंने पूछा,
"स्व्यं बात करेगा वो" मैंने कहा,
"ठीक है" वे बोले,
तभी मैंने सामने देखा, एक बिल्ली अपने बच्चों को दूध पिला रही थी, उसकी निगाहें हम पर ही थीं, मैंने हाथ से शर्मा जी को रोका, कार्य-सिद्ध होने का ये शकुन था! अर्थात आज हमारी नैय्या पार लग जाने वाली थी! मांसाहारी पशु यदि दुग्धपान कर रहे हों तो कार्य सिद्ध होता है और यदि शाकाहारी पशु हों तो कार्य सिद्ध नहीं होता! ऐसा यहाँ लिखने से मेरा अभिप्रायः ये नहीं कि अंधविश्वास को मैं बढ़ावा दूँ, परन्तु मैं शकुन-शास्त्र से ही चलता हूँ और ये मेरे अनुभूत हैं, तभी मैंने यहाँ ऐसा लिखा है!
"चलिए वापिस" मैंने कहा,
"जी" वे बोले,
और तभी 
हनुमान सिंह का फ़ोन आ गया, आज भूमि मिल जानी थी, अतः मैं आज सामग्री इत्यादि खरीद सकता था! ये भी अच्छा समाचार था!
"आज शाम को सामान खरीद लेते हैं" मैंने कहा,
"जी" वे बोले,
अब वापिस आ गए कक्ष में!
मैं आते ही लेट गया, वे भी लेट गए, सहायक आया और अपने साथ किसी को ले आया, ये स्वरूपानंद थे, यहाँ के एक पुजारी, मैं खड़ा हुआ, नमस्कार की, वे बुज़ुर्ग थे,
"जी?" मैंने कहा,
"दिल्ली से आये हैं आप?" उन्होंने पूछा,
"जी" मैंने कहा,
"पद्मा जोगन के लिए आये हैं?" उन्होंने पूछा,
बात हैरान कर देने वाली थी!
"हाँ जी" मैंने कहा,
"मुझे छगन ने बताया" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
"मैं उसका ताऊ हूँ" उसने कहा,
मेरे होश उड़े!
"पद्मा ने कभी नहीं बताया?" मैंने पूछा,
"वो मुझसे बात नहीं करती थी" वे बोले,
"किसलिए?" मैंने पूछा,
"उसके बाप की, यानि मेरे छोटे भाई की भूमि के लेन देन के कारण" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
"बस, यहीं से फटाव हो गया, मेरे लड़के आवारा निकले, सब बेच दिया" वे बोले,
"ओह" मैंने कहा,
"आपको पता चला कुछ??" उन्होंने पूछा,
"कोई सटीक नहीं" मैंने कहा,
"आप पता कीजिये" वे बोले,
"कर रहा हूँ" मैंने कहा,
"एक एहसान करेंगे?" उन्होंने पूछा,
मैं विस्मित!
"कैसा एहसान?" मैंने पूछा,
"मुझे बता दीजियेगा जब आप जान जाएँ" वे बोले,
"ज़रूर" मैंने कहा,
सहायक इस बीच चाय ले आया और हम चाय पीने लगे!
चाय समाप्त की और स्वरूपानंद को विदा किया और अब कुछ देर लेटे हम! आराम करने के लिए, सर का दर्द समाप्त हो चुका था, जैसे था ही नहीं!
"गुरु जी?" शर्मा जी बोले,
"हाँ?" मैंने पूछा,
"खबर करेंगे क्या इनको?" उन्होंने पूछा,
"कर देंगे" मैंने आँखें बंद करते हुए कहा,
"केवल उत्सुकता है इनको" वे बोले,
"हाँ, लेकिन खून, खून के लिए भागता है" मैंने कहा,
"ये तो है" वे बोले,
कुछ और इधर-उधर की बातें और फिर झपकी!
आँख खुली तो एक बजा था!
"उठिए" मैंने सोते हुए शर्मा जी को उठाया 
"क्या बजा?" उन्होंने अचकचाते हुए पूछा,
"एक बज गया" मैंने कहा,
"बड़ी जल्दी?" वे उठे हुए बोले,
"हाँ!" मैंने हँसते हुए कहा,
वे उठ गए! आँखें मलते हुए!
"चलिए, भोजन किया जाए" मैंने कहा,
"अभी कहता हूँ" वे उठे और बाहर चले गए, फिर थोड़ी देर में आ गए,
"कह दिया?" मैंने पूछा,
"हाँ" वे बोले,
और तभी सहायक आ गया, आलू की सब्जी और गरम गरम पूरियां! साथ में सलाद और दही! मजा आ गया! पेट में भूख बेलगाम हो गयी!
खूब मजे से खाया, और भी मंगवाया! और हुए फारिग! लम्बी लम्बी डकारों ने' स्थान रिक्त नहीं' की मुनादी कर दी!
"आइये" मैंने कहा,
"कहाँ" उन्होंने पूछा,
"स्वरूपानंद के पास" मैंने कहा,
"किसलिए?" उन्होंने उठते हुए पूछा,
"देख तो लें?" मैंने कहा,
"चलिए" वे बोले,
हम बाहर आये, स्वरूपानंद का कक्ष पूछा और चल दिए वहाँ, वो नहीं मिले वहाँ, ढूँढा भी लेकिन नहीं थे, पता चला कहीं गए हैं!
फिर समय गुजरा, दिन ने कर्त्तव्य पूर्ण किया और संध्या ने स्थान लिया, अब हम बाहर चले, सामग्री लेने, बाज़ार पहुंचे, मदिर, सामग्री आदि ले और सवारो गाड़ी पकड़ कर चल दिए हनुमान सिंह के पास!
वहाँ पहुंचे, हनुमान सिंह से बात हुई, गले लग के मिला हमसे, अक्सर दिल्ली आता रहता है, सो मेरे पास ही आता है!
"हो गया प्रबंध?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" वो बोला,
"धन्यवाद!" मैंने कहा,
"क्या ज़रुरत!: उसने हंस के कहा,
हम बाहर चल पड़े, अच्छा ख़ासा बड़ा शमशान था, कई चिताएं जल रही थीं वहाँ! दहक रही थी!
"ठीक है" मैंने कहा,
"सामान है?" उसने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"ठीक" उसने कहा और सामान लिया, मैं एक बोतल उसके लिए भी ले आया था!
"ठीक है, आप स्नान कीजिये" उसने कहा,
"ठीक है" मैंने कहा,
"आप, शर्मा जी, वहाँ कक्ष में रहना" मैंने कक्ष दिखाया,
"जी" वे बोले,
अब मैं स्नान करने चला गया!
वापिस आया तो सारा सामान उठाया, हनुमान सिंह ने मुझे एक चिता दिखायी, ये एक जवान चिता थी, जवाब देह की चिता!
"ठीक है" मैंने कहा,
अब मैंने अपना बैग खोला और आवश्यक सामान निकाला, और भस्म आदि सामने रख ली!
अब!
अब मैंने भस्म स्नान किया!
तंत्राभूषण धारण किये!
लंगोट खोल दी!
आसान बिछाया!
और तत्पर हुआ!
क्रिया हेतु!
भस्म-स्नान किया सबसे पहले!
केश बांधे!
रक्त से टीका लगाया माथे पर!
माथे पर अंगूठे से, काजल ले, टीका लगाया!
अपना त्रिशूल निकाला और बाएं गाड़ा आसान के!
चिमटा लिया और दायें रखा!
गुरु-वंदना की!
अघोर-पुरुष से सफलता व उद्देश्य पॄति केतु कामना की!
शक्ति को नमन किया!
दिक्पालों की वंदना की!
प्रथम आसान भूमि को चूमा!
पिता रुपी आकाश को नमन किया! 
आठों कोणों को बाँधा!
और!
फिर, उस चिता के पाँव पर जाकर नमन किया!
उसके सर पर शीश नवाया!
तीन परिक्रमा की!
और, अपने आसान पर विराजमान हो गया! चिमटा खड़का कर समस्त भूत-प्रेतों को अपनी उपस्थिति दर्ज़ करायी! फिर दो थाल निकाले, उनमे मांस सजाया, कुछ फूल आदि भी, काली छिद्रित कौड़ियां सजायीं! कपाल निकाला, उसकी खोपड़ी पर एक दिया जलाया! और कपाल-कटोरा निकाला! उसमे मदिरा परोसी और अघोर-पुरुष को समर्पित कर कंठ से नीचे उतार लिया!
महानाद किया!
सर्वदिशा अटटहास किया!
और फिर मैंने पद्मा का आह्वान किया! उसके आत्मा का आह्वान! मंत्र पढ़े, मंत्र तीक्ष्ण हुए, और तीक्ष्ण, महातीक्ष्ण, रज शक्ति के अमोघ मंत्र!
परन्तु?
एक पत्ता भी न खड़का!
ऐसा क्यों?
क्यों ऐसा?"
उफ्फ्फ्फ़! नहीं! ये नहीं हो सकता! कदापि नहीं हो सकता! नहीं औघड़! ये तू क्या सोच रहा है? अनाप शनाप? नहीं ऐसा हरगिज़ नहीं सोचना! नहीं तो तेरा त्रिशूल तेरे हलक से होत्ता हुआ गुद्दी से बाहर!
लेकिन!
सोचूं कैसे ना ओ औंधी खोपड़ी???
कहाँ है पद्मा??
पद्मा की आत्मा??
है तो ला?
ला मेरे सामने?
खींच के क्यों नहीं लाता?"
मुक्त तो नहीं हुई होगी!
हा! हा! हा! हा!
मुक्त कैसे??' भला कैसे ओ औंधी खोपड़ी??
कैसे??
जवाब दे??
तू?? तू जवाब तो दे ना!
कहाँ है?? कहाँ है????
मुझे बताने चला था!
हाँ!
मदिरा! मदिरा! प्यास! प्यास!
कंठ जल रहा है!
मदिरा!
मदिरा!
फिर से कपाल-कटोरा भरा और कंठ से नीचे!
हाँ!
अब ठंडा हुआ कंठ!
सुन ओ औंधी खोपड़ी?
कहाँ है पद्मा की रूह??
ला उसको सामने??
हा! हा! हा! हा! हा! हा!
मैंने सही था! ये औघड़ सही था!
वो हो गयी क़ैद!
किसी ने कर लिया उसको क़ैद!
सुन बे औंधी खोपड़ी!
क़ैद हो गयी वो!
जाने कहाँ!
जाने किसने?
है ना??
लेकिन!
पता चल जाएगा!
चल जाएगा पता!
अभी! अभी!
मैंने त्रिशूल लिया और लहराया!
ये भाषा है शमशान की मित्रगण! मसान से वार्तालाप!
वो क़ैद थी! लेकिन कहाँ? किसके पास? अब सिपाही रवाना करना था, एक बात तो तय थी, जिसने क़ैद किया था वो भी खिलाड़ी थी, अब यहाँ दो वजह थीं, या तो किसी ने केवल रूह को पकड़ा था, या कुछ कुबुलवाने के लिए, जैसे कि वो सिक्का कहाँ है! इन्ही प्रश्नों का उत्तर खंगालना था! और यही देखते हुए मुझे ये तय करना था कि किसे तलाश में भेजा जाए, जो उसका पता भी निकाल ले और खुद को क़ैद का भय भी न हो! ये काम कोई महाप्रेत या चुडैल नहीं कर सकती थी, इसके लिए मुझे अपना खबीस, तातार खबीस भेजना था, अतः मैंने ये निसहाय किया कि अब तातार ही वहाँ जाएगा, और मैंने तभी तातार का शाही-रुक्का पढ़ा!
हवा पर बैठा हुआ तातार हाज़िर हुआ! उस समय मई चिता से दूर पहुँच गया था, शमशान में कीलित भूमि पर खबीस हाज़िर नहीं होते!
मैंने तातार को उसका उद्देश्य बताया, उसको उसका अंगोछा दिया, उसने गंध ली और अपने कड़े टकराता हुआ मेरा सिपाही हवा में सीढ़ियां चढ़ रवाना हो गया! मई वहीँ बैठ गया!
कुछ समय बीता,
थोड़ा और,
और फिर!
हाज़िर हुआ! जैसे हवा की रानी ने हाथ से रखा हो उसको मेरे सामने!
अब उसने बोलना शुरू किया! मैंने सुना और मेरी त्यौरियां चढ़ती चली गयीं! उसके अनुसार एक औघड़ रिपुष नाथ के पास उसकी आत्मा थी, काले रंग के घड़े में बंद! और वो औघड़ वहाँ से बहुत दूर असम के कोकराझार में था उस समय! और हाँ, रिपुष के पास कोई भी सिक्का नहीं था! 
मई खुश हुआ, तातार को मैंने भोग दिया और मैंने उसके हाथ पर हाथ रखते हुए उसको शुक्रिया कहा, तातार मुस्कुराया और झम्म से लोप हुआ!
अब मैं उठा वहाँ से, चिता-नमन किया, गुरु-नमन एवं अघोर-नमन किया और वापिस आ गया! स्नान किया और सामान्य हुआ, सामान आदि बाँध लिया, रख लिया, शत्रु और उसकी क़ैदगाह मुझे पता थी अब!
मैं कक्ष में आया, नशे में झूमता हुआ! और वहीँ लेट गया! शर्मा जी और हनुमान सिंह समझ गए कि क्रिया पूर्ण हो गयी, वे दोनों उठे और कक्ष से बाहर चले गए! वे भी सो गए और मैं भी!
सुबह हुई!
शर्मा जी मेरे पास आये!
"नमस्कार" वे बोले,
"नमस्कार" मैंने उत्तर दिया,
"सफल हुए?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"पद्मा मिली?" उन्होंने उत्सुकता से पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
वो चौंके!
"नहीं?" उन्होंने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
"फिर सफल कैसे?" उन्होंने पूछा,
"वो क़ैद है" मैंने अब आँखों में आँखें डाल कर देखा और कहा,
"क़ैद?" अब जैसे फटे वो!
"हाँ!'' मैंने कहा,
"ओह!" उनके मुंह से निकल,
"अब?" वो बोले,
"हमको जाना होगा,
"कब?", उन्होंने पूछा,
"कल ही?" मैंने कहा,
"कहाँ?",उन्होंने पूछा
"असम",मैंने कहा,
अब कुछ पल चुप्पी!
"ठीक है",उन्होंने पूछा
"अब चलते हैं यहाँ से",मैंने कहा,
"जी",उन्होंने पूछा
इतने में हनुमान सिंह भी आ गया, चाय लेकर! हमने चाय पी!
"सही निबटा सब?" उसने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"चलो" उसने कहा,
"अब हम चलते हैं" मैंने कहा,
"जी" वो बोला,
और हम वहाँ से निकल पड़े!
अब मंजिल दूर थी, हाँ एक बात और, रंगा पहलवान, बिलसा और वो दीनानाथ अब सब संदेह के दायरे से मुक्त थे!
अगला दिन,
हमे वहाँ से अब गाड़ी पकड़ी असम के लिए, आरक्षण श्रद्धा जी से करवा लिया था, सौभाग्य से हो भी गया, और हम गाड़ी में बैठ गए, हमको करीब ग्यारह घंटे लगने थे,
आराम से पसर गए अपने अपने बर्थ पर!
और साहब!
जब पहुंचे वहा तो शरीर का कोई अंग ऐसा नहीं था जो गालियां न दे रहा हो, कुछ तो मौसम, कुछ लोग ऐसे और कुछ भोजन! हालत खराब!
खैर,
मैं अपने जान-पहचान के एक डेरे पर गया, डबरा बाबा का डेरा! डबरा बाबा को मेरे दादा श्री का शिष्यत्व प्राप्त है! हम वहीं ठहरे! ये डेरा अपनी काम-सुंदरियों के लिए विख्यात है तंत्र-जगत में! स्व्यं डबरा बाबा के पास नौ सर्प अथवा नाग-कन्याएं हैं!
"पहुँच गए आखिर" मैंने कहा,
"हाँ जी" वे बोले,
कक्ष काफी बड़ा था, दो बिस्तर बिछे थे भूमि पर, मैं तो जा पसरा! मुझे पसरे देखा शर्मा जी भी पसर गए!
"आज आराम करते हैं, कल निकलते हैं वहाँ रिपुष के पास" मैंने कहा
"हां" वे बोले,
हम नहाये धोये, भोजन किया और सो गए, शेष कुछ नहीं था करने के लिए!
अगले दिन प्रातः!
मैं बाबा डबरा के पास गया, वे पूजन से उठे ही थे,
"कैसे हैं?" मैंने पूछा,
"ठीक" वे बोले और हमको बिठा लिया उन्होंने, उनकी आयु आज इक्यानवें साल है,
"बाबा, आप किसी रिपुष को जानते हैं?" मैंने पूछा,
"रिपुष?" उन्होंने सर उठा के पूछा,
"हाँ जी" मैंने कहा,
"हाँ" वे बोले,
मुझे अत्यंत हर्ष हुआ!
"कहाँ रहता है?" मैंने पूछा,
"बाबा दम्मो के ठिकाने पर" उन्होंने कहा,
"दम्मो? वही जिसे नौ-लाहिता प्राप्त हैं?" मुझे अचम्भा हुआ सो मैंने पूछा,
"हाँ" वे बोले,
अब काम और हुआ मुश्किल!
"उसका ही शिष्य है ये?" मैंने पूछा,
"हाँ! सबे जवान" वे बोले,
"अर्थात?" मैंने पूछा,
"बाइस वर्ष आयु है उसकी केवल" वे बोले,
"बाइस वर्ष? केवल?" मैंने हैरान हो कर पूछा,
"हाँ" वे बोले,
अब मैं चुप!
"क्या काम है उस से?'' बाबा ने पूछा,
"कुछ खरीद का काम है" मैंने कूटभाषा का प्रयोग किया,
"अच्छा" वे बोले,
"स्वभाव कैसा है?" मैंने पूछा,
"बदतमीज़ है" उन्होंने बता दिया,
"ओह" मेरे मुंह से निकला,
कुछ पल शान्ति!
"संभल के रहना" वे बोले,
"किस से?" मैंने पूछा,
वो चुप!
"किस से बाबा?" मैंने ज़ोर देकर पूछा,
"दम्मो से" वे बोले,
उन्होंने छोटे से अलफ़ाज़ से सबकुछ समझा दिया था!
"ज़रूर" मैंने कहा,
शान्ति, कुछ पल!
"और रिपुष?" मैंने फिर पूछा,
"उसके ऊपर दम्मो का हाथ है" वे बोले,
"समझ गया!" वे बोले,
मैं भी खोया और बाबा भी!
"चले जाओ" वे बोले,
कुछ सोच कर!
"नहीं बाबा" मैंने कहा.
"समझ लो" वे बोले,
"समझ गया!" मैंने कहा,
अब हम उठे वहाँ से, बाबा डबरा ने बहुत कुछ बता दिया था, अब मुझे एक घाड़ की आवश्यकता थी, कुछ अत्यंत तीक्ष्ण मंत्र जागृत करने थे! अंशुल-भोग देना था! ये बात मैंने अपने एक जानकार बुल्ला फ़कीर से कही उसने उसी रात को मुझे अपने डेरे पर बुला लिया, मैं जिस समय वहाँ पहुंचा तब रात के सवा नौ बजे थे! बुल्ले फफकीर के पास एक घाड़ था कोई उन्नीस-बीस बरस का, और बारह और औघड़ थे वहाँ, किसी को शीर्षपूजन करना था, किसी को वक्ष और किसी को लिंग पूजन, मुझे उदर पूजन करना था, शक्ति का स्तम्भन करना था, प्राण-रक्षण करना था!
पूजन का समय सवा बार बजे का था, अतः मैं स्नान करने गया, और उसके बाद तांत्रिक-श्रृंगार किया, भस्म-स्नान किया! लिंग-स्थानोपत्ति पूजन किया फिर हगाड़ पूजन आरम्भ हुआ!
मेरा क्रमांक वहाँ ग्यारहवां था अतः मैंने बेसब्री से इंतज़ार किया, षष्ट-मुद्रा में घाड़ जागृत हो गया, और उठकर बैठ गया था!
नशे में चूर!
झूमते हुए, गर्दन हिलाते हुए, आँखें चढ़ी गईं!
और फिर आया मेरा वार!
मैंने घाड़ के उदर का पूजन किया! उसने अपने हाथों से अपने अंडकोष पकडे थे, मैं समझ सकता था कि क्यों!
अब मैंने प्रश्न किये उस से!
"रिपुष का दमन होगा?"
"हाँ" वो बोला,
ओह!
"दम्मो आएगा?" मैंने पूछा,
"हाँ" वो बोला,
ओह!
"क्षति होगी?" मैंने पूछा,
"डबरा वाला जीतेगा" वो बोला!
ओह!
"कुशाल कौन चढ़ेगा?" मैंने पूछा,
"दम्मो" वो बोला,
"मरेगा?" मैंने पूछा,
"नहीं" वो बोला,
"नव-लौहिताएँ?" मैंने पूछा,
"आएँगी" वो बोला,
और फिर धाड़ से उसने अपने गले में रुंधती हुई आवाज़ बाहर निकाली, जैसे कोई कपडा फाड़ा हो!
"भोग लेगा?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
मैंने शराब की बोतल दी उसको!
एक बार में ही बोतल ख़तम!
मैंने अपना चाक़ू निकाला और अपना हाथ काट कर उसको चटा दिया! उसने कूटे की तरह से रक्त पी लिया और तीन बार छींका!
मेरा वार समाप्त!
जानकारी पूर्ण हुई!
मैं अब श्रृंगार मुक्त होने चला गया!
मुक्त हुआ!
स्नान किया!
और वापिस शर्मा जी के पास!
"हो गया पूजन?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"अब चलें" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
अब हम उठे और एक कक्ष में आ गए!
"कल चलना है दम्मो के पास?'' उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"ठीक है" वे बोले और लेट गए!
मैं भी लेट गया!
दारु के भभके आ रहे थे!
सर घूम रहा था! अन नींद का समय था!
हम सो गए!
सुबह उठे!
आठ बजे का वक़्त था!
"उठो?" मैंने शर्मा जी की चादर खींच कर कहा,
अलसाते हुए वे भी उठ गए!
और फिर अगला दिन!
उस दिन सुबह सुबह चाय-नाश्ता करने के बाद हम बाबा डबरा के पास गए, बताने को कि हम दम्मो बाबा के पास जा रहे हैं सुलह करने, हो सकता है मान ही जाए, तकरार या झगड़ा न हो तो ही बढ़िया!
"अच्छा बाबा, हम चलते हैं" मैंने कहा,
"ठीक है, सावधान रहना" वे बोले,
आशीर्वाद दिया और हम चेल अब बाबा दम्मो और उस जवान औघड़ रिपुष के पास!
करीं दो घंटे में पहुंचे हम बाबा दम्मो के स्थान पर, पहाड़ी पर था, काले ध्वज लगे हुए थे, बीच में किनाठे पर एक मंदिर बना था, शक्ति मंदिर! सफ़ेद, शफ्फाफ़ मंदिर! हमने द्वारपाल से बाबा के बारे में पूछा, उसने एक दिशा के बारे में बता दिया, हम वही चल पड़े, बड़ा था ये डेरा, करीब पांच सौ स्त्री-पुरुष तो रहे होंगे! हम आगे बढे, ये रिहाइश का क्षेत्र था, हमने एक सहायक से पूछा, उसने एक कक्ष की तरफ इशारा कर दिया, हम वहीँ चल पड़े,
कक्ष के कपाट खुले थे, अंदर एक मस्त-मलंग सा औघड़ बैठा था, लुंगी और बनियान पहने, लम्बी जटाएँ और लम्बी दाढ़ी मूंछें! आयु कोई सत्तर बरस रही होगी! हम अंदर गए, वहाँ तीन लोग और थे, हाँ, रिपुष नहीं था वहाँ!
"नमस्कार" मैंने कहा,
"हूँ" उसने कहा,
हमको बिठाया उसने, वे तीन अब चुप!
"कहिए?" उसने पूछा,
"आप ही दम्मो बाबा हैं?" मैंने पूछा,
"हाँ, कहिये?" वो बोला,
"आपसे कुछ बात करनी है" मैंने कहा,
वो समझ गया, उसने उन तीनों को हटा दिया वहाँ से!
"बोलिये, कहाँ से आये हो?" उसने पूछा,
"दिल्ली से" मैंने कहा,
"ओह, हाँ, कहिये?" उसने कहा,
"रिपुष आपका ही शिष्य है?" मैंने पूछा,
"हाँ, तो?" उसने त्यौरियां चढ़ा के पूछा,
"रिपुष के पास एक रहन है हमारी" मैंने कहा,
"कैसी रहन?" उसने पूछा,
"पद्मा जोगन" मैंने कहा,
अब वो चौंका!
"हाँ, तो?" उसने पलटा मारा!
"वही चाहिए" मैंने कहा,
"क्यों?" उसने पूछा,
"है कुछ बात" मैंने कहा,
"क्या?" उसने पूछा,
"उसको मुक्त करना है" मैंने कहा,
"किसलिए?" उसने पूछा,
"मेरी बड़ी बहन समान है वो" मैंने कहा,
"तो?" उसने कहा,
"छोड़ दीजिये उसको" मैंने कहा,
"नहीं तो?" सीधे ही काम की बात पर आया,
"आप बुज़ुर्ग हैं सब समझते हैं" मैंने कहा,
और तभी रिपुष आ गया! बाइस वर्ष में क्या खूब शरीर निकाला था उसने हृष्ट-पुष्ट, काली दाढ़ी मूंछें! और अमाल-झमाल के तंत्राभूषण धारण किये हुए!
उसको बिठाया अपने पास दम्मो ने!
"अपनी रहन मांग रहे हैं ये साहब" उसने उपहास सा उड़ाते हुए कही ये बात!
"कौन सी रहन?" उसने पूछा,
"पद्मा" दम्मो ने कहा,
"क्यों?" उसने मुझ से पूछा,
"मेरी बड़ी बहन समान है वो" मैंने कहा,
वो हंसा!
जी तो किया कि हरामज़ादे के हलक में हाथ डाल के आंतें बाहर खींच दूँ!
"अब काहे की बहा?" उसने मजाक उड़ाया,
'आप छोड़ेंगे या नहीं?" मैंने स्पष्ट सा प्रश्न किया,
"नहीं" उसने हंसी में कहा ऐसा!
"क्यों?" मैंने पूछा,
"सिक्का! सिक्का नहीं मालूम तुझे?" उसने अब अपमान करते हुए कहा,
"सिक्के की एक औघड़ को क्या ज़रुरत?" मैंने कहा,
"हूँ!" उसने थूकते हुए कहा वहीँ!
अब विवाद गर्माया!
"इतना अभिमान अच्छा नहीं" मैंने चेताया,
"कैसा भी मान? मैंने पकड़ा है तो मेरा हुआ" उसने कहा,
दम्मो ने उसकी पीठ पर हाथ मारते हुए समर्थन किया!
"तो आप नहीं छोड़ेंगे" मैंने पूछा,
"नहीं" वो बोला,
"सोच लो" मैंने कहा,
"अबे ओ! मेरे स्थान पर मुझे धमकाता है?" उसने गुस्से से कहा,
"मैंने कब धमकाया, मैंने तो समझाया" मैंने कहा,
"नहीं समझना, कहीं तुझे समझाऊं" उसने दम्भ से कहा,
मैं कुछ पल शांत रहा!
"मैं धन्ना शांडिल्य का पोता हूँ" मैंने कहा,
अब कांपा थोडा सा दम्मो! रिपुष तो बालक था, उसे ज्ञात नहीं!
"कौन धन्ना?" रिपुष ने पूछा,
"मै बताता हूँ" बोला दम्मो!
"अलाहबाद का औघड़! कहते हैं, सुना है उसने शक्ति को साक्षात प्रकट किया था और उसने अपने हाथों से खाना बना कर परोसा था, धन्ना की रसोई में!" बोल पड़ा दम्मो!
"ओहो!" रिपुष बोला,
"हाँ" मैंने कहा,
"मैं उसी धन्ना का पोता हूँ" मैंने कहा,
अब सांप सूंघा उनको!
"देखो, मैं आपकी इस रहन को एक वर्ष के बाद छोड़ दूंगा" रिपुष ने कहा,
"नहीं, आज ही" मैंने कहा,
'सम्भव नहीं" उसने कहा,
"सब सम्भव है" मैंने कहा,
"हरगिज़ नहीं" उसने कहा,
"हाँ" मैंने कहा,
अब चुप्पी!
"अब जा यहाँ से" चुटकी मारते हुए बोला रिपुष! मैंने दम्मो को देखा, चेहरे पर संतोष के भाव और होठों पर हंसी!
"जाता हूँ, लेकिन आगाह करना मेरा फ़र्ज़ है" मैंने कहा,
"आगाह?" खड़ा हुआ वो, हम भी खड़े हुए!
"हाँ!" मैंने कहा,
"क्या?" उसने पूछा,
"आज हुई अष्टमी, इस तेरस को द्वन्द होगा! तेरा और मेरा!" मैंने कहा,
"अवश्य!" वो नाच के बोला!
"खुश मत हो!" मैंने कहा,
"अरे तेरे जैसे बहुत देखे मैंने, धुल चटा चुका हूँ मैं" उसने कहा,
"देखे होंगे अवश्य ही, लेकिन मैं अब आया हूँ" मैंने कहा,
"अबे जा धन्ना के पोते!" बोला रिपुष!
क्रोध के मारे लाल हो गया मैं!
"तमीज सीख ले, यदि दम्मो के पास शेष हो तो" मैंने गुस्से से कहा,
"अबे भाग, निकला यहाँ से स्साला!" उसने कहा,
मुझे हंसी आयी!
"तू बेकार हो गया रिपुष! सच कहता हूँ" उसने कहा,
'अबे भग यहाँ से अब?" उसने मेरी छाती पर हाथ मार कर कहा,
"जा रहा हूँ, अब दिन गिन ले, मारूंगा नहीं, लेकिन वो हाल करूँगा कि मौत को भी तरस आ जाएगा तुझ पर" मैंने कहा,
"निकल?" चिल्लाया वो!
"जा भाई जा" दम्मो उठते हुए बोला,
"जाता हूँ" मैंने कहा,
"तेरस" मैंने कहा,
"हाँ! मान ली" वो बोला,
"मेरी बात मान लेता तो चुदास भी आँखों से ही देखता!" मैंने कहा,
"चल ओये?" उसने कहा,
अब हम निकले वहाँ से!
"बड़ा ही बद्तमीज़ लड़का है कुत्ता" शर्मा जी बोले,
"कोई बात नहीं, हाड़ पक गए इसके अब!" मैंने कहा,
"दो साले को सबक" गुस्से से बोले वो,
"ज़रूर" मैंने कहा,
मैंने पीछे देखा, वे देख रहे थे हमको जाते हुए!
बारूद तैयार था! चिंगारी लगाना शेष था!
"चलिए" मैंने कहा,
हम टमटम में बैठे और चले अपने डेरे!
हम आये, पिटे हुए शिकारी से! जैसे चारा भी गँवा के आये हों! बाबा डबरा पानी दे रहे थे पौधों में, खूब फूल खिले थे!
"आ गए? खाली हाथ?" बाबा ने बिना देखे पूछा,
"हाँ बाबा" मैंने कहा,
"कौन सी तिथि निर्धारित की, तेरस?" बोले बाबा,
"हाँ" मैंने कहा,
"ठीक किया, तेरस शुभ है" वे बोले,
"धन्यवाद" मैंने कहा,
मुझे जैसे बाबा का आशीर्वाद मिला,
"हाथ-मुंह धो लो, खाना लगा हुआ होगा, मैं आ रहा हूँ बस,
"हम हाथ मुंह धोने चले गए, वहाँ से वापिस आये, खाना लगा हुआ था!
कुछ देर बाद बाबा भी आ गए!
बैठे,
"बताया तुमने धन्ना बाबा के बारे में?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"नहीं माना?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, नहीं माना" मैंने कहा,
"मुझे पता था" वे बोले,
मैं चुप!
"लो, शुरू करो" बाबा ने खाना शुरू करने को कहा,
आलू-बैंगन की सब्जी, थोड़ी सी सेम की फली की सब्जी, दही और सलाद था! रोटी मोटी मोटी थीं, चूल्हे की थीं शायद!
खाना खाया,
लज़ीज़ खाना! दही तो लाजवाब!
"बाबा?" मैंने पूछा,
"हाँ?" वे बोले,
"मुझे एक साध्वी चाहिए" मैंने कहा,
"मिल जायेगी, कल आ जायेगी, जांच लेना" वे बोले,
उनके जबड़े की हड्डी ऐसी चल रही थी खाना खाते खाते जैसे भाप के इंजन का रिंच, बड़ी कैंची!
"ठीक है" मैंने कहा,
मेरी दही ख़तम हो गयी तो बाबा ने और मंगवा ली, मेरे मजे हो गए! मैं फिर से टूट पड़ा दही पर! और तभी पेट से सिग्नल आया कि बस! डकार आ गयी!
शर्मा जी ने भी खा लिया और बाबा ने भी! हम उठे अब!
"मैं कक्ष में जा रहा हूँ बाबा" मैंने कहा,
उन्होंने हाथ उठाके इशारे से कह दिया कि जाओ!
हम निकल आये बाहर और अपने कक्ष की ओर चले गए, कक्ष में आये और लेट गए!
तभी शर्मा जी का उनके घर से फ़ोन आ गया! उन्होंने बात की और फिर मुझसे प्रश्न!
"द्वन्द विकराल होगा?" 
"हाँ" मैंने कहा,
"रिपुष के बसकी नहीं, हाँ दम्मो ज़रूर कूदेगा बीच में" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"तो आपके दो शत्रु हुए" वे बोले,
"स्पष्ट है" मैंने कहा,
"वो आया तो लौहिताएँ" वे बोले,
"बेशक" मैंने कहा,
अब सिगरेट जलाई उन्होंने,
"हाँ, पता है मुझे भी" उन्होंने नाक से धुआं छोड़ते हुए कहा,
"और कमीन आदमी के हाथ में तलवार हो तो वो अँधा हो कर तलवार चलाता है" मैंने कहा,
"क़तई ठीक" वे बोले,
"तो यक़ीनन दम्मो ही लड़ेगा" मैंने कहा,
"हाँ" वे बोले,
"कल साध्वी आ जायेगी, देखता हूँ" मैंने कहा,
"हाँ" वे बोले,
"द्वन्द भयानक होने वाला है" वे बोले,
"हाँ शर्मा जी" मैंने कहा,
"काट दो सालों को" वे गुस्से से बोले,
मुझे हंसी आयी!
"मन तो कर रहा था सालों के मुंह पर वहीँ लात मारूं!" वे बोले,
"लात तो पड़ेगी ही" मैंने कहा,
अब मैंने करवट बदली!
हम कुछ और बातें करते रहे और आँख लग गयी!
दोपहर बीती, रात बीती बेचैनी से और फिर सुबह हुई! दैनिक-कर्मों से फारिग हुए और फिर चाय नाश्ता! करीब दस बजे दो साध्वियां आयीं, मैंने कक्ष में बुलाया दोनों को, एक को मैंने वापिस भेज दिया वो अवयस्क सी लगी मुझे, शर्मा जी बाहर चले गए तभी, दूसरी को वहीँ बिठा लिया, साध्वी अच्छी थी, मजबूत और बलिष्ठ देह थी उसकी, मेरा वजन सम्भाल सकती थी, उसकी हँसलियां भी समतल थी, वक्ष-स्थल पूर्ण रूप से उन्नत था और स्त्री सौंदर्य के मादक रस से भी भीगी हुई थी!
"क्या नाम है तुम्हारा?" मैंने पूछा,
"ऋतुला" उसने बताया,
"कितने बरस की हो?" मैंने पूछा,
"बीस वर्ष" उसने कहा,
"माँ-बाप कहाँ है?" मैंने पूछा,
"यहीं हैं" उसने कहा,
धन के लिए आयी हो?'' मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
ये ठीक था! धन दिया और कहानी समाप्त! कोई रिश्ता-नाता या भावनात्मक सम्बन्ध नहीं!
"कितनी क्रियायों में बैठी हो?" मैंने पूछा,
"दो" उस ने बताया,
"उदभागा में बैठी हो कभी?" मैंने पूछा,
"नहीं" उसने कहा,
"हम्म" मैंने कहा,"सम्भोग किया है कभी?" मैंने पूछा,
"नहीं" वो बोली,
"ठीक है" मैंने कहा,
मैंने अब अपना कक्ष बंद किया और कहा उस से, "कपडे खोलो अपने" 
उसने एक एक करके लरजते हुए कपड़े खोल दिया,
देह पुष्ट थी उसकी, नितम्ब भी भारी थे, जंघाएँ मांसल एवं भार सहने लायक थी, फिर मैं योनि की जांच की, इसमें भी कुछ देखा जाता है, वो भी सही था,
"ठीक है, पहन लो कपड़े" मैंने कहा,
उसने कपड़े पहन लिए,
"ऋतुला, तुम तेरस को स्नान कर मेरे पास आठ बजे तक पहुँच जाना" मैंने कहा,
"ठीक है" वो बोली,
अब मैंने उसको कुछ धन दे दिया,
और अब वो गर्दन हाँ में हिला कर चली गयी,
चलिए, साध्वी का भी प्रबंध हो गया अब मुझे कुछ शक्ति-संचरण करना था, मंत्र जागृत करने थे और कुछ विशेष क्रियाएँ भी करनी थीं, जो प्राण बचाने हेतु आवश्यक थीं!
तो मित्रगण! इन दिनों और रातों को मैंने सभी क्रियाएँ निपटा लीं! डबरा बाबा का शमशान था, इसकी भी फ़िक़र नहीं थी!
द्वादशी को, रात को मैं और शर्मा जी मदिरा पान कर रहे थे, तभी शर्मा जी ने पूछा," कब तक समाप्त हो जाएगा द्वन्द?"
"पता नहीं" मैंने कहा,
अच्छा" वे बोले,
"आप सो जाना" मैंने कहा,
"नहीं"
उन्होंने कहा,
"कोई बात होगी तो मैं सूचित कर दूंगा" मैंने कहा,
"मैं जागता रहूँगा" वे बोले,
"आपकी इच्छा" मैंने कहा,
"एक बात कहूं?" उन्होंने कहा,
"हां? बोलिये?" मैंने कहा,
"ऐसा हाल करना सालों का कि ज़िंदगी भर इस लपेट-झपेट से तौबा करते रहें!" वे बोले,
"हाँ!" मैंने कहा और मैं खिलखिला कर हंसा!
अब शर्मा जी ने गिलास बदल लिया और मुझे अपना और अपना मुझे दे दिया! इसका मतलब हुआ कि ख़ुशी आपकी और ग़म मेरा!
"इसीलिए मेरे साथ हो आप" मैंने कहा,
"धन्य हुआ मैं" वे बोले,
भावुक हो गए!
"चलिए कोई बात नहीं, आप जाग लेना!" मैंने कहा और बात का रुख बदला!
उन्होंने गर्दन हिलायी!
तभी बाबा आ गए!
"और?" वे बोले,
"सब बढ़िया" मैंने कहा,
"रुको, मैं और लगवाता हूँ" वे बोले और बाहर चले गए!
और फिर आयी तेरस!
उस दिन मैंने चार घटियों का मौन-व्रत धारण किया, ये इसलिए कि कुछ और मेरी जिव्हा से न टकराए और जिस से जिव्हा झूठी हो मेरी! मेरा मौन-व्रत दोपहर को टूटा!
बाबा आ गए थे वहाँ,
"आओ बाबा जी" मैंने कहा,
बैठ गए वहाँ,
"आज विजय-दिवस है तुम्हारा" वे बोले,
"आपका धन्यवाद!" मैंने कहा,
"एक काम करना, मेरे पास नौखंड माल है, वो मैं दे दूंगा, उन्नीस की काट करती है वो" वो बोले,
''अवश्य" मैंने कहा,
उन्नीस की काट अर्थात उन्नीस दर्जे की काट!
"साध्वी कितने बजे आएगी?" उन्होंने पूछा,
"आठ बजे" मैंने कहा,
ठीक है" वे बोले,
वे उठे और चले गए,
"बाबा बहुत भले आदमी है" शर्मा जी ने कहा,
"हाँ" मैंने उनको जाते हुए देखते हुए कहा,
"लम्बी आयु प्रदान करे इनको ऊपरवाला" वे बोले,
"हाँ शर्मा जी" मैंने कहा,
"पापी ही लम्बी आयु भोगते हैं ऊपरवाले के यहाँ पापिओं की आवश्यकता नहीं होती, उसको भले लोग ही चाहिए होते हैं, मैंने इसीलिए कहा" वे बोले,
मैं समझ गया था!
अब हम भी उठे वहाँ से, बाबा ने सारा सामान मंगवाने के लिए एक सहायक को भेज दिया था,
"आओ बाहर चलते हैं टहलने", मैंने कहा,
"चलो" वे बोले,
और हम बाहर आ गए, थोडा इधर-उधर टहले और फिर वापिस आ गए, भोजन किया और कक्ष में चले गए अपने, थोड़ी देर आराम किया और फिर नींद आ गयी!
जब नींद खुली तो छह बजे थे! रात्रि का समय अभी दूर था परन्तु उसकी कालिमा ह्रदय तक आ पहुंची थी!
दो और घंटे बीते,
अब बजे आठ, नियत समय पर साध्वी आ गयी! मैंने कक्ष में बिठाया उसको, और बाबा के पास चला गया, आज्ञा लेने, नौखंड माल लेने, आज्ञा ले आया और फिर साध्वी को साथ ले, सारा सामान उठा लिया!
अब उसका श्रृंगार करना था!
मैंने मंत्र पढ़ते हुए भूमि पूजन किया, जलती चिता के चौदह चक्कर लगाए, साध्वी ने भी लगाए,
"सुनो साध्वी" मैंने कहा,
"जैसा मैं कहूं वही हो, और कुछ नहीं, अभी भी समय है, लौटना है तो लौट जाओ" मैंने कहा,
"जैसा आप कहेंगे वैसा ही होगा" उसने मुस्कुरा के कहा,
"वस्त्रहीन हो जाओ" मैंने कहा,
वो हो गयी, अब मैंने उसके केश खोले, हाथों में तांत्रिक-कंगन. पाँव में तांत्रिक-कंगन, कमर में अस्थियों से बनी एक तगड़ी, गले में अस्थिमाल धरान करवा दिया! अब मैंने सामान में से एक कटोरा निकाला, उसने चाक़ू से हाथ काटकर रक्त की सात बूँदें निकाली और कुछ सामग्री डाली, और घोट दिया, अब इस घोटे से उसके शरीर पर तांत्रिक-चिन्ह अंकित कर दिए, कुछ यन्त्र बनाये और लं बीज से उसकी देह को पोषित कर दिया!
अब वो तैयार थी, मैंने उसे बदन को भस्म से लेप दिया, अब वो साक्षात यमबाला दिख रही थी!
अब मैं तैयार हुआ! मैंने वस्त्र उतारे और फिर लं बीज से शरीर पर भस्म-लेप किया, तांत्रिक-आभूषण धारण किया, रक्त के घोटे से माथे को सुसज्जित किया! और फिर अपना त्रिशूल निकाला! बाएं गाड़ा! आसान बिछाया और साध्वी को उस पर बिठा दिया, फिर चिमटा निकाला, चारों दिशाओं में खड़खड़ाया और दिशा-पूजन किया! और फिर सामान निकाल कर वहीँ सामने रख दिया! इनमे दो गुड़िया भी थीं, बालिका के केशों से बनी हुई उनको उल्टा करके, अर्थात सर उनका भूमि में गाड़ दिया! कपाल निकाले! मरघटिया मसान का कपाल उल्टा किया! एक कपाल त्रिशूल पर टांग दिया! अस्थियां हाथों में लीं और क्रंदक-मंत्र पढ़ा!
विपक्षी तक खबर पहुंचा दी गयी!
"साधी, उठो" मैंने कहा, 
वो उठी, 
"सामने मेरे पीठ करके खड़ी हो जाओ" मैंने कहा,
वो हो गयी!
अब मैंने दीपाल-मंत्र पढ़ते हुए उसकी देह को त्रिशूल से तीन जगह काट दिया, अर्थात निशान लगा दिए!
"साध्वी?" मैंने कहा,
वो मेरी ओर घूमी,
"बैठ जाओ" मैंने कहा,
वो बैठ गयी,
"लो, इस मरघटिया कपाल को अपनी योनि से छुआ दो" मैंने कहा,
उसने किया और कपाल उसके हाथों से छूटकर अपने स्थान पर आ गया! कानफोड़ू अट्ठहास हुआ!
क्रिया आरम्भ हो गयी!
चहुंदिश सन्नाटा!
भयानक काली रात और उसकी कालिम सुंदरता!
जवान इठलाती रात्रि!
परम शांति!
आवाज़ें तो बस सम्मुख जल रही चिता की लकड़ियों से आती चट-चट आवाज़ें!
चमगादड़! यहाँ से वहाँ गुजरते हुए जैसे टोह ले रहे हों!
और भड़भड़ाती मेरी अलख! जिसने मैंने चिता की लकड़ी की सहायता से उठाया था! नवयौवना के मदमाती देह की जैसे मादक-चाल!
शमशान में मेरे मंत्र ऐसे गूँज रहे थे जैसे शिथिल पड़े हुए धौंकनी रुपी शमशान में हवा भर दी जा रही हो और वो अब फुफकारने लगी हो!
चिता से उठता धुआ हमारे अस्तित्व की पहचान लिए इस भूलोक से विदा लिए जा रहा था!
मैंने तभी अलख भोग दिया और दो कपाल कटोरे निकाले, उनमे मदिरा परोसी और एक कटोरा साध्वी को दिया और एक खुद ने लिए, महानाद करते हुए दोनों ने मदिरा हलक से नीचे उतर दी!
फिर मैंने वाचाल -प्रेत का आह्वान किया, वो हाज़िर हुआ और मुस्तैद हो गया! उसके बाद कारण-पिशाचिनी का आह्वान कर उसको भी राजी कर लिया, दोनों मुस्तैद हो गए!
और अब वहाँ!
मैंने देख प्रयोग की!
वहाँ का नज़ारा भी कुछ ऐसा ही था!
दो आसान बिछाये गए थे!
एक पर बैठा था बाबा दम्मो और एक पर वो दम्भी रिपुष!
दो साध्वियां थीं वहाँ, श्रृंगारपूर्ण!
दोनों पुष्ट देहों की सर्वांगनी!
दो त्रिशूल गड़े थे वहाँ और ग्यारह कपाल सजाये गए थे! शत्रु-भेदन का समुचित प्रबंध किया गया था! भूमि को श्वेत-सूत से, कीलित किया गया था, लकड़ियां भूमि में गाड़ कर उन पर सूत बाँध कर कीलन किया गया था! उसी में मध्य चौकोर स्थान में बैठे थे वे चार! वे चार! जिनका उद्देश्य था शत्रु भेदन!
वहाँ मदिरा-कर्म आरम्भ हुआ, अलख भोग दिया गया और साध्वी-स्तम्भन किया गया!
फिर बाबा दम्मो ने अलख से बात करते हुए अलख-ईंधन दिया और भेरी बजा दी!
द्वन्द की घोषणा हो गयी थी!
वर उन्होंने करना था और मुझे झेलना था, मैंने चुनौती दी थी सो तीन वार उन्हें करने थे और मुझे प्रतिवार कर अपना बचाव करना था!
अब मैंने अपनी साध्वी का स्तम्भन कार्य किया मैंने उसकी एक बार और मदिरा पिला कर, मंत्र की सहायता से मूर्छित कर दिया, वो मृतप्रायः सी हो गयी, मैंने उसको पीठ के बल लिटा दिया अपने सम्मुख, उसकी देख रिक्त थी अतः उस पर मैंने मूत्र विसर्जित कर दिया, और अंगीकार कर लिया, उसको उस समय के लिए शक्ति का रूप दे दिया और भार्या समान उसकी देह के रक्षण हेतु तत्पर हो गया!
अब रिपुष ने आह्वान किया!
भंजन-षोडशी का!
या यूँ कहो सीधे ही तोप से वार करना चाहता था वो! यहाँ, मेरे कानों में नाम सुनाई दिया तो मैंने यमरूढा का आह्वान किया, दोनों तरफ से अपने अपने यन्त्र संचालित होने लगे! अब मैं आपको भंजन-षोडशी के बारे में बताता हूँ, दक्षिण-पूर्व की स्वामिनी वाराही की सहोदरी है ये, ये भातृ-भंजन में अचूक कार्य करती है, शत्रु का ग्रास कर जाती है! ज़रा सी चूक और प्राण हर लेती है! इसको वैराली-सखी भी कहा जाता है! इसकी साधना अत्यंत क्लिष्ट और दुष्कर है! उसका आह्वान कर उन्होंने अपना दम-ख़म दिखाने की चेष्टा की थी! और अब यमरूढा, यमरूद्धा भयानक महाशक्ति है, नेत्रहीन एवं धूमिल छाया देखने वाली, इसको केवल हांका जाता है और शत्रु का शरीर उबाल कर धुँआ छोड़ता पञ्च-तत्व में विलीन हो जाता है, आत्मा प्रेत का रूप धारण कर लेती है, हाँ, वैराली-सखी संग ले जाती है!
'सकड़ सकड़' की से आवाज़ कर वो वहाँ प्रकट हुई और वहाँ से उद्देश्य जानकार लोप हुई, उसके यहाँ प्रकट होने से पहले यमरूढ़ा प्रकट हुई यहाँ और मैंने भोग अर्पित किया! और तभी वहाँ भंजन-षोडशी का आगमन हुआ, लहराती हुई वो आयी और यमरूढ़ा ले काल-पुंज के आलिंगन-कोष में लोप हो गयी! संचार हो उठा मुझ में! मैंने नमन किया और वो लोप हुई!
वहाँ,
दोनों अवाक!
बरसों की सिद्धि का एक फल टूट गया था!
मुझे हलकी सी हंसी आयी! आज दादा श्री का समरण हुआ और उनके वे शब्द, 'काल कवलित सभी को होना है तो कारण लघु क्यों? रोग क्यों? किसी शक्ति का आलिंगन करते हुए प्राण सौंपने चाहियें!" अचूक अर्थ!
दम्भियों के दम्भ-कोट का एक परकोटा ढह गया था! दोनों हैरान और परेशान! अब बाबा दम्मो उठा, घुँघरू बंधा चिंता उठाया उसने और खड़खड़ाया! फिर अपनी एक साध्वी को पेट के बल लिटा, एक पांव उस पर रख और दूसरा हवा में उठा, जाप करने लगा! मेरे कानों में उत्तर आ गया! ये महिषिकिा का आह्वान था! सांड समान बल वाली, दीर्घ देहधारी, भस्मीकृत देह वाली, तांत्रिकों की रक्षक और किसी भी नष्ट को दूर करने वाली! इसका एक वार और प्राण लोक के पार! मेरे कान में शब्द पड़ा!
धान्या-त्रिजा!
अब आपको बता हूँ इनके बारे में, महिषिका भी एक सहोदरी है, एक अद्वित्य महा-शक्ति की! उस महा शक्ति की ये चौंसठवीं कला अर्थात शक्ति है! ये भयानक, और लक्ष्य-केंद्रित कार्य काने में निपुण है! इसी कारण से दम्मो बाबा ने इसका आह्वान किया था!
और अब धान्या-त्रिजा, अक्सर त्रिजा नाम से ही विख्यात है! ये भी एक सहोदरी है, एक महाभीषण महाशक्ति की, क्रम में तेरहवीं है, रिजा का वस् पाताल मन जाता है, अक्सर कंदराओं में ही ये सिद्ध की जाती है! आयु में नवयौवना है, रूप में अनुपम सुंदरी और तीक्ष्ण में महारौद्रिक! दोनों के ही सम्पुष्ट आह्वान ज़ारी थी!
तभी रिपुष ने त्रिशूल उखाड़ा और भूमि पर पुनः वेग के साथ गाड़ दिया! और डमरू बजा दिया तीन बार! अर्थात मैं शरणागत हो जॉन उनके यहाँ! मैंने भी त्रिशूल लिया, वक्राकार रूप से घुमाया और पुनः गाड़ दिया भूमि में और पांच बार डमरू बजाय, अर्थात मैं नहीं, वो चाहें तो कोई हर्ज़ा नहीं, सब माफ़!
पाँव पटके रिपुष ने और तभी एक झटका खा कर रिपुष और दम्मो भूमि पर गिर गए! महिषिका का आगमन होने ही वाला था! साधक को गिरां, पटखने ही उसका आने का चिन्ह है!
"ओ मेरी पातालवासिनी, दर्शन दे!" मैंने कहा,
और अगले ही पाक श्वेत रौशनी मुझ पर पड़ी और मैं नहा गया उसमे, मेरे पास रखे सभी सामान एवं स्व्यं की परछाईं देख ली मैंने!
मैं उठ खड़ा हुआ! नमन किया!
वहाँ महिषिका से मौन-वार्तालाप हुआ और वो वहाँ से दौड़ी लक्ष्य की और, और यहाँ मैं घुटनों पर गिरा त्रिजा के समक्ष बैठा था!
अनुनय करता हुआ!
महिषिका आ धमकी! उसके साथ दो और उप-सहोदरियां, खडग लिए!
समय ठहर गया जैसे!
महिषिका आ धमकी! साथ में दो उप-सहोदरि अपने अपने अस्त्र लिए! यहाँ त्रिजा भी प्रकट हो गयी थी! आमना-सामना हुआ उनका और फिर त्रिजा के समक्ष नतमस्तक हुई महिषिका और भन्न! दोनों ही लोप!
बावरे हुए वे दोनों! महिषिका नतमस्तक हुई! ये कैसे हुआ! कैसे! कैसे????
मैंने अट्ठहास किया!
दो कांटे मैं काट चुका था!
अब मैं अपने आसान पैर बैठा और अधंग-जाप किया! ये जाप क्रोध का वेग हटा देता है! मेरी देख फिर आरम्भ हुई!
वहाँ अब जैसे मरघट की शान्ति छाई थी!
"भोड़िया!"
हाँ! भौड़िया!
यही शब्द आया मेरे कानों में!
अर्थात, नरसिंहि की भंजन-शक्ति!
नरसिंहि! इसके बारे में आप जानकारी जुटा सकते हैं! हाँ, ये अष्ट-मात्रिकाओं में से एक हैं!अब अष्ट-मात्रिकाओं के बारे में भी आप जानिये, बताता हूँ, जब अन्धकासुर का वध करने हेतु, महा-औघड़ और शक्ति ने प्रयास किया तब महा-औघड़ ने शक्ति से कह कर अष्ट-मातृकाएँ प्रकट कीं, ये वैसे चौरासी हैं, अन्धकासुर को वरदान और अभयदान मिला, और ये अष्ट-मात्रिकाएं फिर देवताओं का ही भक्षण करने लगीं! तब इनको सुप्तप्रायः कर इनको विद्यायों में परिवर्तित कर दिया गया, इन्ही चौरासी मात्रिकाओं में से ही नव-मात्रिकाएं अथवा लौहिताएँ बाबा दम्मो ने प्रसन्न कर ली थीं!
"बोल?" रिपुष ने चुनौती दी!
"कहा!" मैं अडिग रहा!
"पीड़ित?" उसने कहा,
"भक्षण" मैंने चेताया,
उसने त्रिशूल लहराया!
मैंने भी लहराया!
उसने चिमटा खड़खड़ाया!
मैंने भी बजा कर उत्तर दिया!
अब बाबा दम्मो ने त्रिशूल से हवा में एक त्रिकोण बनाया! उसका अर्थ था भौड़िया का आह्वान! साक्षात यमबाला! प्राण लेने को आतुर!
"क्वांग-सुंदरी!" मेरे कानों में उत्तर आया! गांधर्व कन्या!
अब मैंने उसका आह्वान किया!
वहाँ भीषण आह्वान आरम्भ हुआ और यहाँ भी!
करीब दस मिनट हुए!
क्वांग-सुंदरी प्रकट हुई!
मैंने भोग अर्पित किया!
नमन किया!
और वहाँ प्रकट हुई यमबाला भौडिआ!
भौड़िया!
इक्यासी नवयौवनाओं से सेवित!
प्रौढ़ आयु!
श्याम वर्ण!
हाथों में रक्त-रंजित खडग!
मुंह भक्षण को तैयार!
केश रुक्ष!
गले में मुंड-माल, बाल!
नग्न वेश!
नृत्य-मुद्रा!
प्रकट हो गयी वहाँ!
उद्देश्य जान उड़ चली वायु की गति से! प्रकट हुई और क्वांग-सुंदरी समख लोप हुई! जैसे सागर ने कोई पोखर लील लिया हुआ तत्क्षण! शीघ्र ही अगले ही पल क्वांग-सुंदरी भी लोप!
ये देख वे दोनों औघड़ बौराये! समझ नहीं आया कि क्या करें!
मैंने त्रिशूल हिलाया!
उन्होंने भी हिलाया!
मैं आसन से उठा!
कपाल उठाया और अपने सर पर रखा!
उन्होंने कपाल के ऊपर पाँव रखा!
अर्थात वे नहीं मान रहे थे हार!
डटे हुए थे!


तीन वार हो चुके थे! अब मेरा वार था! मुझे करना था वार! उनकी देख मुझ तक पहुंची और मैंने तब एक अट्ठहास किया! मैंने एक घड़ा लिया छोटा सा, उनमे मूत्र त्याग किया, साध्वी के पेट पर रख कर! वो फुंफना रही थी, कुछ बुदबुदा रही थी, इसकी निशिका-चक्र कहते हैं, उसकी रूह किसी और दुनिया में अटकी थी, उसका शरीर ही था यहाँ! मैने उस मूत्र से भर घड़े को अपने हाथों से एक गड्ढा खोद कर भूमि में गाड़ दिया! और मंत्रोच्चार किया! ये देख के कब्जे में आया और दूसरी वे दोनों औघड़ जाने गए मैं क्या करने वाला हूँ!
"हाँ?" मैंने कहा,
"बोल?" वे बोले,
"भूमि?" मैंने कहा,
"चरण" वे बोले,
"आग" मैंने कहा,
"चिता" वे बोले,
संवरण हुआ!
कोई तैयार नहीं झुकने को!
मृत्यु संधि कराये तो कराये!
तभी वो घड़ा बाहर आया और उसमे से दो कन्याएं प्रकट हुईं, धामन कन्यायें! उनके मुख नहीं थी, बस दंतमाला ही दिख रही थी, अत्यंत रौद्र होती हैं ये धामन कन्याएं! उद्देश्य जान वे ज़मीन पर रेंगती हुई भूमि में समा गयीं!
वहाँ!
अपने चारों और अपने त्रिशूल ताने वे देख रहे थे! और तभी भूमि फाड़ वे कन्याएं उत्पन्न हुईं! दम्मो आगे आया और उनको त्रिशूल के वार से शिथिल कर दिया! मृतप्रायः सी वे फिर पड़ीं वहाँ, उनकी ग्रीवा पर पाँव रखते हुए उनको लोप कर दिया, वे भूमि में पुनः समा गयीं!
उनकी जीत हुई!
इस जीत से बालकों की तरह उत्साहित हो गए वे दोनों!
हंसी मुझे भी आयी!
"बोल?" रिपुष दहाड़ा!
"जा!" मैंने धिक्कारा!
"आ" मुझे झुकने को कहा,
"अंत" मैंने शब्द-वाणी बंद की!
अब दम्मो ने हाथ हिलाते हुए, कुटकी-मसानी का आह्वान किया! कुटकी जहाँ भी जाती है वहाँ भूत-प्रेत सब भाग जाते हैं! मैदान छोड़ जाते हैं! उसीका आह्वान किया था उसने!
मैंने फ़ौरन ही धनंगा महाबली का आह्वान किया! महातम शक्ति!
दोनों ओर महाजाप!
वे दोनों साध्वियों पर सवार!
और मैं अपनी साध्वी के कन्धों पर बैठा!
लगा जाप करने!
कुटकी अत्यंत तीक्ष्ण मसानी है! ममहामसानी! अक्सर सिद्ध ही इसका प्रयोग करते हैं! सिद्ध होने पर भार्या समान सेवा करती है! ये वीर्य-वर्धक होती है! साधक के मृत्योपरांत सेवा करती है! वही है कुटकी!
मैंने धनंगा का आह्वान किया! ये मात्र धनंगा से ही सहवास करती है! धनंगा कृषु-वेताल सेवक होता है! बेहद परम शक्तिशाली!
कुटकी वहाँ प्रकट हुई!
और यहाँ केश रहित धनंगा!
धनंगा गदाधारी है! ताम्र गदा! मूठ अस्थिओं के बने होते हैं!
अपनी जीत देख, मद में चूर, भेज दिया कुटकी को! क्रंदन करी मात्र एक क्षण में प्रकट हो गई! मार्ग में आये धनंगा से आलिंगनबद्ध हो गयी और फिर दोनों लोप!
हा! हा! हा! हा! हा!
अट्ठहास लगाया मैंने!
"बल?" मैंने कहा,
"यश" वे बोले,
"मृत्यु!" मैंने कहा,
"जीवन" वे बोले!
बड़े हठी थे वे!
"रक्त!" मैंने कहा,
"अमृत!" वे बोले,
"क्षुधा!" मैंने कहा,
"यत्रः" वे बोले,
मूर्ख दोनों!
परम मूर्ख!
साध्वियां पलटीं उन्होंने अब! मुख में उनकी मूत्र-विसर्जन किया! फिर लेप! और दोनों बैठ गए!
यहाँ,
मैंने अपनी साध्वी को अब पेट के बल लिटाया,
एक शक्ति-चिन्ह बनाया मिट्टी से!
और तत्पर!
वे भी तत्पर!
द्वन्द गहराया अब!
द्वन्द अपनी द्रुत गति से आगे बढ़ रहा था! उनकी देख मुझ पर और मेरी उन पर नियंत्रित थी! दोनों डटे हुए थे!
तभी!
रिपुष नीचे बैठा, अपनी साध्वी को अपनी ओर किया और उसके स्तनों पर खड़िया से चिन्ह अंकित किये! और गहन मंत्रोचार में डूबा! मुझे भान नहीं हुआ एक पल को तो और तभी मेरे कारण-पटल में आवाज़ गूंजी, "स्वर्णधामा'
अब मैं समझा!
लालच!
लोभ!
वश!
वाह!
इस से पहले कि मैं उसको रोकता एक परम सुंदरी मेरे समक्ष प्रकट हो गयी! मेरी nazar उसके तीक्ष्ण सौंदर्य पर गयी! सघन केशराशि! उन्नत कंधे, उन्नत कामातुर वक्ष! सुसज्जित आभूषणों से! पूर्ण नागा! कामुक नाभि क्षेत्र! उन्नत उत्तल योनि! सब दैवीय!
"मैं स्वर्णधामा!" उनसे कहा,
"जानता हूँ हे सुंदरी!" मैंने कहा,
"मैं कामेश्वरी सखी" उसने कहा,
"जानता हूँ" मैंने कहा,
"चिर-यौवन!" उसने अब लालच दिया!
"नहीं" मैंने उत्तर दिया!
मैं उसकी पतली कमर और सुडौल नितम्ब देखते हुए काम-मुग्ध था!
"स्वीकार है?" उसने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
"भामिका, अतौली, निहिषिका और वारुणी! ये सब भी संग!" उसने कहा, हँसते हुए!
"नहीं" मैंने कहा,
"मैं देह-रक्षक!" उसने ठिठोली सी करी!
"जानता हूँ" मैंने कहा,
"मुझे अधिकार दे दो देह का!" उसने कहा,
"नहीं" मैंने मना किया,
वो हंसने लगी! खनकती हुई दैविक हंसी!
"प्रयास नहीं करोगे?" उसने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
उसने अपब मेरे शिथिल लिंग को हाथ लगाया,
जस का तस,
कोई तनाव नहीं!
वो मादक हंसी हंसी!
और,
मुझसे ऐसे लिपटी कि उसके नितम्ब मुझसे टकराने लगे, और उसने अपने हाथों से मेरे हाथ पकड़ कर अपने स्तनों पर रख दिए!
"अब बताओ?" उसने कहा,
एक भीनी मदमाती सुगंध!
मैं बेसुध!
काम आल्हादित!
हलक! सूखने लगा!
उसने मेरे हाथ के अंगूठे और तरजनी के बीच अपना स्तनाग्र फंसा दिया!
ठंडा पसीना मुझे!
हृदय में स्पंदन तीव्र हुआ!
उसने अपने नितंभ मेरे लिंग पर सबाव बनाते हुए मुझे वक्रावस्था में, धनुषावस्था में, पीछे धकेला, थोडा सा!
"बोलो?" उसने लरजती हुई आवाज़ में कहा,
सच कहता हूँ!
मेरे मुंह में 'नहीं' अटक गया!
नहीं निकला बाहर!
"स्वीकार?" उसने व्यंग्य किया!
बड़े साहस और थूक का क़तरा क़तरा इकट्ठा कर मैंने हीवह को गीला किया और कहा, "नहीं"
"क्यों?"
"माया!" मैंने कहा,
"कैसे?" उसने अब अपने हाथ से मेरा लिंग पकड़ा और अंडकोष सहलाने लगी!
अब मैंने अपनी आप को छुड़ाया उस से!
मैं छूट गया!
"बोलो?" उसने पूछा, हँसते हुए!
"नहीं" मैंने कहा,
"नहीं? नहीं? हाँ बोलिये" उसने अपना केश आगे किये और कहा,
"नहीं" मैंने कहा,
उसने मेरे लिंग को देखा, मैंने भी, शिथिल!
एक चूक और प्राण की हूक!
"मान जाओ" उसने मुलव्वत से पूछा,
"नहीं स्वर्णधामा! अब जाओ!" मैंने ये कहते हुए दो हड्डियों से एक विशेष मुद्रा बनाकर जालज-मंत्र का जाप करते हुए उसको लोप करा दिया!
ह्रदय पुनः व्यवस्थित हो गया अपने स्पंदन गिनने लगा!
साम दाम दंड भेद!


स्वर्णधामा चली गयी! मैं विजयी हुआ था, बाल बाल बचा था! बड़ी सोची समझी चाल थी!
वहाँ सर पीट लिया था दोनों ने! मैंने काबू नहीं आया था! अब मेरा वार था, मैंने मूत्र लगी हुओ मिट्टी से एक गेंद बनायीं और उसको अलख के पास रक, फिर उसपर नज़रें टेकता हुआ मंत्र पढता चला गया! मैंने साध्वी उलटी लेती थी, उस पर चींटे रेंगने लगे थे!मैं समय समय पर उनको साफ़ कर देता था! अब एक मंत्र पढ़कर त्रिशूल से एक रेखा खेंच दी उसके शरीर के चारो ओर, वो चींटे तो क्या कोई सांप भी नहीं घुस सकता था उस घेरे में!
हां, अब मैंने फिर से नज़रें उस गेंद पर गड़ाईं, और फिर गेंद फट पड़ी! उसकी मिट्टी से टीका किया और फिर अब मैंने त्रांडव-कन्या का आह्वान किया! ये कन्या पीठ ही दिखाती है, और कुछ नहीं, बाल शेवट होते हैं नीचे पिंडलियों तक, शरीर पर को आवरण, आभूषण और वस्त्र नहीं होता! केवल हाथ में एक काला शंख और अस्थियों से बना एक बिंदीपाल अस्त्र होता है! ये कन्या नभ-वासिनी है और अत्यंत तीक्ष्ण हुआ करती है, अट्ठहास जहां करे वहाँ भूमि में गड्ढे पड़ने लगते हैं, कर्ण का ख़याल ना रखा जाए तो कर्ण में शूल होकर रक्त बहने लगता है! अंत में सर फट जाता है, मैंने कर्ण एवं शीश-रक्षा मंत्र जागृत किये और फिर आह्वान तेज किया!
भन्न! और वो प्रकट हो गयी आकाश से उतर कर!
मैंने भूमि पर पेट के बल लेट गया!
"माते!" मैंने कहा,
उसने हुंकार भरी!
अब मैंने उद्देश्य बताया, उसने अट्ठहास किया और जिस मार्ग से आयी थी उसी मार्ग से चली गयी!
वहाँ वे भी तैयार थे! उन्होंने त्रांडव-कन्या की काट के लिए भन्द्रिका को हाज़िर कर लिया था! दोनों समान टक्कर की थीं और प्रबल शत्रु भी!
वहाँ त्रांडव-कन्या प्रकट हुई और भन्द्रिका भी!
तांडव मच गया!
क्या मेरी और क्या उनकी!
सभी की अलख प्राण बचाने हेतु चिल्लाने लगीं! अलख छोटी और छोटी होती चली गयीं! वहाँ उसका त्रिशूल डगमगा के गिरा और यहाँ मेरा उखड़ के गिरा!
दोनों के चिमटे गिर पड़े ज़मीन पर!
ह्दय धक् धक्!
चक्रवात सा उमड़ पड़ा!
और ताहि मुझे जैसे किसीने केशों से पकड़ के ज़मीन पर छुआ दिया! मायने डामरी-विद्या का प्रयोग करते हुए प्राण बचाये!
वहाँ रिपुष को उठा के फेंक मारा!
दम्मो ज़मीन पर लेट गया तो उसकी टांगों से खींच कर उसको कोई ले गया क्रिया-स्थल से दूर!
दोनों जगह हा-हाकार सा मच गया!
"पलट?" दम्मो चीखा!
मैं पलट गया और शक्ति वापिस कर ली!
वो वहाँ से मेरे पास आ कर लोप हो गयी!
वहाँ दम्मो ने भी वापिस कर ली!
अब शान्ति!
यहाँ भी और वहाँ भी!
प्राण बच गए सभी के!
"चला जा?" दम्मो चीखा!
"नहीं" मैं चीखा!
"भाग जा?" वो चिल्लाया!
"कभी नहीं" मैंने कहा,
"मारा जाएगा?" उसने कहा,
"परवाह नहीं" मैंने कहा,
अब मैंने त्रिशूल को गाड़ा और डमरू बजाया!
बस!
बहुत हुआ!
बस!
अब देख असली खेल दम्मो!
मैं क्रोधित!
दावानल!
मेरे मस्तिष्क में दावानल फूटा!
अब मैंने भूमि में दो गड्ढे किये!
दोनों गड्ढों में पाँव रखे और फिर आह्वान किया एक प्रबल महाशक्ति का!
सहन्स्त्रिका का!
एक राक्षसी!
एक महा मायावी!
एक रौद्र से भरपूर शक्ति!
अब पान कांपे उनके! यकीन नहीं था उनको!
"भाग जाओ" मैंने कहा,
वो चुप!
"भाग जाओ!" मैंने कहा,
चुप्पी!
"चले जाओ" मैंने चिल्ला के कहा!
दम्मो आगे आया! आकाश को देखा, हवा में एक यन्त्र बनाया, थूका और बोला, "कभी नहीं!"
और गुस्से में अपने आसान पर बैठ गया!
असल खेल अब आरम्भ हुआ था! द्वन्द मध्य भाग में प्रवेश कर गया था!

और वही हुआ, हाथ में खप्पर लिए वहाँ प्रकट हो गयी अपनी नाचती हुई शाकिनियों के साथ! सहन्स्त्रिका से सामना हुआ और नृतकी शाकिनियां शांत! शांत ऐसे जैसे दो नैसर्गिक शत्रु एक दूसरे के सामने आ गए हों! वे अविलम्ब आगे बढ़ीं , टकरायीं, ये तो मुझे याद है, उसके बाद मै गिर पड़ा भूमि पर, जैसे मुझे किसी ने उठाकर पटका हो और मुझे भूमि में ही घुसेड़ना चाहता हो! सर ज़मीन में लगा और मै बेहोश हुआ, मेरे सर की हड्डी टूट चुकी थी! बस मुझे इतना याद है, मेरे यहाँ मेरा वक़्त थम गया था, मै हार की कगार पर पड़ा था, और कभी भी अचेतावस्था में गिर सकता था हार सकता था, मेरा मुंह खुला था और खुला ही रह गया!
कितना समय बीता?
याद नहीं!
कुछ याद नहीं!
कौन शत्रु है कौन नहीं, कुछ पता नहीं!
मै अचेत पड़ा था, साध्वी नीचे बड़बड़ाती हुई पड़ी थी!
और समय बीता!
रिपुष का क्या हुआ?
दम्मो का क्या हुआ?
ये प्रश्न मेरे साथ ही गिरे पड़े थे!
उत्तर देने वाला कोई नहीं था!
और समय बीता!
कुछ घंटे!
और सहसा!
सहसा मुझे होश सा आया, आँखें खुलीं, आकाश तारों से चमक रहा था, मेरे सर पर अंगोछा बंधा था, मैंने जायज़ा लिया, मै था तो श्मशान में ही था, लेकिन कहा? कुछ याद नहीं आ रहा था!
तभी मुझे कुछ मंत्रोच्चार की आवाज़ें आयीं,
भीषण-श्लाघा के भारी भारी मंत्र!
ये कौन है?
कहीं मै क़ैद तो नहीं,
कहीं प्राणांत तो नहीं हो गया!
ये कौन है?
मैंने स्वयं को टटोला, हाथ लगाया, मै तो जीवित था, खड़े होने के कोशिश की तो एक आवाज़ आयी, "उठ जा अब"
मैंने कोशिश की, सर घूम रहा था, बाएं गर्दन नहीं मुड रही थी!
मै किसी तरह से उठा!
अरे?????
अरे?????
ये तो बाबा हैं! बाबा डबरा!
उन्होंने सम्भाल रखा था मोर्चा!
"उठ जा अब!" वे मुसरा के बोले,
मुझे में प्राणसंचार हुआ! मै उठ बैठा और सीधे ही आसन पर बैठ गया!
"कहाँ तक पहुंचे?" मैंने पूछा,
"मै स्तम्भन कर रखा है, पर्दा कभी भी फट सकता है" वे बोले,
"कितना समय हुआ?" मैंने पूछा,
"एक घंटा" वे बोले,
"और रिपुष और दम्मो का क्या हुआ?" मैंने पूछा,
"वही जो तेरा हुआ, रिपुष का सर फट गया है, दम्मो सम्भाल के बैठा है, दम्मो कि एक आँख में रौशनी नहीं है" वे बोले,
"तब भी?" मैंने कहा,
"हाँ" वे बोले,
और खड़े हुए!
"अब मै चलता हूँ, द्वन्द तेरा है, विजय होना" वे बोले,
और वो अपना त्रिशूल लेकर चले गए वहाँ से!
मै संयत हुआ!
देख शुरू कीं!
मर जाता तो देख भी भाग छूटतीं!
अब मैंने स्तम्भन हटा दिया! दृश्य स्पष्ट हो गया!
वे चकित!
मै चकित!
अब हम उत्तरार्ध में थे!
अब या तो वे या मै!
उन्होंने मेरे यहाँ मांस के लोथड़ों की बारिश की! जैसे सुस्वागतम के फूल बिखेरे हों!
मैंने भी वहाँ बारिश कर दी आतिश की! दुर्गन्ध की!
द्वन्द चतुर्थ और अंतिम चरण में लांघ गया!
दोनों ओर से ज़ोर-आजमाइश ज़ारी थी, दोनों ही पक्ष इस संग्राम से आहत थे, मेरे सर में भयानक पीड़ा थी और वहाँ रिपुष लेटा हुआ था, बाबा दम्मो ही मोर्चा सम्भाले बैठे था,
अब बहुत हुआ! बस! अब अंत आवश्यक है नहीं तो और अधिक डट नहीं पाउँगा मई, अब मैंने एक त्वरित निर्णय लिया, बाबा दम्मो नव-लौहिताओं के दम पर मैदान में डटा था, मुझे उस वो पाश काटना था, पाश काटने के लिए मुझे उसका मार्ग रोकना था, और ये मार्ग तभी रुक सकता था जब उसका जिव्हा कीलन हो जाए, इसके लिए मुझे तड़ितमालिनी की आवश्यकता थी, मैंने वहाँ मांस अदि की बरसात की, जिनको झेलता गया वो दम्मो, गुर सीखे हुए थे उसने और उनका प्रयोग करना उनको सम्मुख रखना, उसने वो अभी तक सफल रहा था!
अब मैंने तड़ितमालिनी का जाप किया, नैऋत्य-कोण वासिनी, रात्रिकालबाली और दो भयानक महापिशाचों एराम और डोराम से सेवित है ये! इक्यासी उप-सेवक है, तमोगुणी, कभी अट्ठहास न करने वाली तड़ितमालिनी भी एक महाशक्ति की खडगमहाशक्ति है! मैंने आह्वान आरम्भ किया और उधर उसने ज्वालमालिनी का आह्वान किया! मेरे मंत्रोच्चार गहन हुए, उसके भी सघन!
कोई किसी से कम नहीं!
दोनों ही अडिग!
दोनों ही मरने मरने को तैयार!
एक को शक्तियों पर घमंड!
दूसरे को सत्य पर घमंड!
लक्ष्य दोनों के एक ही!
शत्रु-भेदन!
मंत्रोच्चार और गहन हुए!
और फिर मेरे समक्ष तड़ितमालिनी प्रकट हुई, ब्रह्म-कमल के पुष्पों द्वारा सुसज्जित तड़ितमालिनी! मैंने नमन किया और भोग अर्पित किया! मैंने उस से सारी व्यथा कह सुनाई! उसने सुना और फिर उसके सरंक्षण में उसके दोनों सेवक एराम और डोराम वहाँ से चलने से पहले, अपने और सह-सहायक बुला कर, तड़ितमालिनी से आज्ञा ले चल पड़े! चल पड़े वीरधर!
काले भक्क सहायक उनके! महापिशाच अत्यंत रौद्र रूप में!
सीधा वहीँ प्रकट हुए!
और प्रकट हुई वहाँ ज्वाल-मालिनी!
वायव्य-कोण वासिनी! चौसंठ कलाओं में निपुण! शत्रु-भंजनी!
ठहर गयी एराम और डोराम की सेना!
अब कूच किया तड़ितमालिनी ने यहाँ से!
और!
जब तक उद्देश्य कहता दम्मो, तड़ितमालिनी और ज्वाल-मालिनी का शक्तिपात हुआ, दृष्टिपात हुआ, तड़ित-मालिनी का इशारा हुआ!
और अब क्या था!
एराम और डोराम ने मचाया अब कोहराम!
एराम ने अलख बुझा दी! दम्मो के प्राण मुंह को आये!
अलख बुझी, जीवन बुझा!
ज्वाल-मालिनी लोप हुई!
सामान, भोग, त्रिशूल, खडग और चिमटे, फेंक मारे शमशान में दोनों ने! विकट उत्पात किया! क्रंदन-महाक्रंदन!
झुक गया घुटनों पर दम्मो! अपनी अलख को देखता हुआ!
अब एराम ने उठाया दम्मो को उसकी गर्दन से और हवा में किसी गठरी के समान, जैसे गजराज किसी मनुष्य को उठकर फेंक दे सामने, ऐसा फेंका!
हड्डियां चटक गयीं! जोड़ बिखर गए उसके!
वहाँ डोराम ने रिपुष को, करहाते रिपुष को भांज दिया!
एक हाथ उखड़ गया उसका और रक्त का फव्वारा बह निकला!
चीख भी नहीं सका रिपुष!
एराम के वार से दम्मो मूर्छित हो गया!
अब मैंने तड़ितमालिनी का वापिस आह्वान किया! हालांकि मुझमे भी शक्ति नहीं थी उठने की, मैं जस का तस वहीँ झुक गया! मैंने नमन किया! अपने जीवनदायनी को नमस्कार किया और वो अपने सहायकों और सेवकों के साथ लोप हुई!
रिपुष और दम्मो, दोनों परकोटे तबाह हो चुके थे! समस्त शक्तियां उड़ निकलीं वहाँ से, कुछ ने मेरे यहाँ शरण ले ली!
मैं पीछे बैठता चला गया और गिर गया!
मेरे आंसू और चीख निकलने लगीं! मैंने कपाल को चूमते हुए रोता रहा! अलख को नमन करता रहा, अघोर-पुरुष एवं गुरु नमन करता रहा!
मैंने बैठा किसी तरह!
शक्ति का नमन किया!
और फिर मेरे समक्ष प्रकट हुई पद्मा जोगन! शांत! एकदम शांत! पीड़ा भूल गया मैं! सच कहता हूँ, पीड़ा भूल गया तत्क्षण!
पद्मा जोगन अब मुक्त थी!
एक छोटे से पात्र में आने को कहा मैंने और पद्मा जोगन उसमे वास कर गयी!
अब छोटे मेरे आंसू!
सब्र टूट गया!
तभी मुझे बाबा डबरा आते दिखायी दिए!
वे आये, मुझे उठाया,
मैं उन के पाँव पकड़ पागल की भांति रोता रहा!
उन्होंने नहीं रोका!
अवसाद था, जितना निकल जाए उतना अच्छा!
उन्होंने मेरे माथे को सहलाया,
"अब सब ख़तम" वे बोले,
मैं चुप, केवल सिसकियाँ!
"तुम विजयी हुए" वे हंस के बोले,
मैं चुप!
कुछ पल!
और कुछ पल!
"बाबा?" मैं बोल पड़ा आखिर!
"बोलो!" वे बोले,
"वो स्तम्भन नहीं था" मैंने कहा,
"मैं जानता हूँ" वे बोले,
"मार्ग बंद किया गया था लौहिताओं का" मैंने कहा,
"हाँ!" वे हंसके बोले!
शान्ति!
मैं खोया अब उसी कड़ी में!
"मैंने भी लौहिताएँ सिद्ध की हैं!" वे बोले,
"ओह" मैंने कहा,
"ठीक हो जाओ, अब मैं सिद्ध करवाऊंगा तुमको" वे हंस के बोले,
उन्होंने उठाया मुझे!
ले गए अपने स्थान पर, अंगोछा खोला, तो सूजन, सूजन मेरी आँखों तक आ पहुंची थी!
शर्मा जी को बुलाया गाय, वे हैरान-परेशान!
उसी सुबह मुझे ले जाया गया अस्पताल! मेरा इलाज हुआ और हड्डी को जोड़ दिया गया, मात्र हड्डी टूटने के अलावा और कोई ज़ख्म नहीं था!
ग्यारह दिन में मैं ठीक होने लगा, सूजन गायब हो गयी!
इन दिनों में मैंने सारा बखान कर दिया किस्सा कि क्या हुआ था!
करीब तेरह-चौदह दिनों के बाद मैं अब शर्मा जी के साथ वापिस हुआ, बाबा डबरा के पाँव छू कर मैंने विदा ली, सीखने के लिए समय निश्चित हो गया! और हम वापिस हुए!
हाँ, मुझे खबर मिली बाबा डबरा से, कि दम्मो अँधा हो गया था, उसकी वाणी भी सदा के लिए साथ दे चुकी थी, रिपुष को इन्फेक्शन हो गया था हाथ में, उसका एक हाथ कंधे से ही काटना पड़ा था! सारी औघडाई हाथ के साथ ही कट गयी थी!
मैं वापिस सियालदह आ गया! वहीँ ठहरा!
दो दिन बाद पद्मा जोगन के कक्ष में मैंने मुक्ति क्रिया का प्रबंध किया!
पद्मा को पात्र से मुक्त किया!
पद्मा ने मुझे जो कारण बताया वो मैं आपको नहीं बता सकता, कुछ विशेष कारण है! हाँ, वो सिक्का! सिक्का उसने आटे का पेड़ा बनाकर, उसमे रखकर निगल लिया था, उस सिक्के के कारण ही उसका ये हश्र हुआ था! बाबा कर्दुम का वो सिक्का और किसी के हाथ नहीं लगने देना चाहती थी, एक अमावस की रात को वो निर्णय लेकर एक दूर-दराज के तालाब में जल-समाधि के औचित्य से पहुंची और जल-समाधि ले ली!
इस से आगे मैंने कुछ नहीं पूछा! सो लिख भी नहीं सकता!
हाँ, बस इतना कि पद्मा मुक्त हो गयी थी!
मित्रगण! प्राण जाने का भय किसे?
जिसने लोभ पाले हों!
मोहपाश में बंधा हो!
जागृत न हो!
आत्म-ज्ञान से कोसों दूर हो!
जिसमे तृष्णा बलवती हो!
जो चिरावस्था का लोलुप हो!
को कर्त्तव्य-विहीन जीवन जीने का आदि हो!
जो मानस रूप में पशु हो!
जिसे भौतिकता से इतना प्रेम हो जो ज्ञान को झुठलाये!
मैं ओ इतना ही कहूंगा, प्राण आपके नहीं, किसी और की विरासत हैं, आपको केवल उधार दिए गए हैं! वो जब मांगेगा तब आप तो क्या कोई भी रोक नहीं पायेगा जाने से! प्राण स्व्यं खींचे चले जायेंगे इस देह से! और ये देह! ये तो नश्वरता का सबसे बड़ा उदाहरण है!
इस से प्रेम??

सियालदाह की एक घटना


मित्रगण, क्या आपने कभी किसी लिबो सिक्के के बारे में सुना है? ये एक चमत्कारी सिक्का है! यदि इसके सामने तेज गति से चलती बस आ रही हो तो ये उसके इंजन को बंद कर सकता है, किसी भी मशीन को रोक सकता है! हाँ, यदि कार्बनपेपर में लपेटा गया हो तो ऐसा नहीं करेगा यह! यदि जलती हुई मोमबत्ती के पास इसको लाया जाए तो उसकी लौ इसको तरफ झुक जाती है! चावल के पास लाया जाए तो चावल इसकी ओर आकर्षित हो जाते हैं! यदि बिजली के टेस्टर को इस समीप लाया जाए तो वो जलने लगता है! आपकी इलेक्ट्रॉनिक घड़ी इसके संपर्क में आते ही बंद हो जायेगी, बैटरीज फट जाएंगी! ए.ए. सेल्स पिघल जायेंगे! 
दरअसल इस सिक्के में तीन ऊर्जा-क्षेत्र जोते हैं, जर्मनी में निर्मित एक ख़ास मशीन इसकी इस ऊर्जा को सोखती है! इस मशीन की कीमत दस लाख डॉलर के आसपास है, यदि इस सिक्के को किसी बड़े बिजली के ट्रांसफार्मर के पास लाया जाए तो वो फट जाता है! इसको टेस्ट करने में ०.१ लाख डॉलर का खर्च आता है, और इसका परीक्षण निर्जन स्थान एवं समुद्रीय तट-रेखा के पास ही किया जाता ही!
अब प्रश्न ये कि ये सिक्के आये कहाँ से?? और इसमें इतनी शक्ति कैसे है? कौन सी शक्ति?
बताता हूँ,
सबसे पहले शक्ति बताता हूँ, इस सिक्के में ताम्र-इरीडियम नामक पदार्थ होता है, ये अति विध्वंसक और दुर्लभ तत्व है! अब पुनः प्रश्न ये कि ये सिक्के आये कहा से?
वो भी बताता हूँ!
१६०३ ईसवी में, ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में अपना व्यापार आरम्भ कर लिया था, इसका मुख्यालय लंदन इंग्लैंड में था, उन्होंने भारत में कुछ सिक्के अथवा मोहरें ढलवायीं ताकि व्यापार को समृद्धि मिले! इस प्रकार वर्ष १६१६ ईसवी, १७ मार्च को एक खास मुहूर्त था, गृह-कुटमी मुहूर्त, ये पांच घंटे का था, ये ग्रहण समय था, एक अत्यंत दुर्लभ खगोलीय घटना! ईस्ट इंडिया कंपनी ने इस समय पर कुछ भारतीय मनीषियों और खगोल-शास्त्रियों के हिसाब से, अलग अलग वजन और आकार के, अलग अलग सिक्के ढलवाए, ये कुल १६ थे, हाथों से बने, इनमे इरीडियम-ऊर्जा समाहित थी! आज भी कुल सिक्के १६ ही हैं! ऐसा ही एक सिक्का ईस्ट इंडियन कंपनी ने हांगकांग के राजा लियो को भेंट किया था सन १६१६ में ही! बाद में यही सिक्का अमेरिका में १८७१ में २०० बिलियन डॉलर का बिका था! आप तस्वीर देखिये इस सिक्के की, शेष मै आपको अगले भाग में बताता हूँ! 

विशेषताएं:- लिबो सिक्के पर एक ओर जहां उस खुदरा मूल्य अंकित है वहीँ दूसरी ओर उस पर नौ ग्रह भी बने हुए हैं, इसीलिए इनको नवग्रह-सिक्के भी कहा जाता है, लिबो का यूनानी भाषा में अर्थ है सूर्य-प्रहरी! इनमे और भी विशेषताएं हैं, इनको चार्ज मभी किया जा सकता है तब ये अपनी क्षमता में वृद्धि कर लेते हैं! ८७ प्रकार के पदार्थ इसमें संघनित होते हैं प्रत्येक की अपनी विशेषता है! इस पर अंकीर्ण नवग्रह जैसे चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शनि, शुक्र, शनि, राहु और केतु के साथ स्व्यं सूर्य भी होते हैं, कइयों पर नाग बने हैं और कइयों पर कुछ अन्य चिन्ह भी अंकित हैं! ये सभी ग्रह एक दूसरे से शिराओं से जुड़े हुए हैं और इन्ही से इसमें ऐसी शक्तियां निहित हैं! कहा जाता है, इन सिक्कों में सभी ग्रहों के पदार्थ अवशोषित हैं! धातुविद् जानकारों ने ये पदार्थ तीन भाग में बांटे हैं, इनमे इक्कीडयम, इरीडियम और वीरेडियम मुख्य हैं! सन १६१६ में इन सिक्कों की कीमत ही लाखों में थी और आज तो खरबों रुपयों में है!
ऐसा ही एक सिक्का पद्मा जोगन के पास मैंने देखा था! पद्मा जोगन रहने वाली नरसिंहगढ़, मध्य-प्रदेश की थी, लेकिन उस समय वो सियालदाह में रह रही थी, उसको ये सिक्का उसके गुरु योगी राज कद्रुम ने दिया था! वो उसको अपने गले में बंधी एक छोटी सी डिब्बी में रखती थी, कार्बन पेपर में लपेट कर! खूब चर्चा में रही वो! बहुत लोगों ने प्रपंच लड़ाए लेकिन कुछ काम न आये! और फिर वर्ष २०१२ के दशहरे के दिन पद्मा जोगन अपने स्थान से गायब हो गयी! उसने कभी किसी को नहीं बताया कि वो कहाँ जा रही है! कहते हैं उसने जल-समाधि ले ली, कुछ कहते हैं हत्या हो गयी, कुछ कहते हैं भूमि में समाधि ले ली! लेकिन उसका सिक्का? वो कहाँ गया? उस सिक्के का मोल बहुत अधिक है! और इस तरह हुई उस सिक्के की खोज आरम्भ!
मेरे पास ये खबर दिवाली से दो रोज पहले आयी थी, हालांकि मुझे कोई आवश्यकता नहीं थी सिक्के की, मै बस इस से चिंतित था कि पद्मा जोगन का क्या हुआ? वो पैंतालीस साल की थी, हाँ, देखने में कोई तीस साल की लगती थी, सुन्दर और अच्छी मजबूत कद काठी की थी, मेरी मुलाक़ात उस से करीं पद्रह वर्ष पहले हरिद्वार में हुई थी, तभी से वो और मै एक दूसरे को जानते थे, सिक्के वाली बात तो मुझे बाद में पता चली थी! तब मेरी ज़िद पर वो सिक्का उसने मुझे दिखाया था, उसने बिजली का टेस्टर उसके पास रखा था और वो जलने लगा था! बहुत अजीब सा सिक्का लगा था मुझको वो!
खैर, एक दिन मेरा आना हुआ सियालदाह शर्मा जी के साथ, तब मै उसके स्थान पर गया था, तब तक वो समाधि ले चुकी थी, ऐसा मुझे बताया गया, उसने किसी को बताया भी नहीं था और बिना खबर किये वो गायब भी हो गयी थी! 
जब मै वहाँ गया तो मुझे वहाँ के संचालक भान सिंह से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ, भान सिंह राजस्थानी थे, उन्होंने भी मुझे पद्मा जोगन के बारे में वही बताया जो कि सुना-सुनाया था! कोई ठोस और पुख्ता जानकारी नहीं मिल सकी थी!
उस दिन शाम के समय मै और शर्मा जी आदि लोग बैठे हुए थे, मदिरा का समय था, वही सब चल रहा था, तभी पद्मा जोगन का ज़िक्र चल पड़ा! मेरी बात हुई इस औघड़ से, वो पद्मा जोगन के गायब होने से कुछ घंटे पहले ही मिला था उस से, नाम था छगन!
"तुम्हे कुछ आभास हुआ था?" मैंने पूछा,
"नहीं तो" वो बोला,
"कोई आया गया था उसके पास से?" मैंने पूछा,
"मै उसके साथ दोपहर से था, कोई आया गया नहीं था" उसने कहा,
"क्या पद्मा ने कुछ कहा था इस बारे में?" मैंने पूछा,
"नहीं तो" वो बोला,

मै सोच में पड़ गया!
पद्मा जोगन के जान-पहचान का दायरा वैसे तो बहुत बड़ा था, परतु उसको एकांकी रहने ही पसंद था, इक्का-दुक्का लोगों के अलावा और किसी से नहीं मिलती थी, तो हत्या वाला सिरा ख़ारिज किया जा सकता था, न उसके पास धन था और न कोई अन्य विशेष सिद्धि, हाँ मसान अवश्य ही उठा लेती थी, हाँ, वो सिक्का किसी से दुश्मनी का सबब बन सकता था, किसी धन की चाह रखने वाले के लिए, ये सम्भव था,
"छगन?" मैंने पूछा,
"जी?" उसने कहा,
"कोई नया आदमी मिलने आता था उस से?" मैंने पूछा,
"नहीं तो" वो बोला,
"कोई औरत?" मैंने पूछा,
"हाँ, एक औरत आती थी" उसने सुलपा खींचते हुए बताया,
"कौन?" मैंने पूछा,
"बिलसा" उसने धुंआ छोड़ते हुए कहा,
और सुलपा मुझे थमा दिया, मैंने कपडे की फौरी मारी और एक कश जम के खेंचा! तबियत हरी हो गयी! बढ़िया सुतवां लाया था छगन!
"कौन बिलसा?" मैंने पूछा,
''रंगा पहलवान की जोरू" उसने सुलपा लेते हुए कहा,
"वो मालदा वाला डेरू बाबा का रंगा पहलवान?" मैंने पूछा,
"हाँ, वही" उसने धुआं छोड़ते हुए गर्दन हिलाई,
"तो बिलसा काहे आई इसके पास?" मैंने पूछा,
"कोई रिश्ता है दोनों में" उसने कहा,
"किसमे?" मैंने पूछा,
"रंगा में और पद्मा में" वो बोला,
'अच्छा?" मैंने हैरत से पूछा,
"हाँ" वो बोला,
"क्या रिश्ता है?" मैंने पूछा,
"ये नहीं पता?" उसने बताया,
मेरे लिए जानना ज़रूरी था!
"अब बिलसा कहाँ है?" मैंने पूछा,
"वहीँ मालदा में" वो बोला,
"अच्छा, डेरू बाबा के पास?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
अब मैंने छगन को अंग्रेजी माल बढ़ाया उसके गिलास में! उसने उठाया, बत्तीसी दिखायी और गटक गया!
"छगन?" मैंने कहा,
"हाँ जी" वो बोला,
"पद्मा के सिक्के के बारे में कुछ पता है?" मैंने पूछा,
"नहीं जी" वो बोला,
"कहीं बिलसा इसी मारे तो नहीं आती थी वहाँ?" मैंने शक ज़ाहिर किया,
"पता नहीं जी" उसने कहा,
"चल कोई बात नहीं, मैं खुद बिलसा से पूछूंगा!" मैंने कहा,
"वहाँ जाओगे?" उसने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"मैं भी चलूँ?" उसने पूछा,
"चल" मैंने कहा,
"ठीक है" वो बोला,

अब हमारा कार्यक्रम तय हो गया, कल हम मालदा जाने वाले थे!

गले दिवस हम निकल पड़े मालदा, सुबह कोई सात बजे, ये तीन सौ छब्बीस किलोमीटर दूर है सियालदह से, सो बस पकड़ी और चल दिए, पूरा दिन लग जाना था, अतः नाश्ता-पानी कर के चल दिए थे!
जब हम वहाँ पहुंचे तो रात के ९ बज गए थे, यात्रा बड़ी बुरी और थकावट वाली थी, घुटने, पाँव और कमर दर्द कर रहे थे! हम सीधे अपने जानकार के डेरे पर पहुंचे, हम वहीँ ठहरे, और स्नान आदि से निवृत हो कर भोजन किया और फिर लम्बे पाँव पसार कर सो गए!
सुबह उठे तो ताज़ा थे, थकावट हट गयी थी! दूध आ गया गरम गरम! दूध पिया और साथ में कुछ मक्खन-ब्रेड भी खाये, नाश्ता हो गया!
"छगन?" मैंने कहा,
"हाँ जी?" वो बोला,
"डेरू बाबा का डेरा कहाँ है यहाँ?" मैंने पूछा,
"होगा यहाँ से कोई पचास किलोमीटर" वो बोला,
"चल फिर" मैंने कहा,
"चलो जी" वो बोला.
अब हम उठे, मैं संचालक से मिला उसको बताया और हम वहाँ से निकल गए डेरू बाबा के डेरे के लिए!
सवारी गाड़ी पकड़ी और उसमे बैठ कर चल दिए, डेढ़ घंटा लग गया पहुँचने में वहाँ, ऊंचाई पर बना था डेरा, बड़ा सा स्वास्तिक बना था दरवाज़े पर और झंडे कतार में लगे थे!
हम अंदर गए, परिचय दिया तो उप-संचालक से बात हुई, उसने हमे एक कक्ष में बिठाया, डेरू बाबा वहाँ नहीं था, खैर, हमे तो रंगा से मिलना था, उप-संचालक ने एक सहायक को भेज दिया उसको बुलवाने के लिए और चाय मंगवा दी, हम चाय पीने लगे, पंद्रह मिनट के बाद सहायक आया और बताया कि रंगा गया हुआ है डेरू बाबा के साथ और शाम को आना है उनको वापिस!
खैर जी,
अब हमने रंगा पहलवान की पत्नी से मिलने की इच्छा जताई, उप-संचालक ने सहायक को भेज दिया बिलसा को बुलवाने के लिए!
थोड़ी देर में एक अधेड़ उम्र की औरत आयी वहाँ, उसने नमस्कार किया हमने भी नमस्कार किया,
"बिलसा? तू ही है?" शर्मा जी ने पूछा,
"हाँ" उनसे कहा,
"आदमी कहाँ है तेरा?" उन्होंने पूछा,
''गया हुआ है डेरू बाबा के साथ" उसने बताया,
"अच्छा" अब मैंने कहा,
"शाम तलक आयेंगे" वो बोली,
"एक बात बता, पद्मा जोगन को जानती है तू?" मैंने पूछा,
वो चुप!
"बता?" मैंने पूछा,
"नहीं" उसने कहा,
अब छगन ने मुझे देखा और मैंने बिलसा को!
"वो सियालदाह वाली पद्मा जोगन?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
"कहाँ गयी वो?" मैंने पूछा,
"पता नहीं" वो बोली,
"आखिरी बार कब मिली तू उस से?" मैंने पूछा,
"तभी उसके जाने के दो दिन पहले" वो बोली,
"कुछ बताया था उसने?" मैंने पूछा,
"नहीं" वो बोली,
"मैंने कुछ पूछा?" मैंने कहा,
"नहीं" वो बोली, और फिर एक दम से उठकर चली गयी बाहर!
मैं आश्चर्यचकित!
"ये बहुत कुछ जानती है, या फिर कुछ भी नहीं खाकधूर कुछ भी नहीं" मैंने कहा,
"लेकिन ये उठ क्यों गयी?" शर्मा जी ने पूछा,
"अपने आदमी के सामने बात करेगी" मैंने कहा,
"यानि कि शाम को" वे बोले,
"हाँ, मैंने कहा,
"चलो कोई बात नहीं, शाम को ही सही" उन्होंने कहा,
"हाँ, शाम को सही" मैंने कहा,
अब हम उठे वहाँ से, बिलसा का रवैय्या पसंद नहीं आया मुझे, लगता था कुछ छिपा रही है हमसे! पर अब शाम को ही बात बन सकती थी!
हम कक्ष से बहार आये, उप-संचालक के पास गए और फिर शाम को आने की कह दिया, वो तो हमको वहीँ रोक रहे थे, लेकिन मैंने मना कर दिया,
हम बाहर आ गए, बाहर आकर भोजन किया और फिर अपने डेरे पर वापिस आने के लिए सवारी गाड़ी पकड़ ली, आराम से हम आ गए अपने डेरे पर!
छगन वहाँ से अपने किसी जानने वाले के पास चला गया और अब यहाँ रह गए हम दोनों, हमने आराम किया और एक झपकी लेने के लिए अपने अपने बिस्तर पर लेट गए!
जन आँख खुली तो २ बजे थे, मौसम सुहावना था, शर्मा जी सोये हुए थे अभी, मैं बाहर आ गया और आकर एक पेड़ के नीचे वहाँ पत्थर से बनी एक कुर्सी पर बैठ गया, और पद्मा जोगन के बारे में सोचने लगा, कोई क्यों चाल खेलेगा उस से? सिक्के के लिए? हाँ, ये हो सकता है, लेकिन वो कहाँ गयी? ये था सवाल असली तो!
तभी शर्मा जी भी बाहर आ गए और मेरे पास आ कर बैठ गए!
"कब उठे?'' उन्होंने पूछा,
"अभी बस आधा घंटा पहले" मैंने कहा,
"थक गया था मैं, इसीलिए ज़यादा सो लिया" वो बोले,
"कोई बात नहीं" मैंने कहा,
"चाय पी जाए" वे बोले,
उन्होंने एक सेवक को चाय लाने के लिए कह दिया! वो चला गया और हम बातचीत करते रहे!
"ये पद्मा जोगन शादीशुदा थी?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"तो इसका आदमी?" उन्होंने पूछा,
"शादी के एक महीने बाद ही रेल से कटकर मर गया था" मैंने कहा,
"ओह" वे बोले,
"कोई संतान?" उन्होंने पूछा,
"कोई नहीं" मैंने कहा,
"ओह" वे फिर बोले,
"तो सियालदाह वो अपने गुरु के साथ रहती थी?" वे बोले,
"हाँ, उसके गुरु ने ही उसकी शादी करवायी थी" मैंने कहा,
"अच्छा" वे बोले,
सहायक चाय लाया और हमने चाय की चुस्कियां लेना आरम्भ किया, साथ में चिप्स भी लाया था, देसी चिप्स!
हम चाय का मज़ा ले रहे थे, तभी छगन का वहाँ आना हुआ, ओ जिस से मिलकर आया था वो एक स्त्री थी, छगन के गाँव की स्त्री, छगन हमारी तरफ बढ़ा तो मैंने कहा, "मिल आये छगन?" 
"हाँ जी" वो बोरा और अपना झोला एक तरफ रख दिया,
"कुछ लाया है क्या वहाँ से?" मैंने पूछा,
"हाँ, कुछ सामान है" उसने बताया,
"अच्छा" मैंने कहा,
"सोचा लेता आऊं, बाद में नहीं आना होता इधर" वो बोला,
"चल ठीक रहा" मैंने कहा,
"हाँ जी" वो बोला,
"जा चाय ले आ अंदर से" मैंने कहा,
वो चाय लेने चला गया,
"गुरु जी, ये छगन क्या करने जाता था उस जोगन के पास?" शर्मा जी ने पूछा,
"ऐसे ही जाता होगा, मिलने के लिए" मैंने कहा,
"हम्म" वे बोले,
"और वैसे भी जोगन बहुत कम मिला करती थी मिलने वालों से" मैंने कहा,
"अच्छा" वे बोले,
छगन चाय ले आया इस बीच, चाय पीने लगा,
"आज शाम निकलते हैं छह बजे, क्यों छगन?" मैंने पूछा,
"हाँ, चलते हैं" वो बोला,
"और सुना छगन, कोई ऐसी बात जो काम की हो?" मैंने पूछा,
"ऐसी तो कोई बात नहीं, हाँ एक बात मुझे खटकती थी वहाँ" वो बोला,
"क्या?" अब मैंने चौंका,
"बिलसा जब भी आती थी तो अक्सर उसके साथ एक लड़की होती थी" वो बोला,
"लड़की?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" वो बोला,
"कैसी लड़की?'' मैंने पूछा 
"बाहरी" उसने कहा,
बाहरी मतलब किसी डेरे की नहीं,
"क्या उम्र होगी उसकी?" मैंने पूछा,
"बीस-बाइस से ज्यादा नहीं होगी" वो बोला,
अब रहस्य में एक गाँठ और लगा दी थी कस के छगन ने!
"बिलसा कुल कितनी बार आयी होगी मिलने के लिए?" मैंने पूछा,
"करीब छह-सात बार, चार-पांच महीने में" वो बोला,
"अच्छा" मैंने कहा,
इसके बाद मैं चिंता में पड़ा, कौन लड़की? किसलिए आती थी? क्या कारण था? खैर, अब इसका पता बिलसा या रंगा से मिल सकता था, और आज शाम हम जाने वाले थे वहाँ,
मैं और शर्मा जी अपने कमरे में आ गए, छगन नहाने धोने चला गया,
"अब ये लड़की कौन?" शर्मा जी ने पूछा,
"पता नहीं?" मैंने कहा,
'वो भी बाहरी?" उन्होंने पूछा,
"पता करते हैं आज" मैंने कहा,
"ये तो रहस्य गहराता जा रहा है" वे बोले,
"हाँ, अवश्य ही कुछ गड़बड़ है, पक्का" मैंने कहा,
"अंदेशा है मुझे भी ऐसा" उन्होंने ऐसा कह और मोहर दाग दी!
"बाहरी, अर्थात कोई और" मैंने स्व्यं से सवाल किया,
"लेकिन कौन? किसलिए?" एक और सवाल!
इसी उहापोह में आगे का समय कटा, खैर जी, खाना खाया और फिर टहलने के बाद वापिस कक्ष में आ गए हूँ तीनों, पांच बज चुके थे और छह बजे करीब निकलना था वहाँ से, सो सोचा थोडा सा आराम और फिर कूच!
इस बीच छगन ने मुझे कुछ और बातें भी बताईं, कुछ ज़रूरी भी और कुछ ऐसे ही!
और अब बजे छह,
"चलो" मैंने कहा,
"चलिए" वे बोले,
और हम निकल गए,
डेरू बाबा के डेरे पहुंचे. अब वहाँ रौनक सी थी, हम अंदर गए और फिर संचालक से हमने रंगा पहलवान से मिलने की इच्छा जताई, अपना परिचय भी दिया,
"आप लोग बैठिये, मैं बुलवा लेता हूँ" संचालक ने कहा,
"ठीक है, धन्यवाद" मैंने कहा,
हम कक्ष में बैठ गए!
और थोड़ी देर बाद रंगा पहलवान आ गया अपनी पत्नी बिलसा के साथ, चेहरे पर अजीब से भाव लिए!
रंगा पहलवान अन्दर आया और सामने पड़े मूढ़े पर बैठा गया, देह उसकी पहलवान की ही थी, जवानी में खूब पहलवान रहा होगा, पता चलता था, उसकी पत्नी वहीँ एक चारपाई पर बैठ गयी, अब मैंने बात आरम्भ की, "रंगा, मैं दिल्ली से आया हूँ, पद्मा जोगन के बारे में जानना चाहता हूँ, तुम्हारी पत्नी बिलसा अक्सर उसके पास जाया करती थी"
"हाँ, जाया करती थी" उसने कहा,
"कोई लड़की भी जाती थी बिलसा के साथ, कोई बाहरी लड़की" मैंने पूछा,
"हाँ, वो लड़की मेरी भतीजी है, कोलकाता में रहती है" उसने बताया,
"तुमको तो मालूम है, पद्मा जोगन अचानक से गायब हो गयी थी?" मैंने कहा और सीधे ही मुख्य विषय पर आ गया,
"हाँ, सुना था" उसने कहा,
"क्या पद्मा जोगन ने इस बारे में कभी बिलसा को कुछ बताया था?" मैंने पूछा,
"नहीं" उसने कहा,
"क्या बिलसा कुछ कहेगी इस बारे में?" मैंने पूछा,
"नहीं" उसने कहा,
"क्यों?" मैंने पूछा,
"आप बताइये कि क्यों बताये?" उसने कहा,
"मैं तो जानना चाहता हूँ कि कुछ सुराग मिल जाए कुछ उसका?'' मैंने कहा, 
"आप जानना चाहते हैं?" उसने कहा,
"हाँ" मैंने कहा,
"बताता हूँ" उसने कहा,
अब मेरे कान खड़े हुए!
"पद्मा जोगन ने स्व्यं कहीं जाकर समाधि ले ली है, कहाँ ये नहीं पता, यदि पता होता तो मैं आपको अवश्य ही बताता, जितना जानता हूँ उतना ही बताया है" वो बोला,
"ये तुमको कहाँ से पता चला?" मैंने पूछा,
"मुझे एक औघड़ दीना नाथ ने बताया था" वो बोला,
उसकी आवाज़ में लरज़ नहीं थी, कपट नहीं था, छल नहीं था, अस्वीकार नहीं किया जा सकता था!
"अच्छा! ये औघड़ दीनानाथ कहाँ रहता है?" मैंने पूछा,
"ये सियालदह में ही है" उसने मुझे फिर पता भी दे दिया,
अब हमारा काम यहाँ ख़तम हो गया था, रंगा ने भरसक बताया था, यक़ीन करना ही था, चोर में साहस नहीं होता, नहीं तो वो चोरी ही न करे!
अब हम उठे वहाँ से और फिर वापिस चल दिए अपने डेरे की तरफ, रंगा पहलवान छोड़ने आया हमको बाहर तक, नमस्कार हुई और फिर हम वापिस चल पड़े!
औघड़ दीनानाथ! अब इस से मिलना था! और ये सियालदाह में था, अर्थात अब वापिस सियालदह जाना था उस से मिलने के लिए, जहां का पता था वो जगह काफी जंगल जैसी थी, वहाँ क्रियाएँ आदि हुआ करती थीं, साधारण लोग वहाँ नहीं जा सकते थे, काहिर हमको तो जाना ही था, बिलसा और रंगा दोनों ही कड़ी से बाहर थे अब, और वो लड़की भी! अब फिर से थकाऊ यात्रा करनी थी! तीन सौ किलोमीटर से अधिक की यात्रा, पूरा दिन लग जाना था! पर क्या करें, जाना तो था ही!
तो मित्रो, हम तीनों निकल पड़े वहाँ से अगले दिन सुबह, नाश्ता कर लिया था, भोजन बाद में कहीं करना था, हमने बस पकड़ी और निकल दिए! हिलते-डुलते, ऊंघते-जागते आखिर रात को सियालदह पहुँच गए! जाते ही अपने अपने बिस्तर में घुस गए, थकावट के मारे चूर चूर हो गए थे, लेटे हुए भी ऐसा लग रहा था जैसे बस में ही बैठे हैं! फिर भी, नींद आ ही गयी! हम सो गए!
जब सुबह उठे तो सुबह के आठ बजे थे, शर्मा जी जाग चुके थे और कक्ष में नहीं थे, छगन दोहरा हुआ पड़ा था अपने बिस्तर में! मैं भी उठा और दातुन की, फिर स्नान करके आया और फिर अपने बिस्तर पर बैठ आज्ञा, छगन को जगाया और छगन नमस्ते कर बाहर चला गया! अब शर्मा जी आ गए, वे नहा-धो चुके थे पहले ही!
"कहाँ घूम आये?" मैंने पूछा,
"दूध पीने गया था" वे बोले,
'वाह! राघव मिला?" मैंने पूछा,
"हाँ, उसी ने प्रबंध किया" वे बोले,
"बढ़िया है" मैंने कहा,
"आप चलिए?" उन्होंने पूछा,
"यहीं आ जाएगा राघव अभी" मैंने कहा,
"हाँ, ये तो है" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"अच्छा गुरु जी?" उन्होंने कहा,
"हाँ?" मैंने कहा,
"कहाँ जाना है आज?" वे बोले,
"है यहाँ से कोई बीस किलोमीटर" मैंने कहा,
"कब चलना है?" वे बोले,
"चलते हैं कोई ग्यारह बजे" मैंने कहा,
"ठीक है" वे बोले,
तभी एक सहायक आया, लोटा लाया, लोटे में दूध और साथ में एक गिलास, साथ में रस्क! मैंने पीना आरम्भ किया!
"दूध बढ़िया है" मैंने कहा,
"गाय का है जी" वे बोले,
'वाह!" वे बोले,
"अब शहर में ऐसा दूध कहाँ!" मैंने कहा,
"हाँ जी!" वे बोले,
मैंने दूध समाप्त किया!
"शर्मा जी?' मैंने कहा,
"जी?" वे बोले,
"अभी थोड़ी देर बाद चलते हैं बाहर, मुझे एक महिला से मिलना है" मैंने कहा,
"कौन?" वे बोले,
"श्रद्धा" मैंने कहा,
"समझ गया" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"उचित है" वे बोले,
श्रद्धा वहाँ रेलवे विभाग में कार्यरत थीं, उनसे मिलने जाना था, मेरे पुराने जानकारों में से एक हैं वे!
फिर कुछ देर बाद!
"चलें?" मैंने पूछा,
"चलिए" मैंने कहा,
और हम दोनों फिर निकल पड़े श्रद्धा से मिलने के लिए!
उनके घर!
हम श्रद्धा जी के घर पहुंचे, भव्य और विनम्र स्वागत हुआ, मुझे दिल्ली की वापसी कि भी टिकट करानी थी, सो चाय आदि पी कर और ब्यौरा देकर हम वापिस आ गए यहाँ से, जब वापिस आये तो छगन वहीँ मिला हमसे, अब हमको दीनानाथ औघड़ के पास जाना था, अतः एक फटफटी सेवा लेकर उसमे बैठकर हम पहुँच गए दीनानाथ के ठिय़े पर, बाहर कुछ लोग खड़े थे, जैसे कोई तैयारी चल रही हो, किसी आयोजन की! पता चला ये एक बाबा नेतराम का आश्रम है और औघड़ दीनानाथ आजकल यही शरण लिए हुए हैं! हम अंदर गए, छगन रास्ता बनाता संचालिका के पास पहुंचा, और दीनानाथ औघड़ के बारे में मालूमात की, एक सहायक हमको दीनानाथ के कक्ष तक ले गया और हमने कक्ष में प्रवेश किया, अंदर दीनानाथ कौन स था पता नहीं था, पता करने पर पता चल गया, वो कोई पचास बरस का औघड़ रहा होगा, दरम्याना क़द था उसका, लम्बी-लम्बी काली सफ़ेद दाढ़ी थी और शरीर का कोई अंग ऐसा नहीं था जो भस्मीभूत ना हो! गले में और भुजाओं में तांत्रिक आभूषण सुसज्जित थे उसके!
"आइये बैठिये" वो बोला,
हम बैठ गए!
"कहिये, क्या काम है?" उसने पूछा,
"पद्मा जोगा, उसी के बारे में बात करनी है" मैंने कहा,
वो ना तो चौंका और ना ही चेहरे के भाव बदले उसके! हाँ, कुछ पल शांत हुआ और अपने चेले-चपाटों को उसने बाहर भेज दिया,
"क्या बात करनी है उसके बारे में?" उसने पूछा,
"वो गायब हो गयी अचानक से, क्या आपको कुछ मालूम है?'' मैंने पूछा,
वो शांत हुआ!
कुछ देर दाढ़ी पर हाथ फिराया!
"बला!" वो बोला,
"बला?" मैंने हैरत से पूछा,
"हाँ बला!" वो बोला,
"कैसे?" मैंने पूछा,
"वो लिबो सिक्का, वही बला" उसने कहा,
"अर्थात?" मैंने पूछा,
"हाँ, उसी की वजह से वो गायब हुई होगी, खबर तो ये हर जगह थी" वो बोला,'
"हुई होगी?" मैंने पूछा,
"हाँ" वो बोला,
"आपने वो सिक्का देखा था?" मैंने पूछा,
"हाँ" वो बोला,
"हम्म" मैंने कहा,
और मैं अब अधर में था!
"किसको जानकारी थी?" मैंने पूछा,
"नुकरा नुकरा पर" उसने कहा,
अर्थात नुक्कड़ नुक्कड़ पर!
"आपके हिसाब से क्या हुआ होगा?" मैंने पूछा,
"मार दिया होगा, गाड़ दिया होगा कहीं किसी ने?" उसने भौंहे उचकाते हुए कहा,
"और वो खुद कहीं चली गयी हो तो?" मैंने पूछा,
"हो सकता है" वो बोला,
अब तक चाय आ गयी, पीतल के कपों में! हमने चाय पीनी आरम्भ की,
"आपने 'खोज' नहीं की उसकी?" मैंने पूछा,
"क्या ज़रुरत?" उसने मेरी बात काट दी!
अब मामला और गम्भीर!
दीनानाथ का बताने का लहज़ा बहुत रूखा था, उसने ये दिखाया था कि वो क्या जाने क्या हुआ पद्मा जोगन का! ये बात मुझे अच्छी नहीं लगी थी, अब मेरा लहजा भी उसी की तरह हो गया!
"देख लगा लेते तो 'खोज' हो जाती" मैंने कहा,
"मैंने बताया नहीं? क्यों?" उसने मुझे घूर के कहा,
"इसलिए कि कम से कम वो आज ज़िंदा होती" मैंने कहा,
"और फिर और मुसीबत पैदा किया करती" उसने कहा,
"नहीं, आवश्यक नहीं ये" उसने कहा,
खैर, अब ये स्पष्ट हो ही गया कि दीनानाथ के हृदय में कोई जगह नहीं पद्मा जोगन के लिए, चाहे वो जिए या मरे!
"ठीक है, कोई बात नहीं" मैंने कहा,
उसने हाथ जोड़े,
"चलता हूँ" मैंने कहा,
"अब आप लगा लो देख" उसने कहा,
व्यंग्य किया,
"हाँ, वो तो लगाऊंगा ही" मैंने कहा,
"पता चल जाए तो मुझे भी बता देना" उसने कहा,
"हाँ" मैंने कहा,
अब मैं वहाँ से निकला, मुंह का स्वाद कड़वा कर दिया था उसके व्यवहार ने, अब देख लगानी ही थी मुझे! अन्य कोई रास्ता नहीं था, खोज ज़रूरी ही थी! मैंने पद्मा जोगन के रहस्य से पर्दा उठाना चाहता था, चाहे किसी को कोई फ़र्क़ पड़े या नहीं परन्तु मुझे उत्सुकता थी जहां एक तरफ वहाँ निजी चाह भी थी!
अब हम वहाँ से वापिस आये, मैं अपने स्थान पर पहुंचा, मैंने छगन से किसी जगह के बारे में पूछा, उसने हामी भर ली, जगह का प्रबंध हो गया,
अगली दोपहर मैं छगन के साथ उसके स्थान पर पहुँच और एक खाली स्थान पर कुछ सामग्रिया आहूत कर मैंने देख लगायी, पहली देख भम्मा चुड़ैल की थी, वो खाली हाथ आयी, दूसरी देख वाचाल की, वो भी खाली हाथ आया, तीसरी देख कारिंदे की और वो भी बेकार! अब निश्चित था कोई अनहोनी घटी है पद्मा जोगन के साथ, अब मेरे पास देख थी एक ख़ास, शाह साहब भिश्ती वाले! मैंने शाह साहब का रुक्का पढ़ा, एक पेड़ के तने में एक चौकोर खाना छील और उसमे काजल भर दिया, अब दरख़्त को पाक कर मैंने शाह साहब की देख लगायी, पहले एक रास्ता दिखा, उस रास्ते पर बुहारी करने वाला आया, फिर एक भिश्ती आया, पानी छिड़क कर जगह साफ़ की, फिर एक तखत बिछाया गया, और उस पर क़ाज़ी साहब बैठे, शाह साहब, उनको पद्मा जोगन के बारे में पूछा गया और उनके नेमत और मेहरबानी से कहानी आगे बढ़ी, तीन-चार मिनट में ही कहानी पता चल गयी, मैंने शाह साहब का शक्रिया किया और फिर पर्दा ढाँपने के लिए अपनी पीठ उनकी तरफ कर ली! शाह साहब की सवारी चली गयी! और मेरे हाथ मेरा सवाल का उत्तर लग गया!
मैं वापिस आया वहाँ से, छगन और शर्मा जी वहीँ बैठे था,
"काढ़ लिया?" छगन ने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"खूब!" वो बोला
"हाँ" मैंने कहा,
"हत्या हुई उसकी?" उसने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
"फिर?" उसने पूछा,
"बता दूंगा" मैंने कहा,
"जी" वो बोला.
अब हम वहाँ से अपने स्थान के लिए निकल पड़े!
हम अपने स्थान पहुंचे, छगन रास्ते में ही उतर गया था किसी के पास जाने के लिए,
"क्या हुआ था?" शर्मा जी ने पूछा,
"जो कुछ हुआ, मुझे अभी तक विश्वास नहीं" मैंने कहा,
"मतलब?" उन्होंने उत्सुकता से पूछा,
"पद्मा जोगन ने जलसमाधि ली थी" मैंने कहा,
"कहाँ?'' उन्होंने पूछा,
"अंजन ताल में" मैंने कहा,
"वहाँ क्यों?" उन्होंने पूछा,
"पता नहीं" मैंने बताया,
"लेकिन समाधि क्यों?" उन्होंने पूछा,
"ये भी नहीं पता" मैंने कहा,
"ओह" वो बोले,
मैं चुप रहा,
"ये अंजन ताल कहाँ है?" उन्होंने पूछा,
"वहीँ, एक सामान्य सा ताल है" मैंने कहा,
"अच्छा" वे बोले,
"इसका मतलब कोई अनहोनी नहीं हुई उसके साथ?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
अब कुछ पल दोनों चुप,
"अब?" वे बोले,
"अब इन सवालों के उत्तर जानने हैं" मैंने कहा,
"कौन देगा उत्तर?" उन्होंने पूछा,
"स्व्यं पद्मा जोगन" मैंने कहा,
"ओह! उठाओगे उसे?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"कब?'' उन्होंने पूछा,
"आज रात" मैंने कहा,
"अच्छा" वे बोले,
"लेकिन पद्मा जोगन की कोई वस्तु आवश्यक नहीं?" पूछा उन्होंने,
"हाई, हम चलते हैं अभी" मैंने कहा,
"ठीक है" वे बोले,
और फिर हम निकल ही लिए पद्मा जोगन के स्थान के लिए, अब इस रहस्य से पर्दा उठना ज़रूरी था, मेरे अंदर उत्सुकता छलांग मारे जा रही थी!
करीब एक घंटे में हम पद्मा जोगन के स्थान पर पहुँच गए, संचालक से मिले, उसने हमारी मदद करने का ना केवल आश्वासन ही दिया बल्कि मदद भी की, उसने हमको पद्मा जोगन के कक्ष की चाबी दे दी, कक्ष अभी तक बंद था, हमने कक्ष खोला और मैं पिछली मुलाक़ात में पहुँच गया, सुन्दर औरत थी वो, सीधी-सादी, व्यवहार-कुशल, अपने में ही सिमटे रहने वाली थी वो जोगन! मुझे वो अच्छी लगती थी अपनी सादगी से, अपने मित्रवत व्यवहार से, भोज-कला से, खाना बहुत लज़ीज़ बनाती थी! बहुत अच्छी तरह से परोस कर खिलाती थी, मेरे ह्रदय में उसके प्रति सम्मान था, जैसे कि एक बड़ी बहन के प्रति होता है!
अंदर उसके वस्त्र टंगे थे, सफ़ेद और पीले वस्त्र! कुछ बैग से और कुछ कुर्सियां और मूढ़े! मैंने एक जगह से एक अंगोछा ले लिया, ये उसका ही था, अक्सर अपने पास रखती थी, गुलाबी रंग का अंगोछा, संचालक को कोई आपत्ति नहीं हुई! हमने धन्यवाद किया और वहाँ से वापिस हुए!
अपने स्थान पहुंचे,
अपने स्थान पहुँच कर मैंने रणनीति बनानी आरम्भ की, क्या किया जाए और कैसे किया जाए, किस प्रकार जांच को आगे बढ़ाया जाए आदि आदि, दरअसल मुझे पद्मा जोगन की रूह को खोजना था, वही बता सकती थी असल कहानी, एक एक कारण का खुलासा हो सकता था उस से, और मेरी उत्सुकता भी शांत हो सकती थी! मैंने उसी शाम अपने एक जानकार हनुमान सिंह से संपर्क किया और शमशान में एक स्थान माँगा, उसने घंटे भर के बाद बात करने को कहा, उम्मीद थी कि स्थान मिल जाएगा, तभी शर्मा जी ने कुछ सवाल पूछे,
"आज पता कर लेंगे आप?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, शत प्रतिशत" मैंने कहा,
"ठीक है" वे बोले,
"मुझे कारण जानना है" मैंने कहा,
"हाँ, सही कहा आपने" वे बोले,
घंटा बीता, हनुमान सिंह से बात हुई, उस रात्रि कोई स्थान नहीं उपलब्ध था, स्थान अगली रात को ही उपलब्ध हो सकता था, अब अन्य कोई चारा भी नहीं था, इंतज़ार करना ही पड़ता, तो हनुमान सिंह को अगली रात का प्रबंध करने के लिए कह दिया,
मन में कई चिंताएं उमड़-घुमड़ रही थीं, जैसे कोई अकेली मछली सागर का ओरछोर देखने की अभिलाषा में दिन रात, अनवरत तैरे जा रही हो, भूखी प्यासी!
"शर्मा जी, आज प्रबंध कीजिये मदिरा का, आप संचालक से कह के ले आइये, साथ में खाने के लिए भी कह दीजिये, मैं कक्ष में जा रहा हूँ" मैंने कहा,
"जी, अभी कहता हूँ" वे बोले,
अब वो अपनी राह और मैं कक्ष की राह,
मन में बौछार बिखर रही थीं चिंताओं की, धुन्गार फैली थी पूरे मस्तिष्क में! काऱण क्या और कारण क्या, बस इस ने जैसे मेरी जान लेने की ठान राखी थी!
शर्मा जी ले आये सभी सामान, मैंने मदद की उनकी, सामान काफी था और ताज़ा बना हुआ था, मछली की ख़ुश्बू ज़बरदस्त थी! मैंने एक बड़ा सा टुकड़ा उठाया और खा लिया, वाक़ई लाजवाब थी!
"कुछ और लाऊं गुरु जी?" उन्होंने पूछा,
"क्या?" मैंने पूछा,
"फलादि?" उन्होंने पूछा,
"नहीं, रहने दो" मैंने कहा,
"जी" वे बोले.
"गुरु जी एक प्रश्न है दिमाग में" उन्होंने पहला पैग बनाते हुए कहा,
"कहिये" मैंने कहा,
"शाह साहब भिश्ती वाले नहीं बताएँगे ये?" उन्होंने पूछा,
"शाह साहब हाज़िर तो कर सकते हैं पद्मा को, लेकिन बुलवा नहीं सकते उसकी गैर-राजी के" मैंने कहा,
"ओह! मैं समझ गया!" वे चौंक गए!
गैर-राजी, यही बोला था मैंने!
"मैं स्व्यं उसको पकड़वाउंगा और पूछूंगा" मैंने कहा,
"ये ठीक है" वे बोले,
अब हमने मदिरा का सम्मान करते हुए, माथे से लगाते हुए, षोडशोपचार करते हुए अपने अपने गले में नीचे उतार लिया!
"अलख-निरंजन! दुःख हो भंजन" दोनों ने एक साथ कहा!
फिर दूसरा पैग!
"अलख-निरंजन! खप्परवाली महा-खंजन!" दोनों ने एक साथ कहा!
फिर तीसरा पैग!
"अलख निरंजन! नयन लगा मदिरा का अंजन!"दोनों ने एक साथ कहा,
तीन भोग सम्पूर्ण हुए!
"कल आप सफल हो जाओ, फिर देखते हैं क्या करना है" वे बोले,
"हाँ" मैंने गर्दन हिला कर कहा,
"पता चल जाए तो सुकून हो" वे बोले,
"बिलकुल" मैंने कहा,
फिर पैग बनाया गया, मैंने मछली साफ़ कर दी थी, वे उठे और बाहर गए, और ले आये!
हमने फिर से दौर आरम्भ किया!
"पद्मा जोगन के बारे में कोई और जानकारी?" उन्होंने पूछा,
"पद्मा जोगन की एक बहन थी, अब जीवित नहीं है, वो दुर्गापुर में बसी थी, पद्मा सारा सभी कुछ उसको भेज देती थी, मुझे उसका पता नहीं है कि कहाँ है" मैंने कहा,
"ओह! तो आपको कैसे पता कि वो जीवित नहीं?" उन्होंने पूछा,
"स्वयं पद्मा ने ही बताया था, वो बड़ी बहन थी उसकी" मैंने कहा,
"बड़े दुर्भाग्य की बात है"
"हाँ, भाई आदि और कोई नहीं" मैंने बताया
उस रात हम काफी देर तक बातचीत करते रहे, या यूँ कहें कि पेंच निकालते और डालते रहे, कई जगह रुके और फिर आगे चले, फिर वापिस मुडे और फिर आगे चले! यही करते रहे, जब मदिरा का मद हावी हुआ तो जस के तस पसर गए बिस्तर पर, हाँ मैं कुछ बड़बड़ाता रहा रात भर, शायद पद्मा जोगन से की हुई कुछ बातें थीं!
और जब सुबह मेरी नींद खुली तो सर भन्ना रहा था! घड़ी देखी तो सुबह के छह बजे थे, सर पकड़ कर मैं चला स्नानालय और स्नान किया, थोड़ी राहत मिली, स्नान से फारिग हुआ तो कमरे में आया, शर्मा जी भी उठ गए थे, नमस्कार हुई, मौन नमस्कार, और वे फिर स्नान करने के लिए स्नानघर चले गए, वे भी स्नान कर आये और अब हम दोनों बैठ गए, तभी सहायक आ गया, चाय लेकर आया था, साथ में फैन थे , करारे फैन, दो शर्मा जी ने खाये और तीन मैंने, चाय का मजा आ गया!
"सर में दर्द है, आपके भी है क्या?" मैंने पूछा,
"हाँ, दर्द तो है" वे बोले,
"अभी चलते हैं बाहर, यहाँ बाहर अर्जुन के पेड़ हैं उसकी छाल चबाते हैं, दर्द ठीक हो जाएगा,
"ठीक है" वे बोले,
अब हम बाहर चले और एक छोटे अर्जुन की पेड़ की छाल निकाली और फिर चबा ली, अब आधे घंटे में दर्द ख़तम हो जाना था!
"आज हनुमान सिंह खुद बात करेगा या उसको फ़ोन करना पड़ेगा?" उन्होंने पूछा,
"स्व्यं बात करेगा वो" मैंने कहा,
"ठीक है" वे बोले,
तभी मैंने सामने देखा, एक बिल्ली अपने बच्चों को दूध पिला रही थी, उसकी निगाहें हम पर ही थीं, मैंने हाथ से शर्मा जी को रोका, कार्य-सिद्ध होने का ये शकुन था! अर्थात आज हमारी नैय्या पार लग जाने वाली थी! मांसाहारी पशु यदि दुग्धपान कर रहे हों तो कार्य सिद्ध होता है और यदि शाकाहारी पशु हों तो कार्य सिद्ध नहीं होता! ऐसा यहाँ लिखने से मेरा अभिप्रायः ये नहीं कि अंधविश्वास को मैं बढ़ावा दूँ, परन्तु मैं शकुन-शास्त्र से ही चलता हूँ और ये मेरे अनुभूत हैं, तभी मैंने यहाँ ऐसा लिखा है!
"चलिए वापिस" मैंने कहा,
"जी" वे बोले,
और तभी 
हनुमान सिंह का फ़ोन आ गया, आज भूमि मिल जानी थी, अतः मैं आज सामग्री इत्यादि खरीद सकता था! ये भी अच्छा समाचार था!
"आज शाम को सामान खरीद लेते हैं" मैंने कहा,
"जी" वे बोले,
अब वापिस आ गए कक्ष में!
मैं आते ही लेट गया, वे भी लेट गए, सहायक आया और अपने साथ किसी को ले आया, ये स्वरूपानंद थे, यहाँ के एक पुजारी, मैं खड़ा हुआ, नमस्कार की, वे बुज़ुर्ग थे,
"जी?" मैंने कहा,
"दिल्ली से आये हैं आप?" उन्होंने पूछा,
"जी" मैंने कहा,
"पद्मा जोगन के लिए आये हैं?" उन्होंने पूछा,
बात हैरान कर देने वाली थी!
"हाँ जी" मैंने कहा,
"मुझे छगन ने बताया" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
"मैं उसका ताऊ हूँ" उसने कहा,
मेरे होश उड़े!
"पद्मा ने कभी नहीं बताया?" मैंने पूछा,
"वो मुझसे बात नहीं करती थी" वे बोले,
"किसलिए?" मैंने पूछा,
"उसके बाप की, यानि मेरे छोटे भाई की भूमि के लेन देन के कारण" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
"बस, यहीं से फटाव हो गया, मेरे लड़के आवारा निकले, सब बेच दिया" वे बोले,
"ओह" मैंने कहा,
"आपको पता चला कुछ??" उन्होंने पूछा,
"कोई सटीक नहीं" मैंने कहा,
"आप पता कीजिये" वे बोले,
"कर रहा हूँ" मैंने कहा,
"एक एहसान करेंगे?" उन्होंने पूछा,
मैं विस्मित!
"कैसा एहसान?" मैंने पूछा,
"मुझे बता दीजियेगा जब आप जान जाएँ" वे बोले,
"ज़रूर" मैंने कहा,
सहायक इस बीच चाय ले आया और हम चाय पीने लगे!
चाय समाप्त की और स्वरूपानंद को विदा किया और अब कुछ देर लेटे हम! आराम करने के लिए, सर का दर्द समाप्त हो चुका था, जैसे था ही नहीं!
"गुरु जी?" शर्मा जी बोले,
"हाँ?" मैंने पूछा,
"खबर करेंगे क्या इनको?" उन्होंने पूछा,
"कर देंगे" मैंने आँखें बंद करते हुए कहा,
"केवल उत्सुकता है इनको" वे बोले,
"हाँ, लेकिन खून, खून के लिए भागता है" मैंने कहा,
"ये तो है" वे बोले,
कुछ और इधर-उधर की बातें और फिर झपकी!
आँख खुली तो एक बजा था!
"उठिए" मैंने सोते हुए शर्मा जी को उठाया 
"क्या बजा?" उन्होंने अचकचाते हुए पूछा,
"एक बज गया" मैंने कहा,
"बड़ी जल्दी?" वे उठे हुए बोले,
"हाँ!" मैंने हँसते हुए कहा,
वे उठ गए! आँखें मलते हुए!
"चलिए, भोजन किया जाए" मैंने कहा,
"अभी कहता हूँ" वे उठे और बाहर चले गए, फिर थोड़ी देर में आ गए,
"कह दिया?" मैंने पूछा,
"हाँ" वे बोले,
और तभी सहायक आ गया, आलू की सब्जी और गरम गरम पूरियां! साथ में सलाद और दही! मजा आ गया! पेट में भूख बेलगाम हो गयी!
खूब मजे से खाया, और भी मंगवाया! और हुए फारिग! लम्बी लम्बी डकारों ने' स्थान रिक्त नहीं' की मुनादी कर दी!
"आइये" मैंने कहा,
"कहाँ" उन्होंने पूछा,
"स्वरूपानंद के पास" मैंने कहा,
"किसलिए?" उन्होंने उठते हुए पूछा,
"देख तो लें?" मैंने कहा,
"चलिए" वे बोले,
हम बाहर आये, स्वरूपानंद का कक्ष पूछा और चल दिए वहाँ, वो नहीं मिले वहाँ, ढूँढा भी लेकिन नहीं थे, पता चला कहीं गए हैं!
फिर समय गुजरा, दिन ने कर्त्तव्य पूर्ण किया और संध्या ने स्थान लिया, अब हम बाहर चले, सामग्री लेने, बाज़ार पहुंचे, मदिर, सामग्री आदि ले और सवारो गाड़ी पकड़ कर चल दिए हनुमान सिंह के पास!
वहाँ पहुंचे, हनुमान सिंह से बात हुई, गले लग के मिला हमसे, अक्सर दिल्ली आता रहता है, सो मेरे पास ही आता है!
"हो गया प्रबंध?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" वो बोला,
"धन्यवाद!" मैंने कहा,
"क्या ज़रुरत!: उसने हंस के कहा,
हम बाहर चल पड़े, अच्छा ख़ासा बड़ा शमशान था, कई चिताएं जल रही थीं वहाँ! दहक रही थी!
"ठीक है" मैंने कहा,
"सामान है?" उसने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"ठीक" उसने कहा और सामान लिया, मैं एक बोतल उसके लिए भी ले आया था!
"ठीक है, आप स्नान कीजिये" उसने कहा,
"ठीक है" मैंने कहा,
"आप, शर्मा जी, वहाँ कक्ष में रहना" मैंने कक्ष दिखाया,
"जी" वे बोले,
अब मैं स्नान करने चला गया!
वापिस आया तो सारा सामान उठाया, हनुमान सिंह ने मुझे एक चिता दिखायी, ये एक जवान चिता थी, जवाब देह की चिता!
"ठीक है" मैंने कहा,
अब मैंने अपना बैग खोला और आवश्यक सामान निकाला, और भस्म आदि सामने रख ली!
अब!
अब मैंने भस्म स्नान किया!
तंत्राभूषण धारण किये!
लंगोट खोल दी!
आसान बिछाया!
और तत्पर हुआ!
क्रिया हेतु!
भस्म-स्नान किया सबसे पहले!
केश बांधे!
रक्त से टीका लगाया माथे पर!
माथे पर अंगूठे से, काजल ले, टीका लगाया!
अपना त्रिशूल निकाला और बाएं गाड़ा आसान के!
चिमटा लिया और दायें रखा!
गुरु-वंदना की!
अघोर-पुरुष से सफलता व उद्देश्य पॄति केतु कामना की!
शक्ति को नमन किया!
दिक्पालों की वंदना की!
प्रथम आसान भूमि को चूमा!
पिता रुपी आकाश को नमन किया! 
आठों कोणों को बाँधा!
और!
फिर, उस चिता के पाँव पर जाकर नमन किया!
उसके सर पर शीश नवाया!
तीन परिक्रमा की!
और, अपने आसान पर विराजमान हो गया! चिमटा खड़का कर समस्त भूत-प्रेतों को अपनी उपस्थिति दर्ज़ करायी! फिर दो थाल निकाले, उनमे मांस सजाया, कुछ फूल आदि भी, काली छिद्रित कौड़ियां सजायीं! कपाल निकाला, उसकी खोपड़ी पर एक दिया जलाया! और कपाल-कटोरा निकाला! उसमे मदिरा परोसी और अघोर-पुरुष को समर्पित कर कंठ से नीचे उतार लिया!
महानाद किया!
सर्वदिशा अटटहास किया!
और फिर मैंने पद्मा का आह्वान किया! उसके आत्मा का आह्वान! मंत्र पढ़े, मंत्र तीक्ष्ण हुए, और तीक्ष्ण, महातीक्ष्ण, रज शक्ति के अमोघ मंत्र!
परन्तु?
एक पत्ता भी न खड़का!
ऐसा क्यों?
क्यों ऐसा?"
उफ्फ्फ्फ़! नहीं! ये नहीं हो सकता! कदापि नहीं हो सकता! नहीं औघड़! ये तू क्या सोच रहा है? अनाप शनाप? नहीं ऐसा हरगिज़ नहीं सोचना! नहीं तो तेरा त्रिशूल तेरे हलक से होत्ता हुआ गुद्दी से बाहर!
लेकिन!
सोचूं कैसे ना ओ औंधी खोपड़ी???
कहाँ है पद्मा??
पद्मा की आत्मा??
है तो ला?
ला मेरे सामने?
खींच के क्यों नहीं लाता?"
मुक्त तो नहीं हुई होगी!
हा! हा! हा! हा!
मुक्त कैसे??' भला कैसे ओ औंधी खोपड़ी??
कैसे??
जवाब दे??
तू?? तू जवाब तो दे ना!
कहाँ है?? कहाँ है????
मुझे बताने चला था!
हाँ!
मदिरा! मदिरा! प्यास! प्यास!
कंठ जल रहा है!
मदिरा!
मदिरा!
फिर से कपाल-कटोरा भरा और कंठ से नीचे!
हाँ!
अब ठंडा हुआ कंठ!
सुन ओ औंधी खोपड़ी?
कहाँ है पद्मा की रूह??
ला उसको सामने??
हा! हा! हा! हा! हा! हा!
मैंने सही था! ये औघड़ सही था!
वो हो गयी क़ैद!
किसी ने कर लिया उसको क़ैद!
सुन बे औंधी खोपड़ी!
क़ैद हो गयी वो!
जाने कहाँ!
जाने किसने?
है ना??
लेकिन!
पता चल जाएगा!
चल जाएगा पता!
अभी! अभी!
मैंने त्रिशूल लिया और लहराया!
ये भाषा है शमशान की मित्रगण! मसान से वार्तालाप!
वो क़ैद थी! लेकिन कहाँ? किसके पास? अब सिपाही रवाना करना था, एक बात तो तय थी, जिसने क़ैद किया था वो भी खिलाड़ी थी, अब यहाँ दो वजह थीं, या तो किसी ने केवल रूह को पकड़ा था, या कुछ कुबुलवाने के लिए, जैसे कि वो सिक्का कहाँ है! इन्ही प्रश्नों का उत्तर खंगालना था! और यही देखते हुए मुझे ये तय करना था कि किसे तलाश में भेजा जाए, जो उसका पता भी निकाल ले और खुद को क़ैद का भय भी न हो! ये काम कोई महाप्रेत या चुडैल नहीं कर सकती थी, इसके लिए मुझे अपना खबीस, तातार खबीस भेजना था, अतः मैंने ये निसहाय किया कि अब तातार ही वहाँ जाएगा, और मैंने तभी तातार का शाही-रुक्का पढ़ा!
हवा पर बैठा हुआ तातार हाज़िर हुआ! उस समय मई चिता से दूर पहुँच गया था, शमशान में कीलित भूमि पर खबीस हाज़िर नहीं होते!
मैंने तातार को उसका उद्देश्य बताया, उसको उसका अंगोछा दिया, उसने गंध ली और अपने कड़े टकराता हुआ मेरा सिपाही हवा में सीढ़ियां चढ़ रवाना हो गया! मई वहीँ बैठ गया!
कुछ समय बीता,
थोड़ा और,
और फिर!
हाज़िर हुआ! जैसे हवा की रानी ने हाथ से रखा हो उसको मेरे सामने!
अब उसने बोलना शुरू किया! मैंने सुना और मेरी त्यौरियां चढ़ती चली गयीं! उसके अनुसार एक औघड़ रिपुष नाथ के पास उसकी आत्मा थी, काले रंग के घड़े में बंद! और वो औघड़ वहाँ से बहुत दूर असम के कोकराझार में था उस समय! और हाँ, रिपुष के पास कोई भी सिक्का नहीं था! 
मई खुश हुआ, तातार को मैंने भोग दिया और मैंने उसके हाथ पर हाथ रखते हुए उसको शुक्रिया कहा, तातार मुस्कुराया और झम्म से लोप हुआ!
अब मैं उठा वहाँ से, चिता-नमन किया, गुरु-नमन एवं अघोर-नमन किया और वापिस आ गया! स्नान किया और सामान्य हुआ, सामान आदि बाँध लिया, रख लिया, शत्रु और उसकी क़ैदगाह मुझे पता थी अब!
मैं कक्ष में आया, नशे में झूमता हुआ! और वहीँ लेट गया! शर्मा जी और हनुमान सिंह समझ गए कि क्रिया पूर्ण हो गयी, वे दोनों उठे और कक्ष से बाहर चले गए! वे भी सो गए और मैं भी!
सुबह हुई!
शर्मा जी मेरे पास आये!
"नमस्कार" वे बोले,
"नमस्कार" मैंने उत्तर दिया,
"सफल हुए?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"पद्मा मिली?" उन्होंने उत्सुकता से पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
वो चौंके!
"नहीं?" उन्होंने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
"फिर सफल कैसे?" उन्होंने पूछा,
"वो क़ैद है" मैंने अब आँखों में आँखें डाल कर देखा और कहा,
"क़ैद?" अब जैसे फटे वो!
"हाँ!'' मैंने कहा,
"ओह!" उनके मुंह से निकल,
"अब?" वो बोले,
"हमको जाना होगा,
"कब?", उन्होंने पूछा,
"कल ही?" मैंने कहा,
"कहाँ?",उन्होंने पूछा
"असम",मैंने कहा,
अब कुछ पल चुप्पी!
"ठीक है",उन्होंने पूछा
"अब चलते हैं यहाँ से",मैंने कहा,
"जी",उन्होंने पूछा
इतने में हनुमान सिंह भी आ गया, चाय लेकर! हमने चाय पी!
"सही निबटा सब?" उसने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"चलो" उसने कहा,
"अब हम चलते हैं" मैंने कहा,
"जी" वो बोला,
और हम वहाँ से निकल पड़े!
अब मंजिल दूर थी, हाँ एक बात और, रंगा पहलवान, बिलसा और वो दीनानाथ अब सब संदेह के दायरे से मुक्त थे!
अगला दिन,
हमे वहाँ से अब गाड़ी पकड़ी असम के लिए, आरक्षण श्रद्धा जी से करवा लिया था, सौभाग्य से हो भी गया, और हम गाड़ी में बैठ गए, हमको करीब ग्यारह घंटे लगने थे,
आराम से पसर गए अपने अपने बर्थ पर!
और साहब!
जब पहुंचे वहा तो शरीर का कोई अंग ऐसा नहीं था जो गालियां न दे रहा हो, कुछ तो मौसम, कुछ लोग ऐसे और कुछ भोजन! हालत खराब!
खैर,
मैं अपने जान-पहचान के एक डेरे पर गया, डबरा बाबा का डेरा! डबरा बाबा को मेरे दादा श्री का शिष्यत्व प्राप्त है! हम वहीं ठहरे! ये डेरा अपनी काम-सुंदरियों के लिए विख्यात है तंत्र-जगत में! स्व्यं डबरा बाबा के पास नौ सर्प अथवा नाग-कन्याएं हैं!
"पहुँच गए आखिर" मैंने कहा,
"हाँ जी" वे बोले,
कक्ष काफी बड़ा था, दो बिस्तर बिछे थे भूमि पर, मैं तो जा पसरा! मुझे पसरे देखा शर्मा जी भी पसर गए!
"आज आराम करते हैं, कल निकलते हैं वहाँ रिपुष के पास" मैंने कहा
"हां" वे बोले,
हम नहाये धोये, भोजन किया और सो गए, शेष कुछ नहीं था करने के लिए!
अगले दिन प्रातः!
मैं बाबा डबरा के पास गया, वे पूजन से उठे ही थे,
"कैसे हैं?" मैंने पूछा,
"ठीक" वे बोले और हमको बिठा लिया उन्होंने, उनकी आयु आज इक्यानवें साल है,
"बाबा, आप किसी रिपुष को जानते हैं?" मैंने पूछा,
"रिपुष?" उन्होंने सर उठा के पूछा,
"हाँ जी" मैंने कहा,
"हाँ" वे बोले,
मुझे अत्यंत हर्ष हुआ!
"कहाँ रहता है?" मैंने पूछा,
"बाबा दम्मो के ठिकाने पर" उन्होंने कहा,
"दम्मो? वही जिसे नौ-लाहिता प्राप्त हैं?" मुझे अचम्भा हुआ सो मैंने पूछा,
"हाँ" वे बोले,
अब काम और हुआ मुश्किल!
"उसका ही शिष्य है ये?" मैंने पूछा,
"हाँ! सबे जवान" वे बोले,
"अर्थात?" मैंने पूछा,
"बाइस वर्ष आयु है उसकी केवल" वे बोले,
"बाइस वर्ष? केवल?" मैंने हैरान हो कर पूछा,
"हाँ" वे बोले,
अब मैं चुप!
"क्या काम है उस से?'' बाबा ने पूछा,
"कुछ खरीद का काम है" मैंने कूटभाषा का प्रयोग किया,
"अच्छा" वे बोले,
"स्वभाव कैसा है?" मैंने पूछा,
"बदतमीज़ है" उन्होंने बता दिया,
"ओह" मेरे मुंह से निकला,
कुछ पल शान्ति!
"संभल के रहना" वे बोले,
"किस से?" मैंने पूछा,
वो चुप!
"किस से बाबा?" मैंने ज़ोर देकर पूछा,
"दम्मो से" वे बोले,
उन्होंने छोटे से अलफ़ाज़ से सबकुछ समझा दिया था!
"ज़रूर" मैंने कहा,
शान्ति, कुछ पल!
"और रिपुष?" मैंने फिर पूछा,
"उसके ऊपर दम्मो का हाथ है" वे बोले,
"समझ गया!" वे बोले,
मैं भी खोया और बाबा भी!
"चले जाओ" वे बोले,
कुछ सोच कर!
"नहीं बाबा" मैंने कहा.
"समझ लो" वे बोले,
"समझ गया!" मैंने कहा,
अब हम उठे वहाँ से, बाबा डबरा ने बहुत कुछ बता दिया था, अब मुझे एक घाड़ की आवश्यकता थी, कुछ अत्यंत तीक्ष्ण मंत्र जागृत करने थे! अंशुल-भोग देना था! ये बात मैंने अपने एक जानकार बुल्ला फ़कीर से कही उसने उसी रात को मुझे अपने डेरे पर बुला लिया, मैं जिस समय वहाँ पहुंचा तब रात के सवा नौ बजे थे! बुल्ले फफकीर के पास एक घाड़ था कोई उन्नीस-बीस बरस का, और बारह और औघड़ थे वहाँ, किसी को शीर्षपूजन करना था, किसी को वक्ष और किसी को लिंग पूजन, मुझे उदर पूजन करना था, शक्ति का स्तम्भन करना था, प्राण-रक्षण करना था!
पूजन का समय सवा बार बजे का था, अतः मैं स्नान करने गया, और उसके बाद तांत्रिक-श्रृंगार किया, भस्म-स्नान किया! लिंग-स्थानोपत्ति पूजन किया फिर हगाड़ पूजन आरम्भ हुआ!
मेरा क्रमांक वहाँ ग्यारहवां था अतः मैंने बेसब्री से इंतज़ार किया, षष्ट-मुद्रा में घाड़ जागृत हो गया, और उठकर बैठ गया था!
नशे में चूर!
झूमते हुए, गर्दन हिलाते हुए, आँखें चढ़ी गईं!
और फिर आया मेरा वार!
मैंने घाड़ के उदर का पूजन किया! उसने अपने हाथों से अपने अंडकोष पकडे थे, मैं समझ सकता था कि क्यों!
अब मैंने प्रश्न किये उस से!
"रिपुष का दमन होगा?"
"हाँ" वो बोला,
ओह!
"दम्मो आएगा?" मैंने पूछा,
"हाँ" वो बोला,
ओह!
"क्षति होगी?" मैंने पूछा,
"डबरा वाला जीतेगा" वो बोला!
ओह!
"कुशाल कौन चढ़ेगा?" मैंने पूछा,
"दम्मो" वो बोला,
"मरेगा?" मैंने पूछा,
"नहीं" वो बोला,
"नव-लौहिताएँ?" मैंने पूछा,
"आएँगी" वो बोला,
और फिर धाड़ से उसने अपने गले में रुंधती हुई आवाज़ बाहर निकाली, जैसे कोई कपडा फाड़ा हो!
"भोग लेगा?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
मैंने शराब की बोतल दी उसको!
एक बार में ही बोतल ख़तम!
मैंने अपना चाक़ू निकाला और अपना हाथ काट कर उसको चटा दिया! उसने कूटे की तरह से रक्त पी लिया और तीन बार छींका!
मेरा वार समाप्त!
जानकारी पूर्ण हुई!
मैं अब श्रृंगार मुक्त होने चला गया!
मुक्त हुआ!
स्नान किया!
और वापिस शर्मा जी के पास!
"हो गया पूजन?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"अब चलें" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
अब हम उठे और एक कक्ष में आ गए!
"कल चलना है दम्मो के पास?'' उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"ठीक है" वे बोले और लेट गए!
मैं भी लेट गया!
दारु के भभके आ रहे थे!
सर घूम रहा था! अन नींद का समय था!
हम सो गए!
सुबह उठे!
आठ बजे का वक़्त था!
"उठो?" मैंने शर्मा जी की चादर खींच कर कहा,
अलसाते हुए वे भी उठ गए!
और फिर अगला दिन!
उस दिन सुबह सुबह चाय-नाश्ता करने के बाद हम बाबा डबरा के पास गए, बताने को कि हम दम्मो बाबा के पास जा रहे हैं सुलह करने, हो सकता है मान ही जाए, तकरार या झगड़ा न हो तो ही बढ़िया!
"अच्छा बाबा, हम चलते हैं" मैंने कहा,
"ठीक है, सावधान रहना" वे बोले,
आशीर्वाद दिया और हम चेल अब बाबा दम्मो और उस जवान औघड़ रिपुष के पास!
करीं दो घंटे में पहुंचे हम बाबा दम्मो के स्थान पर, पहाड़ी पर था, काले ध्वज लगे हुए थे, बीच में किनाठे पर एक मंदिर बना था, शक्ति मंदिर! सफ़ेद, शफ्फाफ़ मंदिर! हमने द्वारपाल से बाबा के बारे में पूछा, उसने एक दिशा के बारे में बता दिया, हम वही चल पड़े, बड़ा था ये डेरा, करीब पांच सौ स्त्री-पुरुष तो रहे होंगे! हम आगे बढे, ये रिहाइश का क्षेत्र था, हमने एक सहायक से पूछा, उसने एक कक्ष की तरफ इशारा कर दिया, हम वहीँ चल पड़े,
कक्ष के कपाट खुले थे, अंदर एक मस्त-मलंग सा औघड़ बैठा था, लुंगी और बनियान पहने, लम्बी जटाएँ और लम्बी दाढ़ी मूंछें! आयु कोई सत्तर बरस रही होगी! हम अंदर गए, वहाँ तीन लोग और थे, हाँ, रिपुष नहीं था वहाँ!
"नमस्कार" मैंने कहा,
"हूँ" उसने कहा,
हमको बिठाया उसने, वे तीन अब चुप!
"कहिए?" उसने पूछा,
"आप ही दम्मो बाबा हैं?" मैंने पूछा,
"हाँ, कहिये?" वो बोला,
"आपसे कुछ बात करनी है" मैंने कहा,
वो समझ गया, उसने उन तीनों को हटा दिया वहाँ से!
"बोलिये, कहाँ से आये हो?" उसने पूछा,
"दिल्ली से" मैंने कहा,
"ओह, हाँ, कहिये?" उसने कहा,
"रिपुष आपका ही शिष्य है?" मैंने पूछा,
"हाँ, तो?" उसने त्यौरियां चढ़ा के पूछा,
"रिपुष के पास एक रहन है हमारी" मैंने कहा,
"कैसी रहन?" उसने पूछा,
"पद्मा जोगन" मैंने कहा,
अब वो चौंका!
"हाँ, तो?" उसने पलटा मारा!
"वही चाहिए" मैंने कहा,
"क्यों?" उसने पूछा,
"है कुछ बात" मैंने कहा,
"क्या?" उसने पूछा,
"उसको मुक्त करना है" मैंने कहा,
"किसलिए?" उसने पूछा,
"मेरी बड़ी बहन समान है वो" मैंने कहा,
"तो?" उसने कहा,
"छोड़ दीजिये उसको" मैंने कहा,
"नहीं तो?" सीधे ही काम की बात पर आया,
"आप बुज़ुर्ग हैं सब समझते हैं" मैंने कहा,
और तभी रिपुष आ गया! बाइस वर्ष में क्या खूब शरीर निकाला था उसने हृष्ट-पुष्ट, काली दाढ़ी मूंछें! और अमाल-झमाल के तंत्राभूषण धारण किये हुए!
उसको बिठाया अपने पास दम्मो ने!
"अपनी रहन मांग रहे हैं ये साहब" उसने उपहास सा उड़ाते हुए कही ये बात!
"कौन सी रहन?" उसने पूछा,
"पद्मा" दम्मो ने कहा,
"क्यों?" उसने मुझ से पूछा,
"मेरी बड़ी बहन समान है वो" मैंने कहा,
वो हंसा!
जी तो किया कि हरामज़ादे के हलक में हाथ डाल के आंतें बाहर खींच दूँ!
"अब काहे की बहा?" उसने मजाक उड़ाया,
'आप छोड़ेंगे या नहीं?" मैंने स्पष्ट सा प्रश्न किया,
"नहीं" उसने हंसी में कहा ऐसा!
"क्यों?" मैंने पूछा,
"सिक्का! सिक्का नहीं मालूम तुझे?" उसने अब अपमान करते हुए कहा,
"सिक्के की एक औघड़ को क्या ज़रुरत?" मैंने कहा,
"हूँ!" उसने थूकते हुए कहा वहीँ!
अब विवाद गर्माया!
"इतना अभिमान अच्छा नहीं" मैंने चेताया,
"कैसा भी मान? मैंने पकड़ा है तो मेरा हुआ" उसने कहा,
दम्मो ने उसकी पीठ पर हाथ मारते हुए समर्थन किया!
"तो आप नहीं छोड़ेंगे" मैंने पूछा,
"नहीं" वो बोला,
"सोच लो" मैंने कहा,
"अबे ओ! मेरे स्थान पर मुझे धमकाता है?" उसने गुस्से से कहा,
"मैंने कब धमकाया, मैंने तो समझाया" मैंने कहा,
"नहीं समझना, कहीं तुझे समझाऊं" उसने दम्भ से कहा,
मैं कुछ पल शांत रहा!
"मैं धन्ना शांडिल्य का पोता हूँ" मैंने कहा,
अब कांपा थोडा सा दम्मो! रिपुष तो बालक था, उसे ज्ञात नहीं!
"कौन धन्ना?" रिपुष ने पूछा,
"मै बताता हूँ" बोला दम्मो!
"अलाहबाद का औघड़! कहते हैं, सुना है उसने शक्ति को साक्षात प्रकट किया था और उसने अपने हाथों से खाना बना कर परोसा था, धन्ना की रसोई में!" बोल पड़ा दम्मो!
"ओहो!" रिपुष बोला,
"हाँ" मैंने कहा,
"मैं उसी धन्ना का पोता हूँ" मैंने कहा,
अब सांप सूंघा उनको!
"देखो, मैं आपकी इस रहन को एक वर्ष के बाद छोड़ दूंगा" रिपुष ने कहा,
"नहीं, आज ही" मैंने कहा,
'सम्भव नहीं" उसने कहा,
"सब सम्भव है" मैंने कहा,
"हरगिज़ नहीं" उसने कहा,
"हाँ" मैंने कहा,
अब चुप्पी!
"अब जा यहाँ से" चुटकी मारते हुए बोला रिपुष! मैंने दम्मो को देखा, चेहरे पर संतोष के भाव और होठों पर हंसी!
"जाता हूँ, लेकिन आगाह करना मेरा फ़र्ज़ है" मैंने कहा,
"आगाह?" खड़ा हुआ वो, हम भी खड़े हुए!
"हाँ!" मैंने कहा,
"क्या?" उसने पूछा,
"आज हुई अष्टमी, इस तेरस को द्वन्द होगा! तेरा और मेरा!" मैंने कहा,
"अवश्य!" वो नाच के बोला!
"खुश मत हो!" मैंने कहा,
"अरे तेरे जैसे बहुत देखे मैंने, धुल चटा चुका हूँ मैं" उसने कहा,
"देखे होंगे अवश्य ही, लेकिन मैं अब आया हूँ" मैंने कहा,
"अबे जा धन्ना के पोते!" बोला रिपुष!
क्रोध के मारे लाल हो गया मैं!
"तमीज सीख ले, यदि दम्मो के पास शेष हो तो" मैंने गुस्से से कहा,
"अबे भाग, निकला यहाँ से स्साला!" उसने कहा,
मुझे हंसी आयी!
"तू बेकार हो गया रिपुष! सच कहता हूँ" उसने कहा,
'अबे भग यहाँ से अब?" उसने मेरी छाती पर हाथ मार कर कहा,
"जा रहा हूँ, अब दिन गिन ले, मारूंगा नहीं, लेकिन वो हाल करूँगा कि मौत को भी तरस आ जाएगा तुझ पर" मैंने कहा,
"निकल?" चिल्लाया वो!
"जा भाई जा" दम्मो उठते हुए बोला,
"जाता हूँ" मैंने कहा,
"तेरस" मैंने कहा,
"हाँ! मान ली" वो बोला,
"मेरी बात मान लेता तो चुदास भी आँखों से ही देखता!" मैंने कहा,
"चल ओये?" उसने कहा,
अब हम निकले वहाँ से!
"बड़ा ही बद्तमीज़ लड़का है कुत्ता" शर्मा जी बोले,
"कोई बात नहीं, हाड़ पक गए इसके अब!" मैंने कहा,
"दो साले को सबक" गुस्से से बोले वो,
"ज़रूर" मैंने कहा,
मैंने पीछे देखा, वे देख रहे थे हमको जाते हुए!
बारूद तैयार था! चिंगारी लगाना शेष था!
"चलिए" मैंने कहा,
हम टमटम में बैठे और चले अपने डेरे!
हम आये, पिटे हुए शिकारी से! जैसे चारा भी गँवा के आये हों! बाबा डबरा पानी दे रहे थे पौधों में, खूब फूल खिले थे!
"आ गए? खाली हाथ?" बाबा ने बिना देखे पूछा,
"हाँ बाबा" मैंने कहा,
"कौन सी तिथि निर्धारित की, तेरस?" बोले बाबा,
"हाँ" मैंने कहा,
"ठीक किया, तेरस शुभ है" वे बोले,
"धन्यवाद" मैंने कहा,
मुझे जैसे बाबा का आशीर्वाद मिला,
"हाथ-मुंह धो लो, खाना लगा हुआ होगा, मैं आ रहा हूँ बस,
"हम हाथ मुंह धोने चले गए, वहाँ से वापिस आये, खाना लगा हुआ था!
कुछ देर बाद बाबा भी आ गए!
बैठे,
"बताया तुमने धन्ना बाबा के बारे में?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"नहीं माना?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, नहीं माना" मैंने कहा,
"मुझे पता था" वे बोले,
मैं चुप!
"लो, शुरू करो" बाबा ने खाना शुरू करने को कहा,
आलू-बैंगन की सब्जी, थोड़ी सी सेम की फली की सब्जी, दही और सलाद था! रोटी मोटी मोटी थीं, चूल्हे की थीं शायद!
खाना खाया,
लज़ीज़ खाना! दही तो लाजवाब!
"बाबा?" मैंने पूछा,
"हाँ?" वे बोले,
"मुझे एक साध्वी चाहिए" मैंने कहा,
"मिल जायेगी, कल आ जायेगी, जांच लेना" वे बोले,
उनके जबड़े की हड्डी ऐसी चल रही थी खाना खाते खाते जैसे भाप के इंजन का रिंच, बड़ी कैंची!
"ठीक है" मैंने कहा,
मेरी दही ख़तम हो गयी तो बाबा ने और मंगवा ली, मेरे मजे हो गए! मैं फिर से टूट पड़ा दही पर! और तभी पेट से सिग्नल आया कि बस! डकार आ गयी!
शर्मा जी ने भी खा लिया और बाबा ने भी! हम उठे अब!
"मैं कक्ष में जा रहा हूँ बाबा" मैंने कहा,
उन्होंने हाथ उठाके इशारे से कह दिया कि जाओ!
हम निकल आये बाहर और अपने कक्ष की ओर चले गए, कक्ष में आये और लेट गए!
तभी शर्मा जी का उनके घर से फ़ोन आ गया! उन्होंने बात की और फिर मुझसे प्रश्न!
"द्वन्द विकराल होगा?" 
"हाँ" मैंने कहा,
"रिपुष के बसकी नहीं, हाँ दम्मो ज़रूर कूदेगा बीच में" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"तो आपके दो शत्रु हुए" वे बोले,
"स्पष्ट है" मैंने कहा,
"वो आया तो लौहिताएँ" वे बोले,
"बेशक" मैंने कहा,
अब सिगरेट जलाई उन्होंने,
"हाँ, पता है मुझे भी" उन्होंने नाक से धुआं छोड़ते हुए कहा,
"और कमीन आदमी के हाथ में तलवार हो तो वो अँधा हो कर तलवार चलाता है" मैंने कहा,
"क़तई ठीक" वे बोले,
"तो यक़ीनन दम्मो ही लड़ेगा" मैंने कहा,
"हाँ" वे बोले,
"कल साध्वी आ जायेगी, देखता हूँ" मैंने कहा,
"हाँ" वे बोले,
"द्वन्द भयानक होने वाला है" वे बोले,
"हाँ शर्मा जी" मैंने कहा,
"काट दो सालों को" वे गुस्से से बोले,
मुझे हंसी आयी!
"मन तो कर रहा था सालों के मुंह पर वहीँ लात मारूं!" वे बोले,
"लात तो पड़ेगी ही" मैंने कहा,
अब मैंने करवट बदली!
हम कुछ और बातें करते रहे और आँख लग गयी!
दोपहर बीती, रात बीती बेचैनी से और फिर सुबह हुई! दैनिक-कर्मों से फारिग हुए और फिर चाय नाश्ता! करीब दस बजे दो साध्वियां आयीं, मैंने कक्ष में बुलाया दोनों को, एक को मैंने वापिस भेज दिया वो अवयस्क सी लगी मुझे, शर्मा जी बाहर चले गए तभी, दूसरी को वहीँ बिठा लिया, साध्वी अच्छी थी, मजबूत और बलिष्ठ देह थी उसकी, मेरा वजन सम्भाल सकती थी, उसकी हँसलियां भी समतल थी, वक्ष-स्थल पूर्ण रूप से उन्नत था और स्त्री सौंदर्य के मादक रस से भी भीगी हुई थी!
"क्या नाम है तुम्हारा?" मैंने पूछा,
"ऋतुला" उसने बताया,
"कितने बरस की हो?" मैंने पूछा,
"बीस वर्ष" उसने कहा,
"माँ-बाप कहाँ है?" मैंने पूछा,
"यहीं हैं" उसने कहा,
धन के लिए आयी हो?'' मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
ये ठीक था! धन दिया और कहानी समाप्त! कोई रिश्ता-नाता या भावनात्मक सम्बन्ध नहीं!
"कितनी क्रियायों में बैठी हो?" मैंने पूछा,
"दो" उस ने बताया,
"उदभागा में बैठी हो कभी?" मैंने पूछा,
"नहीं" उसने कहा,
"हम्म" मैंने कहा,"सम्भोग किया है कभी?" मैंने पूछा,
"नहीं" वो बोली,
"ठीक है" मैंने कहा,
मैंने अब अपना कक्ष बंद किया और कहा उस से, "कपडे खोलो अपने" 
उसने एक एक करके लरजते हुए कपड़े खोल दिया,
देह पुष्ट थी उसकी, नितम्ब भी भारी थे, जंघाएँ मांसल एवं भार सहने लायक थी, फिर मैं योनि की जांच की, इसमें भी कुछ देखा जाता है, वो भी सही था,
"ठीक है, पहन लो कपड़े" मैंने कहा,
उसने कपड़े पहन लिए,
"ऋतुला, तुम तेरस को स्नान कर मेरे पास आठ बजे तक पहुँच जाना" मैंने कहा,
"ठीक है" वो बोली,
अब मैंने उसको कुछ धन दे दिया,
और अब वो गर्दन हाँ में हिला कर चली गयी,
चलिए, साध्वी का भी प्रबंध हो गया अब मुझे कुछ शक्ति-संचरण करना था, मंत्र जागृत करने थे और कुछ विशेष क्रियाएँ भी करनी थीं, जो प्राण बचाने हेतु आवश्यक थीं!
तो मित्रगण! इन दिनों और रातों को मैंने सभी क्रियाएँ निपटा लीं! डबरा बाबा का शमशान था, इसकी भी फ़िक़र नहीं थी!
द्वादशी को, रात को मैं और शर्मा जी मदिरा पान कर रहे थे, तभी शर्मा जी ने पूछा," कब तक समाप्त हो जाएगा द्वन्द?"
"पता नहीं" मैंने कहा,
अच्छा" वे बोले,
"आप सो जाना" मैंने कहा,
"नहीं"
उन्होंने कहा,
"कोई बात होगी तो मैं सूचित कर दूंगा" मैंने कहा,
"मैं जागता रहूँगा" वे बोले,
"आपकी इच्छा" मैंने कहा,
"एक बात कहूं?" उन्होंने कहा,
"हां? बोलिये?" मैंने कहा,
"ऐसा हाल करना सालों का कि ज़िंदगी भर इस लपेट-झपेट से तौबा करते रहें!" वे बोले,
"हाँ!" मैंने कहा और मैं खिलखिला कर हंसा!
अब शर्मा जी ने गिलास बदल लिया और मुझे अपना और अपना मुझे दे दिया! इसका मतलब हुआ कि ख़ुशी आपकी और ग़म मेरा!
"इसीलिए मेरे साथ हो आप" मैंने कहा,
"धन्य हुआ मैं" वे बोले,
भावुक हो गए!
"चलिए कोई बात नहीं, आप जाग लेना!" मैंने कहा और बात का रुख बदला!
उन्होंने गर्दन हिलायी!
तभी बाबा आ गए!
"और?" वे बोले,
"सब बढ़िया" मैंने कहा,
"रुको, मैं और लगवाता हूँ" वे बोले और बाहर चले गए!
और फिर आयी तेरस!
उस दिन मैंने चार घटियों का मौन-व्रत धारण किया, ये इसलिए कि कुछ और मेरी जिव्हा से न टकराए और जिस से जिव्हा झूठी हो मेरी! मेरा मौन-व्रत दोपहर को टूटा!
बाबा आ गए थे वहाँ,
"आओ बाबा जी" मैंने कहा,
बैठ गए वहाँ,
"आज विजय-दिवस है तुम्हारा" वे बोले,
"आपका धन्यवाद!" मैंने कहा,
"एक काम करना, मेरे पास नौखंड माल है, वो मैं दे दूंगा, उन्नीस की काट करती है वो" वो बोले,
''अवश्य" मैंने कहा,
उन्नीस की काट अर्थात उन्नीस दर्जे की काट!
"साध्वी कितने बजे आएगी?" उन्होंने पूछा,
"आठ बजे" मैंने कहा,
ठीक है" वे बोले,
वे उठे और चले गए,
"बाबा बहुत भले आदमी है" शर्मा जी ने कहा,
"हाँ" मैंने उनको जाते हुए देखते हुए कहा,
"लम्बी आयु प्रदान करे इनको ऊपरवाला" वे बोले,
"हाँ शर्मा जी" मैंने कहा,
"पापी ही लम्बी आयु भोगते हैं ऊपरवाले के यहाँ पापिओं की आवश्यकता नहीं होती, उसको भले लोग ही चाहिए होते हैं, मैंने इसीलिए कहा" वे बोले,
मैं समझ गया था!
अब हम भी उठे वहाँ से, बाबा ने सारा सामान मंगवाने के लिए एक सहायक को भेज दिया था,
"आओ बाहर चलते हैं टहलने", मैंने कहा,
"चलो" वे बोले,
और हम बाहर आ गए, थोडा इधर-उधर टहले और फिर वापिस आ गए, भोजन किया और कक्ष में चले गए अपने, थोड़ी देर आराम किया और फिर नींद आ गयी!
जब नींद खुली तो छह बजे थे! रात्रि का समय अभी दूर था परन्तु उसकी कालिमा ह्रदय तक आ पहुंची थी!
दो और घंटे बीते,
अब बजे आठ, नियत समय पर साध्वी आ गयी! मैंने कक्ष में बिठाया उसको, और बाबा के पास चला गया, आज्ञा लेने, नौखंड माल लेने, आज्ञा ले आया और फिर साध्वी को साथ ले, सारा सामान उठा लिया!
अब उसका श्रृंगार करना था!
मैंने मंत्र पढ़ते हुए भूमि पूजन किया, जलती चिता के चौदह चक्कर लगाए, साध्वी ने भी लगाए,
"सुनो साध्वी" मैंने कहा,
"जैसा मैं कहूं वही हो, और कुछ नहीं, अभी भी समय है, लौटना है तो लौट जाओ" मैंने कहा,
"जैसा आप कहेंगे वैसा ही होगा" उसने मुस्कुरा के कहा,
"वस्त्रहीन हो जाओ" मैंने कहा,
वो हो गयी, अब मैंने उसके केश खोले, हाथों में तांत्रिक-कंगन. पाँव में तांत्रिक-कंगन, कमर में अस्थियों से बनी एक तगड़ी, गले में अस्थिमाल धरान करवा दिया! अब मैंने सामान में से एक कटोरा निकाला, उसने चाक़ू से हाथ काटकर रक्त की सात बूँदें निकाली और कुछ सामग्री डाली, और घोट दिया, अब इस घोटे से उसके शरीर पर तांत्रिक-चिन्ह अंकित कर दिए, कुछ यन्त्र बनाये और लं बीज से उसकी देह को पोषित कर दिया!
अब वो तैयार थी, मैंने उसे बदन को भस्म से लेप दिया, अब वो साक्षात यमबाला दिख रही थी!
अब मैं तैयार हुआ! मैंने वस्त्र उतारे और फिर लं बीज से शरीर पर भस्म-लेप किया, तांत्रिक-आभूषण धारण किया, रक्त के घोटे से माथे को सुसज्जित किया! और फिर अपना त्रिशूल निकाला! बाएं गाड़ा! आसान बिछाया और साध्वी को उस पर बिठा दिया, फिर चिमटा निकाला, चारों दिशाओं में खड़खड़ाया और दिशा-पूजन किया! और फिर सामान निकाल कर वहीँ सामने रख दिया! इनमे दो गुड़िया भी थीं, बालिका के केशों से बनी हुई उनको उल्टा करके, अर्थात सर उनका भूमि में गाड़ दिया! कपाल निकाले! मरघटिया मसान का कपाल उल्टा किया! एक कपाल त्रिशूल पर टांग दिया! अस्थियां हाथों में लीं और क्रंदक-मंत्र पढ़ा!
विपक्षी तक खबर पहुंचा दी गयी!
"साधी, उठो" मैंने कहा, 
वो उठी, 
"सामने मेरे पीठ करके खड़ी हो जाओ" मैंने कहा,
वो हो गयी!
अब मैंने दीपाल-मंत्र पढ़ते हुए उसकी देह को त्रिशूल से तीन जगह काट दिया, अर्थात निशान लगा दिए!
"साध्वी?" मैंने कहा,
वो मेरी ओर घूमी,
"बैठ जाओ" मैंने कहा,
वो बैठ गयी,
"लो, इस मरघटिया कपाल को अपनी योनि से छुआ दो" मैंने कहा,
उसने किया और कपाल उसके हाथों से छूटकर अपने स्थान पर आ गया! कानफोड़ू अट्ठहास हुआ!
क्रिया आरम्भ हो गयी!
चहुंदिश सन्नाटा!
भयानक काली रात और उसकी कालिम सुंदरता!
जवान इठलाती रात्रि!
परम शांति!
आवाज़ें तो बस सम्मुख जल रही चिता की लकड़ियों से आती चट-चट आवाज़ें!
चमगादड़! यहाँ से वहाँ गुजरते हुए जैसे टोह ले रहे हों!
और भड़भड़ाती मेरी अलख! जिसने मैंने चिता की लकड़ी की सहायता से उठाया था! नवयौवना के मदमाती देह की जैसे मादक-चाल!
शमशान में मेरे मंत्र ऐसे गूँज रहे थे जैसे शिथिल पड़े हुए धौंकनी रुपी शमशान में हवा भर दी जा रही हो और वो अब फुफकारने लगी हो!
चिता से उठता धुआ हमारे अस्तित्व की पहचान लिए इस भूलोक से विदा लिए जा रहा था!
मैंने तभी अलख भोग दिया और दो कपाल कटोरे निकाले, उनमे मदिरा परोसी और एक कटोरा साध्वी को दिया और एक खुद ने लिए, महानाद करते हुए दोनों ने मदिरा हलक से नीचे उतर दी!
फिर मैंने वाचाल -प्रेत का आह्वान किया, वो हाज़िर हुआ और मुस्तैद हो गया! उसके बाद कारण-पिशाचिनी का आह्वान कर उसको भी राजी कर लिया, दोनों मुस्तैद हो गए!
और अब वहाँ!
मैंने देख प्रयोग की!
वहाँ का नज़ारा भी कुछ ऐसा ही था!
दो आसान बिछाये गए थे!
एक पर बैठा था बाबा दम्मो और एक पर वो दम्भी रिपुष!
दो साध्वियां थीं वहाँ, श्रृंगारपूर्ण!
दोनों पुष्ट देहों की सर्वांगनी!
दो त्रिशूल गड़े थे वहाँ और ग्यारह कपाल सजाये गए थे! शत्रु-भेदन का समुचित प्रबंध किया गया था! भूमि को श्वेत-सूत से, कीलित किया गया था, लकड़ियां भूमि में गाड़ कर उन पर सूत बाँध कर कीलन किया गया था! उसी में मध्य चौकोर स्थान में बैठे थे वे चार! वे चार! जिनका उद्देश्य था शत्रु भेदन!
वहाँ मदिरा-कर्म आरम्भ हुआ, अलख भोग दिया गया और साध्वी-स्तम्भन किया गया!
फिर बाबा दम्मो ने अलख से बात करते हुए अलख-ईंधन दिया और भेरी बजा दी!
द्वन्द की घोषणा हो गयी थी!
वर उन्होंने करना था और मुझे झेलना था, मैंने चुनौती दी थी सो तीन वार उन्हें करने थे और मुझे प्रतिवार कर अपना बचाव करना था!
अब मैंने अपनी साध्वी का स्तम्भन कार्य किया मैंने उसकी एक बार और मदिरा पिला कर, मंत्र की सहायता से मूर्छित कर दिया, वो मृतप्रायः सी हो गयी, मैंने उसको पीठ के बल लिटा दिया अपने सम्मुख, उसकी देख रिक्त थी अतः उस पर मैंने मूत्र विसर्जित कर दिया, और अंगीकार कर लिया, उसको उस समय के लिए शक्ति का रूप दे दिया और भार्या समान उसकी देह के रक्षण हेतु तत्पर हो गया!
अब रिपुष ने आह्वान किया!
भंजन-षोडशी का!
या यूँ कहो सीधे ही तोप से वार करना चाहता था वो! यहाँ, मेरे कानों में नाम सुनाई दिया तो मैंने यमरूढा का आह्वान किया, दोनों तरफ से अपने अपने यन्त्र संचालित होने लगे! अब मैं आपको भंजन-षोडशी के बारे में बताता हूँ, दक्षिण-पूर्व की स्वामिनी वाराही की सहोदरी है ये, ये भातृ-भंजन में अचूक कार्य करती है, शत्रु का ग्रास कर जाती है! ज़रा सी चूक और प्राण हर लेती है! इसको वैराली-सखी भी कहा जाता है! इसकी साधना अत्यंत क्लिष्ट और दुष्कर है! उसका आह्वान कर उन्होंने अपना दम-ख़म दिखाने की चेष्टा की थी! और अब यमरूढा, यमरूद्धा भयानक महाशक्ति है, नेत्रहीन एवं धूमिल छाया देखने वाली, इसको केवल हांका जाता है और शत्रु का शरीर उबाल कर धुँआ छोड़ता पञ्च-तत्व में विलीन हो जाता है, आत्मा प्रेत का रूप धारण कर लेती है, हाँ, वैराली-सखी संग ले जाती है!
'सकड़ सकड़' की से आवाज़ कर वो वहाँ प्रकट हुई और वहाँ से उद्देश्य जानकार लोप हुई, उसके यहाँ प्रकट होने से पहले यमरूढ़ा प्रकट हुई यहाँ और मैंने भोग अर्पित किया! और तभी वहाँ भंजन-षोडशी का आगमन हुआ, लहराती हुई वो आयी और यमरूढ़ा ले काल-पुंज के आलिंगन-कोष में लोप हो गयी! संचार हो उठा मुझ में! मैंने नमन किया और वो लोप हुई!
वहाँ,
दोनों अवाक!
बरसों की सिद्धि का एक फल टूट गया था!
मुझे हलकी सी हंसी आयी! आज दादा श्री का समरण हुआ और उनके वे शब्द, 'काल कवलित सभी को होना है तो कारण लघु क्यों? रोग क्यों? किसी शक्ति का आलिंगन करते हुए प्राण सौंपने चाहियें!" अचूक अर्थ!
दम्भियों के दम्भ-कोट का एक परकोटा ढह गया था! दोनों हैरान और परेशान! अब बाबा दम्मो उठा, घुँघरू बंधा चिंता उठाया उसने और खड़खड़ाया! फिर अपनी एक साध्वी को पेट के बल लिटा, एक पांव उस पर रख और दूसरा हवा में उठा, जाप करने लगा! मेरे कानों में उत्तर आ गया! ये महिषिकिा का आह्वान था! सांड समान बल वाली, दीर्घ देहधारी, भस्मीकृत देह वाली, तांत्रिकों की रक्षक और किसी भी नष्ट को दूर करने वाली! इसका एक वार और प्राण लोक के पार! मेरे कान में शब्द पड़ा!
धान्या-त्रिजा!
अब आपको बता हूँ इनके बारे में, महिषिका भी एक सहोदरी है, एक अद्वित्य महा-शक्ति की! उस महा शक्ति की ये चौंसठवीं कला अर्थात शक्ति है! ये भयानक, और लक्ष्य-केंद्रित कार्य काने में निपुण है! इसी कारण से दम्मो बाबा ने इसका आह्वान किया था!
और अब धान्या-त्रिजा, अक्सर त्रिजा नाम से ही विख्यात है! ये भी एक सहोदरी है, एक महाभीषण महाशक्ति की, क्रम में तेरहवीं है, रिजा का वस् पाताल मन जाता है, अक्सर कंदराओं में ही ये सिद्ध की जाती है! आयु में नवयौवना है, रूप में अनुपम सुंदरी और तीक्ष्ण में महारौद्रिक! दोनों के ही सम्पुष्ट आह्वान ज़ारी थी!
तभी रिपुष ने त्रिशूल उखाड़ा और भूमि पर पुनः वेग के साथ गाड़ दिया! और डमरू बजा दिया तीन बार! अर्थात मैं शरणागत हो जॉन उनके यहाँ! मैंने भी त्रिशूल लिया, वक्राकार रूप से घुमाया और पुनः गाड़ दिया भूमि में और पांच बार डमरू बजाय, अर्थात मैं नहीं, वो चाहें तो कोई हर्ज़ा नहीं, सब माफ़!
पाँव पटके रिपुष ने और तभी एक झटका खा कर रिपुष और दम्मो भूमि पर गिर गए! महिषिका का आगमन होने ही वाला था! साधक को गिरां, पटखने ही उसका आने का चिन्ह है!
"ओ मेरी पातालवासिनी, दर्शन दे!" मैंने कहा,
और अगले ही पाक श्वेत रौशनी मुझ पर पड़ी और मैं नहा गया उसमे, मेरे पास रखे सभी सामान एवं स्व्यं की परछाईं देख ली मैंने!
मैं उठ खड़ा हुआ! नमन किया!
वहाँ महिषिका से मौन-वार्तालाप हुआ और वो वहाँ से दौड़ी लक्ष्य की और, और यहाँ मैं घुटनों पर गिरा त्रिजा के समक्ष बैठा था!
अनुनय करता हुआ!
महिषिका आ धमकी! उसके साथ दो और उप-सहोदरियां, खडग लिए!
समय ठहर गया जैसे!
महिषिका आ धमकी! साथ में दो उप-सहोदरि अपने अपने अस्त्र लिए! यहाँ त्रिजा भी प्रकट हो गयी थी! आमना-सामना हुआ उनका और फिर त्रिजा के समक्ष नतमस्तक हुई महिषिका और भन्न! दोनों ही लोप!
बावरे हुए वे दोनों! महिषिका नतमस्तक हुई! ये कैसे हुआ! कैसे! कैसे????
मैंने अट्ठहास किया!
दो कांटे मैं काट चुका था!
अब मैं अपने आसान पैर बैठा और अधंग-जाप किया! ये जाप क्रोध का वेग हटा देता है! मेरी देख फिर आरम्भ हुई!
वहाँ अब जैसे मरघट की शान्ति छाई थी!
"भोड़िया!"
हाँ! भौड़िया!
यही शब्द आया मेरे कानों में!
अर्थात, नरसिंहि की भंजन-शक्ति!
नरसिंहि! इसके बारे में आप जानकारी जुटा सकते हैं! हाँ, ये अष्ट-मात्रिकाओं में से एक हैं!अब अष्ट-मात्रिकाओं के बारे में भी आप जानिये, बताता हूँ, जब अन्धकासुर का वध करने हेतु, महा-औघड़ और शक्ति ने प्रयास किया तब महा-औघड़ ने शक्ति से कह कर अष्ट-मातृकाएँ प्रकट कीं, ये वैसे चौरासी हैं, अन्धकासुर को वरदान और अभयदान मिला, और ये अष्ट-मात्रिकाएं फिर देवताओं का ही भक्षण करने लगीं! तब इनको सुप्तप्रायः कर इनको विद्यायों में परिवर्तित कर दिया गया, इन्ही चौरासी मात्रिकाओं में से ही नव-मात्रिकाएं अथवा लौहिताएँ बाबा दम्मो ने प्रसन्न कर ली थीं!
"बोल?" रिपुष ने चुनौती दी!
"कहा!" मैं अडिग रहा!
"पीड़ित?" उसने कहा,
"भक्षण" मैंने चेताया,
उसने त्रिशूल लहराया!
मैंने भी लहराया!
उसने चिमटा खड़खड़ाया!
मैंने भी बजा कर उत्तर दिया!
अब बाबा दम्मो ने त्रिशूल से हवा में एक त्रिकोण बनाया! उसका अर्थ था भौड़िया का आह्वान! साक्षात यमबाला! प्राण लेने को आतुर!
"क्वांग-सुंदरी!" मेरे कानों में उत्तर आया! गांधर्व कन्या!
अब मैंने उसका आह्वान किया!
वहाँ भीषण आह्वान आरम्भ हुआ और यहाँ भी!
करीब दस मिनट हुए!
क्वांग-सुंदरी प्रकट हुई!
मैंने भोग अर्पित किया!
नमन किया!
और वहाँ प्रकट हुई यमबाला भौडिआ!
भौड़िया!
इक्यासी नवयौवनाओं से सेवित!
प्रौढ़ आयु!
श्याम वर्ण!
हाथों में रक्त-रंजित खडग!
मुंह भक्षण को तैयार!
केश रुक्ष!
गले में मुंड-माल, बाल!
नग्न वेश!
नृत्य-मुद्रा!
प्रकट हो गयी वहाँ!
उद्देश्य जान उड़ चली वायु की गति से! प्रकट हुई और क्वांग-सुंदरी समख लोप हुई! जैसे सागर ने कोई पोखर लील लिया हुआ तत्क्षण! शीघ्र ही अगले ही पल क्वांग-सुंदरी भी लोप!
ये देख वे दोनों औघड़ बौराये! समझ नहीं आया कि क्या करें!
मैंने त्रिशूल हिलाया!
उन्होंने भी हिलाया!
मैं आसन से उठा!
कपाल उठाया और अपने सर पर रखा!
उन्होंने कपाल के ऊपर पाँव रखा!
अर्थात वे नहीं मान रहे थे हार!
डटे हुए थे!


तीन वार हो चुके थे! अब मेरा वार था! मुझे करना था वार! उनकी देख मुझ तक पहुंची और मैंने तब एक अट्ठहास किया! मैंने एक घड़ा लिया छोटा सा, उनमे मूत्र त्याग किया, साध्वी के पेट पर रख कर! वो फुंफना रही थी, कुछ बुदबुदा रही थी, इसकी निशिका-चक्र कहते हैं, उसकी रूह किसी और दुनिया में अटकी थी, उसका शरीर ही था यहाँ! मैने उस मूत्र से भर घड़े को अपने हाथों से एक गड्ढा खोद कर भूमि में गाड़ दिया! और मंत्रोच्चार किया! ये देख के कब्जे में आया और दूसरी वे दोनों औघड़ जाने गए मैं क्या करने वाला हूँ!
"हाँ?" मैंने कहा,
"बोल?" वे बोले,
"भूमि?" मैंने कहा,
"चरण" वे बोले,
"आग" मैंने कहा,
"चिता" वे बोले,
संवरण हुआ!
कोई तैयार नहीं झुकने को!
मृत्यु संधि कराये तो कराये!
तभी वो घड़ा बाहर आया और उसमे से दो कन्याएं प्रकट हुईं, धामन कन्यायें! उनके मुख नहीं थी, बस दंतमाला ही दिख रही थी, अत्यंत रौद्र होती हैं ये धामन कन्याएं! उद्देश्य जान वे ज़मीन पर रेंगती हुई भूमि में समा गयीं!
वहाँ!
अपने चारों और अपने त्रिशूल ताने वे देख रहे थे! और तभी भूमि फाड़ वे कन्याएं उत्पन्न हुईं! दम्मो आगे आया और उनको त्रिशूल के वार से शिथिल कर दिया! मृतप्रायः सी वे फिर पड़ीं वहाँ, उनकी ग्रीवा पर पाँव रखते हुए उनको लोप कर दिया, वे भूमि में पुनः समा गयीं!
उनकी जीत हुई!
इस जीत से बालकों की तरह उत्साहित हो गए वे दोनों!
हंसी मुझे भी आयी!
"बोल?" रिपुष दहाड़ा!
"जा!" मैंने धिक्कारा!
"आ" मुझे झुकने को कहा,
"अंत" मैंने शब्द-वाणी बंद की!
अब दम्मो ने हाथ हिलाते हुए, कुटकी-मसानी का आह्वान किया! कुटकी जहाँ भी जाती है वहाँ भूत-प्रेत सब भाग जाते हैं! मैदान छोड़ जाते हैं! उसीका आह्वान किया था उसने!
मैंने फ़ौरन ही धनंगा महाबली का आह्वान किया! महातम शक्ति!
दोनों ओर महाजाप!
वे दोनों साध्वियों पर सवार!
और मैं अपनी साध्वी के कन्धों पर बैठा!
लगा जाप करने!
कुटकी अत्यंत तीक्ष्ण मसानी है! ममहामसानी! अक्सर सिद्ध ही इसका प्रयोग करते हैं! सिद्ध होने पर भार्या समान सेवा करती है! ये वीर्य-वर्धक होती है! साधक के मृत्योपरांत सेवा करती है! वही है कुटकी!
मैंने धनंगा का आह्वान किया! ये मात्र धनंगा से ही सहवास करती है! धनंगा कृषु-वेताल सेवक होता है! बेहद परम शक्तिशाली!
कुटकी वहाँ प्रकट हुई!
और यहाँ केश रहित धनंगा!
धनंगा गदाधारी है! ताम्र गदा! मूठ अस्थिओं के बने होते हैं!
अपनी जीत देख, मद में चूर, भेज दिया कुटकी को! क्रंदन करी मात्र एक क्षण में प्रकट हो गई! मार्ग में आये धनंगा से आलिंगनबद्ध हो गयी और फिर दोनों लोप!
हा! हा! हा! हा! हा!
अट्ठहास लगाया मैंने!
"बल?" मैंने कहा,
"यश" वे बोले,
"मृत्यु!" मैंने कहा,
"जीवन" वे बोले!
बड़े हठी थे वे!
"रक्त!" मैंने कहा,
"अमृत!" वे बोले,
"क्षुधा!" मैंने कहा,
"यत्रः" वे बोले,
मूर्ख दोनों!
परम मूर्ख!
साध्वियां पलटीं उन्होंने अब! मुख में उनकी मूत्र-विसर्जन किया! फिर लेप! और दोनों बैठ गए!
यहाँ,
मैंने अपनी साध्वी को अब पेट के बल लिटाया,
एक शक्ति-चिन्ह बनाया मिट्टी से!
और तत्पर!
वे भी तत्पर!
द्वन्द गहराया अब!
द्वन्द अपनी द्रुत गति से आगे बढ़ रहा था! उनकी देख मुझ पर और मेरी उन पर नियंत्रित थी! दोनों डटे हुए थे!
तभी!
रिपुष नीचे बैठा, अपनी साध्वी को अपनी ओर किया और उसके स्तनों पर खड़िया से चिन्ह अंकित किये! और गहन मंत्रोचार में डूबा! मुझे भान नहीं हुआ एक पल को तो और तभी मेरे कारण-पटल में आवाज़ गूंजी, "स्वर्णधामा'
अब मैं समझा!
लालच!
लोभ!
वश!
वाह!
इस से पहले कि मैं उसको रोकता एक परम सुंदरी मेरे समक्ष प्रकट हो गयी! मेरी nazar उसके तीक्ष्ण सौंदर्य पर गयी! सघन केशराशि! उन्नत कंधे, उन्नत कामातुर वक्ष! सुसज्जित आभूषणों से! पूर्ण नागा! कामुक नाभि क्षेत्र! उन्नत उत्तल योनि! सब दैवीय!
"मैं स्वर्णधामा!" उनसे कहा,
"जानता हूँ हे सुंदरी!" मैंने कहा,
"मैं कामेश्वरी सखी" उसने कहा,
"जानता हूँ" मैंने कहा,
"चिर-यौवन!" उसने अब लालच दिया!
"नहीं" मैंने उत्तर दिया!
मैं उसकी पतली कमर और सुडौल नितम्ब देखते हुए काम-मुग्ध था!
"स्वीकार है?" उसने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
"भामिका, अतौली, निहिषिका और वारुणी! ये सब भी संग!" उसने कहा, हँसते हुए!
"नहीं" मैंने कहा,
"मैं देह-रक्षक!" उसने ठिठोली सी करी!
"जानता हूँ" मैंने कहा,
"मुझे अधिकार दे दो देह का!" उसने कहा,
"नहीं" मैंने मना किया,
वो हंसने लगी! खनकती हुई दैविक हंसी!
"प्रयास नहीं करोगे?" उसने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
उसने अपब मेरे शिथिल लिंग को हाथ लगाया,
जस का तस,
कोई तनाव नहीं!
वो मादक हंसी हंसी!
और,
मुझसे ऐसे लिपटी कि उसके नितम्ब मुझसे टकराने लगे, और उसने अपने हाथों से मेरे हाथ पकड़ कर अपने स्तनों पर रख दिए!
"अब बताओ?" उसने कहा,
एक भीनी मदमाती सुगंध!
मैं बेसुध!
काम आल्हादित!
हलक! सूखने लगा!
उसने मेरे हाथ के अंगूठे और तरजनी के बीच अपना स्तनाग्र फंसा दिया!
ठंडा पसीना मुझे!
हृदय में स्पंदन तीव्र हुआ!
उसने अपने नितंभ मेरे लिंग पर सबाव बनाते हुए मुझे वक्रावस्था में, धनुषावस्था में, पीछे धकेला, थोडा सा!
"बोलो?" उसने लरजती हुई आवाज़ में कहा,
सच कहता हूँ!
मेरे मुंह में 'नहीं' अटक गया!
नहीं निकला बाहर!
"स्वीकार?" उसने व्यंग्य किया!
बड़े साहस और थूक का क़तरा क़तरा इकट्ठा कर मैंने हीवह को गीला किया और कहा, "नहीं"
"क्यों?"
"माया!" मैंने कहा,
"कैसे?" उसने अब अपने हाथ से मेरा लिंग पकड़ा और अंडकोष सहलाने लगी!
अब मैंने अपनी आप को छुड़ाया उस से!
मैं छूट गया!
"बोलो?" उसने पूछा, हँसते हुए!
"नहीं" मैंने कहा,
"नहीं? नहीं? हाँ बोलिये" उसने अपना केश आगे किये और कहा,
"नहीं" मैंने कहा,
उसने मेरे लिंग को देखा, मैंने भी, शिथिल!
एक चूक और प्राण की हूक!
"मान जाओ" उसने मुलव्वत से पूछा,
"नहीं स्वर्णधामा! अब जाओ!" मैंने ये कहते हुए दो हड्डियों से एक विशेष मुद्रा बनाकर जालज-मंत्र का जाप करते हुए उसको लोप करा दिया!
ह्रदय पुनः व्यवस्थित हो गया अपने स्पंदन गिनने लगा!
साम दाम दंड भेद!


स्वर्णधामा चली गयी! मैं विजयी हुआ था, बाल बाल बचा था! बड़ी सोची समझी चाल थी!
वहाँ सर पीट लिया था दोनों ने! मैंने काबू नहीं आया था! अब मेरा वार था, मैंने मूत्र लगी हुओ मिट्टी से एक गेंद बनायीं और उसको अलख के पास रक, फिर उसपर नज़रें टेकता हुआ मंत्र पढता चला गया! मैंने साध्वी उलटी लेती थी, उस पर चींटे रेंगने लगे थे!मैं समय समय पर उनको साफ़ कर देता था! अब एक मंत्र पढ़कर त्रिशूल से एक रेखा खेंच दी उसके शरीर के चारो ओर, वो चींटे तो क्या कोई सांप भी नहीं घुस सकता था उस घेरे में!
हां, अब मैंने फिर से नज़रें उस गेंद पर गड़ाईं, और फिर गेंद फट पड़ी! उसकी मिट्टी से टीका किया और फिर अब मैंने त्रांडव-कन्या का आह्वान किया! ये कन्या पीठ ही दिखाती है, और कुछ नहीं, बाल शेवट होते हैं नीचे पिंडलियों तक, शरीर पर को आवरण, आभूषण और वस्त्र नहीं होता! केवल हाथ में एक काला शंख और अस्थियों से बना एक बिंदीपाल अस्त्र होता है! ये कन्या नभ-वासिनी है और अत्यंत तीक्ष्ण हुआ करती है, अट्ठहास जहां करे वहाँ भूमि में गड्ढे पड़ने लगते हैं, कर्ण का ख़याल ना रखा जाए तो कर्ण में शूल होकर रक्त बहने लगता है! अंत में सर फट जाता है, मैंने कर्ण एवं शीश-रक्षा मंत्र जागृत किये और फिर आह्वान तेज किया!
भन्न! और वो प्रकट हो गयी आकाश से उतर कर!
मैंने भूमि पर पेट के बल लेट गया!
"माते!" मैंने कहा,
उसने हुंकार भरी!
अब मैंने उद्देश्य बताया, उसने अट्ठहास किया और जिस मार्ग से आयी थी उसी मार्ग से चली गयी!
वहाँ वे भी तैयार थे! उन्होंने त्रांडव-कन्या की काट के लिए भन्द्रिका को हाज़िर कर लिया था! दोनों समान टक्कर की थीं और प्रबल शत्रु भी!
वहाँ त्रांडव-कन्या प्रकट हुई और भन्द्रिका भी!
तांडव मच गया!
क्या मेरी और क्या उनकी!
सभी की अलख प्राण बचाने हेतु चिल्लाने लगीं! अलख छोटी और छोटी होती चली गयीं! वहाँ उसका त्रिशूल डगमगा के गिरा और यहाँ मेरा उखड़ के गिरा!
दोनों के चिमटे गिर पड़े ज़मीन पर!
ह्दय धक् धक्!
चक्रवात सा उमड़ पड़ा!
और ताहि मुझे जैसे किसीने केशों से पकड़ के ज़मीन पर छुआ दिया! मायने डामरी-विद्या का प्रयोग करते हुए प्राण बचाये!
वहाँ रिपुष को उठा के फेंक मारा!
दम्मो ज़मीन पर लेट गया तो उसकी टांगों से खींच कर उसको कोई ले गया क्रिया-स्थल से दूर!
दोनों जगह हा-हाकार सा मच गया!
"पलट?" दम्मो चीखा!
मैं पलट गया और शक्ति वापिस कर ली!
वो वहाँ से मेरे पास आ कर लोप हो गयी!
वहाँ दम्मो ने भी वापिस कर ली!
अब शान्ति!
यहाँ भी और वहाँ भी!
प्राण बच गए सभी के!
"चला जा?" दम्मो चीखा!
"नहीं" मैं चीखा!
"भाग जा?" वो चिल्लाया!
"कभी नहीं" मैंने कहा,
"मारा जाएगा?" उसने कहा,
"परवाह नहीं" मैंने कहा,
अब मैंने त्रिशूल को गाड़ा और डमरू बजाया!
बस!
बहुत हुआ!
बस!
अब देख असली खेल दम्मो!
मैं क्रोधित!
दावानल!
मेरे मस्तिष्क में दावानल फूटा!
अब मैंने भूमि में दो गड्ढे किये!
दोनों गड्ढों में पाँव रखे और फिर आह्वान किया एक प्रबल महाशक्ति का!
सहन्स्त्रिका का!
एक राक्षसी!
एक महा मायावी!
एक रौद्र से भरपूर शक्ति!
अब पान कांपे उनके! यकीन नहीं था उनको!
"भाग जाओ" मैंने कहा,
वो चुप!
"भाग जाओ!" मैंने कहा,
चुप्पी!
"चले जाओ" मैंने चिल्ला के कहा!
दम्मो आगे आया! आकाश को देखा, हवा में एक यन्त्र बनाया, थूका और बोला, "कभी नहीं!"
और गुस्से में अपने आसान पर बैठ गया!
असल खेल अब आरम्भ हुआ था! द्वन्द मध्य भाग में प्रवेश कर गया था!

और वही हुआ, हाथ में खप्पर लिए वहाँ प्रकट हो गयी अपनी नाचती हुई शाकिनियों के साथ! सहन्स्त्रिका से सामना हुआ और नृतकी शाकिनियां शांत! शांत ऐसे जैसे दो नैसर्गिक शत्रु एक दूसरे के सामने आ गए हों! वे अविलम्ब आगे बढ़ीं , टकरायीं, ये तो मुझे याद है, उसके बाद मै गिर पड़ा भूमि पर, जैसे मुझे किसी ने उठाकर पटका हो और मुझे भूमि में ही घुसेड़ना चाहता हो! सर ज़मीन में लगा और मै बेहोश हुआ, मेरे सर की हड्डी टूट चुकी थी! बस मुझे इतना याद है, मेरे यहाँ मेरा वक़्त थम गया था, मै हार की कगार पर पड़ा था, और कभी भी अचेतावस्था में गिर सकता था हार सकता था, मेरा मुंह खुला था और खुला ही रह गया!
कितना समय बीता?
याद नहीं!
कुछ याद नहीं!
कौन शत्रु है कौन नहीं, कुछ पता नहीं!
मै अचेत पड़ा था, साध्वी नीचे बड़बड़ाती हुई पड़ी थी!
और समय बीता!
रिपुष का क्या हुआ?
दम्मो का क्या हुआ?
ये प्रश्न मेरे साथ ही गिरे पड़े थे!
उत्तर देने वाला कोई नहीं था!
और समय बीता!
कुछ घंटे!
और सहसा!
सहसा मुझे होश सा आया, आँखें खुलीं, आकाश तारों से चमक रहा था, मेरे सर पर अंगोछा बंधा था, मैंने जायज़ा लिया, मै था तो श्मशान में ही था, लेकिन कहा? कुछ याद नहीं आ रहा था!
तभी मुझे कुछ मंत्रोच्चार की आवाज़ें आयीं,
भीषण-श्लाघा के भारी भारी मंत्र!
ये कौन है?
कहीं मै क़ैद तो नहीं,
कहीं प्राणांत तो नहीं हो गया!
ये कौन है?
मैंने स्वयं को टटोला, हाथ लगाया, मै तो जीवित था, खड़े होने के कोशिश की तो एक आवाज़ आयी, "उठ जा अब"
मैंने कोशिश की, सर घूम रहा था, बाएं गर्दन नहीं मुड रही थी!
मै किसी तरह से उठा!
अरे?????
अरे?????
ये तो बाबा हैं! बाबा डबरा!
उन्होंने सम्भाल रखा था मोर्चा!
"उठ जा अब!" वे मुसरा के बोले,
मुझे में प्राणसंचार हुआ! मै उठ बैठा और सीधे ही आसन पर बैठ गया!
"कहाँ तक पहुंचे?" मैंने पूछा,
"मै स्तम्भन कर रखा है, पर्दा कभी भी फट सकता है" वे बोले,
"कितना समय हुआ?" मैंने पूछा,
"एक घंटा" वे बोले,
"और रिपुष और दम्मो का क्या हुआ?" मैंने पूछा,
"वही जो तेरा हुआ, रिपुष का सर फट गया है, दम्मो सम्भाल के बैठा है, दम्मो कि एक आँख में रौशनी नहीं है" वे बोले,
"तब भी?" मैंने कहा,
"हाँ" वे बोले,
और खड़े हुए!
"अब मै चलता हूँ, द्वन्द तेरा है, विजय होना" वे बोले,
और वो अपना त्रिशूल लेकर चले गए वहाँ से!
मै संयत हुआ!
देख शुरू कीं!
मर जाता तो देख भी भाग छूटतीं!
अब मैंने स्तम्भन हटा दिया! दृश्य स्पष्ट हो गया!
वे चकित!
मै चकित!
अब हम उत्तरार्ध में थे!
अब या तो वे या मै!
उन्होंने मेरे यहाँ मांस के लोथड़ों की बारिश की! जैसे सुस्वागतम के फूल बिखेरे हों!
मैंने भी वहाँ बारिश कर दी आतिश की! दुर्गन्ध की!
द्वन्द चतुर्थ और अंतिम चरण में लांघ गया!
दोनों ओर से ज़ोर-आजमाइश ज़ारी थी, दोनों ही पक्ष इस संग्राम से आहत थे, मेरे सर में भयानक पीड़ा थी और वहाँ रिपुष लेटा हुआ था, बाबा दम्मो ही मोर्चा सम्भाले बैठे था,
अब बहुत हुआ! बस! अब अंत आवश्यक है नहीं तो और अधिक डट नहीं पाउँगा मई, अब मैंने एक त्वरित निर्णय लिया, बाबा दम्मो नव-लौहिताओं के दम पर मैदान में डटा था, मुझे उस वो पाश काटना था, पाश काटने के लिए मुझे उसका मार्ग रोकना था, और ये मार्ग तभी रुक सकता था जब उसका जिव्हा कीलन हो जाए, इसके लिए मुझे तड़ितमालिनी की आवश्यकता थी, मैंने वहाँ मांस अदि की बरसात की, जिनको झेलता गया वो दम्मो, गुर सीखे हुए थे उसने और उनका प्रयोग करना उनको सम्मुख रखना, उसने वो अभी तक सफल रहा था!
अब मैंने तड़ितमालिनी का जाप किया, नैऋत्य-कोण वासिनी, रात्रिकालबाली और दो भयानक महापिशाचों एराम और डोराम से सेवित है ये! इक्यासी उप-सेवक है, तमोगुणी, कभी अट्ठहास न करने वाली तड़ितमालिनी भी एक महाशक्ति की खडगमहाशक्ति है! मैंने आह्वान आरम्भ किया और उधर उसने ज्वालमालिनी का आह्वान किया! मेरे मंत्रोच्चार गहन हुए, उसके भी सघन!
कोई किसी से कम नहीं!
दोनों ही अडिग!
दोनों ही मरने मरने को तैयार!
एक को शक्तियों पर घमंड!
दूसरे को सत्य पर घमंड!
लक्ष्य दोनों के एक ही!
शत्रु-भेदन!
मंत्रोच्चार और गहन हुए!
और फिर मेरे समक्ष तड़ितमालिनी प्रकट हुई, ब्रह्म-कमल के पुष्पों द्वारा सुसज्जित तड़ितमालिनी! मैंने नमन किया और भोग अर्पित किया! मैंने उस से सारी व्यथा कह सुनाई! उसने सुना और फिर उसके सरंक्षण में उसके दोनों सेवक एराम और डोराम वहाँ से चलने से पहले, अपने और सह-सहायक बुला कर, तड़ितमालिनी से आज्ञा ले चल पड़े! चल पड़े वीरधर!
काले भक्क सहायक उनके! महापिशाच अत्यंत रौद्र रूप में!
सीधा वहीँ प्रकट हुए!
और प्रकट हुई वहाँ ज्वाल-मालिनी!
वायव्य-कोण वासिनी! चौसंठ कलाओं में निपुण! शत्रु-भंजनी!
ठहर गयी एराम और डोराम की सेना!
अब कूच किया तड़ितमालिनी ने यहाँ से!
और!
जब तक उद्देश्य कहता दम्मो, तड़ितमालिनी और ज्वाल-मालिनी का शक्तिपात हुआ, दृष्टिपात हुआ, तड़ित-मालिनी का इशारा हुआ!
और अब क्या था!
एराम और डोराम ने मचाया अब कोहराम!
एराम ने अलख बुझा दी! दम्मो के प्राण मुंह को आये!
अलख बुझी, जीवन बुझा!
ज्वाल-मालिनी लोप हुई!
सामान, भोग, त्रिशूल, खडग और चिमटे, फेंक मारे शमशान में दोनों ने! विकट उत्पात किया! क्रंदन-महाक्रंदन!
झुक गया घुटनों पर दम्मो! अपनी अलख को देखता हुआ!
अब एराम ने उठाया दम्मो को उसकी गर्दन से और हवा में किसी गठरी के समान, जैसे गजराज किसी मनुष्य को उठकर फेंक दे सामने, ऐसा फेंका!
हड्डियां चटक गयीं! जोड़ बिखर गए उसके!
वहाँ डोराम ने रिपुष को, करहाते रिपुष को भांज दिया!
एक हाथ उखड़ गया उसका और रक्त का फव्वारा बह निकला!
चीख भी नहीं सका रिपुष!
एराम के वार से दम्मो मूर्छित हो गया!
अब मैंने तड़ितमालिनी का वापिस आह्वान किया! हालांकि मुझमे भी शक्ति नहीं थी उठने की, मैं जस का तस वहीँ झुक गया! मैंने नमन किया! अपने जीवनदायनी को नमस्कार किया और वो अपने सहायकों और सेवकों के साथ लोप हुई!
रिपुष और दम्मो, दोनों परकोटे तबाह हो चुके थे! समस्त शक्तियां उड़ निकलीं वहाँ से, कुछ ने मेरे यहाँ शरण ले ली!
मैं पीछे बैठता चला गया और गिर गया!
मेरे आंसू और चीख निकलने लगीं! मैंने कपाल को चूमते हुए रोता रहा! अलख को नमन करता रहा, अघोर-पुरुष एवं गुरु नमन करता रहा!
मैंने बैठा किसी तरह!
शक्ति का नमन किया!
और फिर मेरे समक्ष प्रकट हुई पद्मा जोगन! शांत! एकदम शांत! पीड़ा भूल गया मैं! सच कहता हूँ, पीड़ा भूल गया तत्क्षण!
पद्मा जोगन अब मुक्त थी!
एक छोटे से पात्र में आने को कहा मैंने और पद्मा जोगन उसमे वास कर गयी!
अब छोटे मेरे आंसू!
सब्र टूट गया!
तभी मुझे बाबा डबरा आते दिखायी दिए!
वे आये, मुझे उठाया,
मैं उन के पाँव पकड़ पागल की भांति रोता रहा!
उन्होंने नहीं रोका!
अवसाद था, जितना निकल जाए उतना अच्छा!
उन्होंने मेरे माथे को सहलाया,
"अब सब ख़तम" वे बोले,
मैं चुप, केवल सिसकियाँ!
"तुम विजयी हुए" वे हंस के बोले,
मैं चुप!
कुछ पल!
और कुछ पल!
"बाबा?" मैं बोल पड़ा आखिर!
"बोलो!" वे बोले,
"वो स्तम्भन नहीं था" मैंने कहा,
"मैं जानता हूँ" वे बोले,
"मार्ग बंद किया गया था लौहिताओं का" मैंने कहा,
"हाँ!" वे हंसके बोले!
शान्ति!
मैं खोया अब उसी कड़ी में!
"मैंने भी लौहिताएँ सिद्ध की हैं!" वे बोले,
"ओह" मैंने कहा,
"ठीक हो जाओ, अब मैं सिद्ध करवाऊंगा तुमको" वे हंस के बोले,
उन्होंने उठाया मुझे!
ले गए अपने स्थान पर, अंगोछा खोला, तो सूजन, सूजन मेरी आँखों तक आ पहुंची थी!
शर्मा जी को बुलाया गाय, वे हैरान-परेशान!
उसी सुबह मुझे ले जाया गया अस्पताल! मेरा इलाज हुआ और हड्डी को जोड़ दिया गया, मात्र हड्डी टूटने के अलावा और कोई ज़ख्म नहीं था!
ग्यारह दिन में मैं ठीक होने लगा, सूजन गायब हो गयी!
इन दिनों में मैंने सारा बखान कर दिया किस्सा कि क्या हुआ था!
करीब तेरह-चौदह दिनों के बाद मैं अब शर्मा जी के साथ वापिस हुआ, बाबा डबरा के पाँव छू कर मैंने विदा ली, सीखने के लिए समय निश्चित हो गया! और हम वापिस हुए!
हाँ, मुझे खबर मिली बाबा डबरा से, कि दम्मो अँधा हो गया था, उसकी वाणी भी सदा के लिए साथ दे चुकी थी, रिपुष को इन्फेक्शन हो गया था हाथ में, उसका एक हाथ कंधे से ही काटना पड़ा था! सारी औघडाई हाथ के साथ ही कट गयी थी!
मैं वापिस सियालदह आ गया! वहीँ ठहरा!
दो दिन बाद पद्मा जोगन के कक्ष में मैंने मुक्ति क्रिया का प्रबंध किया!
पद्मा को पात्र से मुक्त किया!
पद्मा ने मुझे जो कारण बताया वो मैं आपको नहीं बता सकता, कुछ विशेष कारण है! हाँ, वो सिक्का! सिक्का उसने आटे का पेड़ा बनाकर, उसमे रखकर निगल लिया था, उस सिक्के के कारण ही उसका ये हश्र हुआ था! बाबा कर्दुम का वो सिक्का और किसी के हाथ नहीं लगने देना चाहती थी, एक अमावस की रात को वो निर्णय लेकर एक दूर-दराज के तालाब में जल-समाधि के औचित्य से पहुंची और जल-समाधि ले ली!
इस से आगे मैंने कुछ नहीं पूछा! सो लिख भी नहीं सकता!
हाँ, बस इतना कि पद्मा मुक्त हो गयी थी!
मित्रगण! प्राण जाने का भय किसे?
जिसने लोभ पाले हों!
मोहपाश में बंधा हो!
जागृत न हो!
आत्म-ज्ञान से कोसों दूर हो!
जिसमे तृष्णा बलवती हो!
जो चिरावस्था का लोलुप हो!
को कर्त्तव्य-विहीन जीवन जीने का आदि हो!
जो मानस रूप में पशु हो!
जिसे भौतिकता से इतना प्रेम हो जो ज्ञान को झुठलाये!
मैं ओ इतना ही कहूंगा, प्राण आपके नहीं, किसी और की विरासत हैं, आपको केवल उधार दिए गए हैं! वो जब मांगेगा तब आप तो क्या कोई भी रोक नहीं पायेगा जाने से! प्राण स्व्यं खींचे चले जायेंगे इस देह से! और ये देह! ये तो नश्वरता का सबसे बड़ा उदाहरण है!
इस से प्रेम??

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