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मई 2012 रोहतक की एक घटना




मई २०१२ का समय था, मेरे पास एक सज्जन आये थे, नाम था अशोक, आये थे जिला रोहतक से, सरकारी मुलाज़िम थे, सीधे सादे और स्पष्ट व्यक्तित्व उनका! साथ में उनकी पत्नी श्रीमती ममता भी थीं, वे भी सरल स्वभाव की महिला थीं, उन्होंने जो समस्या बताई थी उस से मुझे भी झटका लगा था, डॉक्टर्स, अस्पताल सभी चल रहे थे, कई कई परीक्षण भी हुए लेकिन नतीजा सबका वही सिफर का सिफर!
समस्या उनकी बड़ी बेटी नेहा में थी, उसको एक आँख से दीखना बंद हो गया था, एक हाथ ने काम करना बंद कर दिया था, बोला जाता नहीं था और खड़े होते ही पाँव सुन्न हो जाता था उसका डायन, डॉक्टर्स की पकड़ में बात या मसला या मर्ज़ हाथ नहीं आ रहा था, पहले पहल तो मुझे भी ये चिकित्सीय समस्या लगी थी, तब मैंने उसका फ़ोटो मंगवाया था, आज ये फ़ोटो लेकर आये थे, जब मैंने फ़ोटो देखा और देख दौड़ाई तो समय उसी में अर्थात नेहा में ही लगी! अब समस्या क्या थी, ये वहीँ जाकर पता चल सकता था, अतः नेहा को देखने के लिए मैंने आगामी शनिवार जो कि दो दिन बाद था, का समय दे दिया, मैं रोहतक पहुंचूंगा करीब दिन में ग्यारह बजे शर्मा जी के साथ, इसके बाद वे दंपत्ति चले गए थे!
अब शर्मा जी ने पूछा!
"ऐसा क्या हो सकता है?"
"हो तो बहुत कुछ सकता है" मैंने कहा,
"मसलन?" उन्होंने जिज्ञासावश पूछा,
"कोई लपेट, कोई आसक्ति या कोई प्रयोग" मैंने बताया,
"अच्छा!" वे बोले,
"अब रोहतक जाना है?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
शाम हुई!
महफ़िल सजी!
तभी अशोक जी का फ़ोन आया, शर्मा जी ने सुना, पता चला कि छोटी बेटी को भी ऐसे ही लक्षण दिखायी दे रहे हैं और डॉक्टर्स इसको कोई आनुवांशिक रोग केह रहे हैं, मुझे हैरत हुई!
उनको दिलासा दी और फ़ोन काट दिया!
हमने अब अपनी महफ़िल में चार चाँद लगाए मदिरा से!
खा-पी कर सो गए!
फिर आया इतवार!
हम निकल पड़े तभी करीब नौ बजे, मेरे जाने से पहले मुझे किसी के रोने की आवाज़ आयी, मैंने आसपास देख कोई नहीं था, बड़ी अजीब सी बात थी!
खैर, हम चल पड़े!
ग्यारह बजे हम रोहतक पहुंचे, अशोक जी को खबर कर दी गयी थी, वे हमे घर में ही मिले, हम अब घर में गए! घर में मुर्दानगी छायी थीं, एक मनहूसियत!
"नेहा कहाँ है?" मैंने पूछा,
"ऊपर के कमरे में है" वे बोले,
"मुझे दिखाइये?" मैंने कहा,
"चलिए" वे बोले,
हम चले,
मैं अंदर घुसा तो बदबू का भड़ाका आया! मुर्दे की सड़ांध की बदबू! असहनीय बदबू! मैंने रुमाल से नाक भींच ली,
सो रही थी नेहा, एक दरम्याने कद के लड़की!
"नेहा?" उसके पिता जी ने आवाज़ दी,
वो नहीं उठी!
और तभी मैंने एक बात पर गौर किया!
एक दीवार पर करीब छह छिपकलियां इकट्ठी हो गयीं थीं, सर उठाये सभी मुझे ही घूर रही थीं!
मैं एक कुर्सी पर बैठ गया!
कई आवाज़ें दीं तो उठी नेहा!
और...

आँखें मींडते हुए उठ गयी नेहा, उसने हमे देख नमस्कार की और एक अनजान सी निगाह से हमको देखा, उम्र रही होगी करीब इक्कीस या बाइस बरस, उस से अधिक नहीं, मैंने उसको पूरा देखा, ऊपर से नीचे तक, कोई निशान या कोई लपेट नहीं थी उसमे, ये चौंकाने वाली बात थी!
"अशोक जी, एक गिलास पानी लाइए" मैंने कहा,
वो पानी लेने गए,
"क्या नाम है तुम्हारा?" मैंने नेहा से पूछा,
जानबूझकर!
"ने...ने...नेहा" उसने उबासी लेते हुए बताया,
"क्या समस्या है तुम्हारे साथ?" मैंने पूछा,
"कुछ भी नहीं? क्यों?" उसने मुझसे ही प्रश्न कर दिया,
अब तक पानी आ गया था, बात आधी ही रह गयी,
मैंने पानी को अभिमंत्रित किया और नेहा से कहा, "ये पानी पियो"
"उसने पानी का गिलास लिया!
उसको देखा,
सूंघा!
और नीचे बिखेर दिया!
बड़ी अजीब सी बात थी!
"नेहा?" चिल्लाये अशोक!
"ये क्या तंतर-मंतर है?" उसने पिता पर ध्यान नहीं दिया और मुझसे ही पूछा,
"किसने कहा ये तंतर-मंतर है?" मैंने उस से पूछा,
उसने मुंह फेर लिया!
"पापा, इनसे कहो ये जाएँ यहाँ से इसी वक़्त" उसने धमका के कहा!
अब मैं कुछ समझा!
"नेहा?" मैंने कहा,
"क्या है?" उसने झुंझला के पूछा,
"क्या नाम बताया तुमने अपना?" मैंने पूछा,
"क्यों? सुना नहीं?" उसने आँखें निकाल कर कहा!
"नहीं, भूल गया!" मैंने तपाक से उत्तर दिया!
"नेहा!" उसने कहा,
"नेहा तो इस लड़की का नाम है जिसकी देह है, तेरा नाम क्या है?" मैंने पूछा,
इस सवाल से अशोक जी को करंट सा लग गया! और नेहा संयत हो गयी!
"क्यों तुम्हे मैं कौन लगती हूँ?" उसने प्रश्न किया,
"मुझे तुम नेहा नहीं लगती" मैंने कहा,
"फिर?" उसने पूछा,
"ये तो तुम ही बताओ?" मैंने कहा,
अशोक जी घबराये!
मैंने उनको उनका हाथ पकड़ के नीचे बिठा लिया सोफे पर!
"हाँ? बता?" मैंने पूछा,
"जा,जा अब जा यहाँ से" उसने बेढंग से कहा,
"और न जाऊं तो?" मैंने कहा,
"तेरे बसकी बात नहीं, सुना?" उसने कहा,
अब तय हो गया कि नेहा, नेहा नहीं!
"तू बताती है या बकवाऊं तुझसे?" मैंने खड़े होकर पूछा,
'अच्छा! हाथ तो लगा कर देख, उखाड़ के फेंक दूँगी!" उसने कहा,
इतना सुन्ना था और मैंने खींच के एक झापड़ रसीद कर दिया उसको, वो पीछे गिर पड़ी!
खूंखार कुत्ते के भंति मुझपर झपटी तो मैंने एक और हाथ दिया उसको! वो फिर से नीचे गिरी, वो फि उठी तो अबकी बार शर्मा जी और अशोक ने पकड़ लिया उसे! वो अशोक के गर्दन पर काटने के लिए मशक्क़त करने लगी!
मुझे समय मिला और मैंने हामिर-अमल पढ़ दिया! और उसके चेहरे पर पानी फेंक मारा! झटके खाकर वो ढीली होती चली गयी और उन दोनों की बाजुओं में झूल गयी!
"लिटा दो इसको" मैंने कहा,
उन्होंने लिटा दिया!
वो लेट गयी, आँखें बंद करके!
और मैं वहीँ सोफे पर बैठ गया!


ये लपेट लगती थी, परन्तु ये पता लगाना था कि ये लपेट कहीं से लगी है या फिर किसी ने लगायी है, और नेहा हर हालत में ये कभी नहीं बताने वाली थी, इसीलिए मैंने अशोक जी से ही सवाल किये, "किसी से कोई पारिवारिक शत्रुता तो नहीं?"
"नहीं गुरु जी" वे बोले,
पहली शंका समाप्त!
"अच्छा, नेहा का किसी से कोई प्रेम-प्रसंग तो नहीं?" मैंने पूछा,
"नहीं गुरु जी" वे बोले,
दूसरी शंका भी समाप्त!
"आपने फ़ोन पर बताया था कि छोटी लड़की के ऊपर भी ऐसे ही असरात हैं, वो कहाँ है?" मैंने पूछा,
"अब वो ठीक है, आज अपनी बुआ के घर गयी है" वे बोले,
"अच्छा, एक बात और नेहा कहीं जल्दी में बाहर गयी थी?" मैंने पूछा,
"नहीं गुरु जी" वे बोले,
तीसरी शंका ने भी दम तोड़ा!
अब तक नेहा की माता जी भी आ चुकी थीं वहाँ, वो दरअसल चाय के लिए आयी थीं, बताने, नेहा को सोते देखा तो घबरा गयीं, शर्मा जी ने समझा बुझा दिया, फिर भी वे वहीँ बैठ गयीं,
अब मैंने ममता जी से प्रश्न किया, "क्या कोई ऐसी बात तो नेहा ने आपको बताई हो?"
"नहीं जी" उन्होंने उत्तर दिया,
अर्थात मेरे लिए और मुश्किलें बढ़ीं!
"आपकी छोटी बेटी का क्या नाम है?'' मैंने पूछा,
"सोनिया" वे बोलीं,
"क्या उसने कुछ बताया हो?'' मैंने पूछा,
"नहीं जी" वे बोलीं,
यहाँ भी रास्ता बंद!
तभी नेहा के बदन में झटके से लगे! वो झूलती हुई सी खड़ी हो गयी, बैठ गयी, डरावने तरीके में, गर्दन नीचे किये हुए और दोनों हाथ आगे करके!
ये निश्चित रूप से भयानक लपेट थी!
उसको ऐसा करते देख अशोक और ममता जी चिल्लाने लगे, हाल ऐसा कि जैसे बकरे को कसाई का चापड़ दिखायी दे जाए! बड़ी मुश्किल से उनको शांत किया, रोते-चिल्लाते ममता जी कमरे से बाहर भाग गयीं!
अब मैं खड़ा हुआ!
उसके पास तक गया, वो उसी रूप में गर्दन नीचे किये मेरी तरफ घूम गयी!
"कौन है तू?" मैंने पूछा,
कोई जवाब नहीं!
"बता? क्यों इस लड़की के पीछे पड़ी है?" मैंने पूछा,
पुनः कोई उत्तर नहीं!
अब मैंने एक मंत्र पढ़ा! इसको आमद-अमल कहा जाता है, मैंने मंत्र पढ़कर उसकी दिशा में फूंक मार दी, उसने मेरी तरफ झटके से गर्दन उठाई! उसकी काली पुतलियाँ गायब थीं, चढ़ा ली थीं उसने ऊपर! फिर हलके से मुस्कुराई!
"कौन है तू?" उसने मुझसे पूछा,
मैं कुछ नहीं बोला,
उसने फिर से गर्दन नीचे की,
मैंने फिर से मंत्र फूंका,
उसने फिर से गर्दन ऊपर उठायी, अबकी काली पुतलियाँ अपनी जगह थीं!
"कौन है तू?" उसने पूछा,
अब मैंने अपना परिचय दे दिया, देना पड़ा!
"क्या करने आया है?" उसने पूछा,
"कौन है तू ये बता?" मैंने कहा,
"क्या करेगा?" उसने नशे की सी हालत में पूछा,
"बकवास न कर, जल्दी बता?" मैंने कहा,
ना बोली वो कुछ भी!
फिर से झटके खाये और नीचे गिर गयी!
जो भी था या थी, अब नहीं था या थी, वो जा चुका था!
मैं फिर से अपनी जगह जा बैठा!

ये..क....क्या है गुरु जी?" कांपते से बोले अशोक जी,
"कोई लपेट है अशोक जी, वही पता कर रहा हूँ" मैंने कहा,
"ये ठीक तो हो जायेगी न?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, हाँ क्यों नहीं" मैंने कहा,
"मेरी बच्ची को बचा लो गुरु जी, बड़ा एहसान होगा आपका!" उनकी रुलाई फूट पड़ी ये कहते ही,
मैंने चुप किया उनको,
"आप ज़रा बाहर जाएँ, मैं मालूम करता हूँ" मैंने कहा,
वे बाहर गए तो मैंने दरवाज़ा बंद कर दिया अंदर से,
"शर्मा जी, वो लौंग का जोड़ा निकालिये" मैंने कहा,
"उन्होंने एक पोटली से लौंग का जोड़ा निकल लिया और मुझे दे दिया,
मैंने उस जोड़े को एक मंत्र पढ़ते ही जला दिया,
वो जल पड़ा,
जलते ही खड़ी हो गयी वो!
गर्दन नीचे किये हुए,
"अब बता कौन है तू?" मैंने पूछा,
वो हंसने लगी!
हंसती रही!
और तेज!
और तेज!
मैंने एक लौंग मंत्र पढ़कर मारी उसको, लौंग लगते ही वो चिल्लाई और वहीँ बैठ गयी!
फिर हंसने लगी!
अब मुझे गुस्सा आया!
"बताती है या बकवाऊं?" मैंने कहा,
"जो करना है कर ले" उसने धीरे से कहा,
"ठीक है, ऐसे नहीं मानेगी तू" मैंने कहा, और अब मैंने एक मंत्र पढ़ा, अपने एक महाप्रेत को बुलाने के लिए!
आश्चर्य वो हाज़िर नहीं हुआ!
मतलब ये ताक़त वैसी नहीं है जैसा मैंने अनुमान लगाया था!
उसने ताली मारी!
"नहीं आया!" वो बोली,
ताली मारी!
"नहीं आया! मेरा बच्चा नहीं आया!" वो बोली,
क्या?
बच्चा?
महाप्रेत बच्चा?
ये कौन है फिर?
"कौन है तू?" मैंने पूछा,
अब उसने एक अजीब सी भाषा बोली, बेहद अजीब, मुझे कुछ भी समझ नहीं आया, ख़ाकधूर!
"क्या हुआ रे?" उसने हँसते हुए कहा,
इस से पहले मैं जवाब देता वो लपक के मेरी और आयी और मुझे मेरे गले से पकड़ लिया! मेरे गले पैर उसके नाख़ून गढ़ गए, शर्मा जी ने छुड़ाने की कोशिश की तो उनको एक हाथ से धक्का देकर बिस्तर पर गिरा दिया! बड़ी भयानक स्थिति, वो गुस्सैल कुत्ते की तरह गुर्राए जा रही थी! संघर्ष ज़ारी रहा!
"बुला? किसको बुला रहा है, मैं भी देखूं?" उसने कहा,
अब मेरे पास कोई रास्ता नहीं था, मैंने तभी इबु का शाही रुक्का पढ़ा!
इबु! हाज़िर हुआ इबु! उसने आव देखा न ताव, नेहा को उठाया और सामने दीवार पर फेंक के मारा! मेरी गर्दन से रगड़ते नाखूनों ने खून निकाल दिया! इबु फिर बढ़ा और और उसको उठाया और फिर बिस्तर में मारा फेंक कर, दीवान का पाट टूटा और वो उसके अंदर!
इबु फिर भी नहीं रुका, उसको उसकी टांग से पकड़ा और फिर खींच कर बाहर निकला, तब तक उसके अंदर से वो बहार निकल चुकी थी या था, जो कुछ भी था!
गुस्से में फुफकारता हुआ खड़ा रह गया!
अब मैंने इबु को वहाँ से लोप किया,
तोड़-फोड़ और छीन-झप्पटा सुनकर सभी भागे वहाँ! दीवान टूटा था, वे घबराये, शर्म जी को मैंने देखा, उनका चेहरा छिल गया था, ऊँगली का नाख़ून फट गया था! और नेहा टूटे दीवान पर औंधे मुंह लेटी हुई थी!
"क्या हुआ गुरु जी?" अशोक ने कांपते कांपते पूछा,
"ये जो कोई भी है बहुत शक्तिशाली है" मैंने कहा,
"कौ...कौन है ये?" उन्होंने पूछा,
"अभी नहीं पता" मैंने कहा,
वे ठगे से रह गए!
"शर्मा जी के साथ मैं बहार निकला, अशोक भी आ गए बाहर, मेरा खून और शर्मा जी का हाल देखकर वे अब घबरा गए!
अब मैंने वो कमरा और उसका प्रवेश-द्वार कीलित कर दिया!
"डॉक्टर पर चलिए" मैंने कहा,
"जी" अशोक जी ने कहा,
हम डॉक्टर पर गए, टिटनेस के इंजेक्शन लगवाए और शर्मा जी का नाख़ून काट कर पट्टी कर दी डॉक्टर ने!
वापिस घर आये!
नेहा कमरे में कुछ गाना सा गा रही थी!
उसने हमको देखा!
हंसी! ताली मारी!
"तू फिर आ गया?" उसने पूछा,
"हाँ! तू भाग गयी थी ना, इसलिए?" मैंने कहा,
"भागी कहाँ?" उसने पूछा,
"बकवास ना कर" मैंने कहा,
अब वो हंसी! जैसे मैंने मजाक किया हो!
"मैं तो कहीं नहीं भागी?'' वो बोली,
"झूठ बोलती है?" मैंने कहा,
"मुझे किसका डर पड़ा जो भागूंगी?" उसने कहा,
अब मैं घूमा! घूमा इसलिए कि ये सच में ही नहीं भागी, भागा कोई और था, और ये कोई और थी, दो सवार थीं उस पर! अब मैंने जानने का प्रयास किया, ताकि कुछ हाथ लगे,
"कौन है तू?" मैंने पूछा,
"विमला" उसने कहा,
"कौन विमला?'' मैंने पूछा,
"बहादुरगढ़ वाली विमला, ये अशोक जानता है" वो बोली,
अब अशोक का रहा मुंह खुला!
ममता जैसे गिरने ही वाली थीं ज़मीन पर!
"कौन है ये विमला?" मैंने अशोक से पूछा,
"जी...जी..." शब्द न निकले मुंह से उनके,
"बताइये?" मैंने पूछा,
"जी...मेरी बहन, बड़ी बहन" वो बोले,
"हाँ! अब बोला कुत्ता!" नेहा ने हँसते हुए कहा,
कुत्ता?
एक बहन अपने भाई को कुत्ता क्यों बोल रही है?
"अशोक जी? इसने आपको कुत्ता क्यों कहा?" मैंने पूछा,
"इसकी बनती नहीं थी हमारे परिवार से" वे बोले,
"झूठ बोलता है कुत्ता!" नेहा ने कहा,
"झूठ कैसे?" मैंने पूछा,
"इसने पैसा नहीं दिया मेरा, मेरा घर गिरवी पड़ा था, आदमी मेरा था नहीं, इसको मालूम था, बीमार पड़ी मैं बहुत, मैं चल बसी, मेरा बेटा इसके पास आया इसने झूठ बोला कि कोई पैसा नहीं लिया, पूछो इस से?" वो गुस्से से बोली,
"क्या ये सच है?" मैंने पूछा अशोक से,
"हा..जी" वे बोले,
चेहरा फक्क!
हालत पस्त!
रंगे हाथ पकड़ा गया हो चोर जैसे!
"कितना पैसा लिया था?" मैंने पूछा,
"पांच लाख" वे बोले,
"कब?" मैंने पूछा,
"दस साल हुए" वे बोले,
"हम्म, किया तो आपने बहुत ही गलत, और भुगत रही है बेचारी ये लड़की" मैंने कहा,
"विमला?" मैंने पूछा,
"हाँ?" उसने कहा,
"तेरे पैसे मिल जायेंगे तुझे मय ब्याज" मैंने कहा,
वो रो पड़ी!
रोते रोते जो समझ आया वो यही कि अब उसका लड़का भी ज़िंदा नहीं था, उसने आत्महत्या कर ली थी,
बहुत बुरा हुआ था,
मैं भी परेशान हो गया,
अशोक की रुलाई फूट पड़ी,
दोषाभिव्यक्ति से!
"विमला?" मैंने पूछा,
"हाँ?" उसने कहा,
"तुझे किसी ने भेज या तू स्व्यं आयी यहाँ?" मैंने पूछा,
"खुद आयी हूँ" उसने कहा,
इतना कहा और धम्म से गिर पड़ी नेहा!
चली गयी विमला!
ये विमला थी तो पहले कौन था?
ये क्या हो रहा था?
नेहा कहाँ है?
बड़ा अजीबोगरीब किस्सा हो चला था ये!
तभी फिर से हरक़त हुई उसमे! कमर अकड़ गयी उसकी और फिर उठ बैठी!
"कौन?" मैंने पूछा,
"सलाम उस्ताद!" उसमे से एक मर्दाना आवाज़ आयी!
मैं चौंका!
"कौन?" मैंने पूछा,
"इकराम हूँ साहब मैं!" उसने बताया,
अब जैसे मेरे ऊपर पानी का बड़ा सा भांड फूटा, जैसे आँखें खोलने का मौका भी नहीं मिला और फुरफुरी चढ़ गयी!
"कहाँ से आये हो?" मैंने पूछा,
"यहीं से, हुमायुंपुर से ही?" उसने हंस के कहा,
"अच्छा, यहाँ क्या कर रहे हो?" मैंने पूछा,
"तफरीह!" उसने कहा,
बड़ा बेबाक था!
"किसने भेजा इकराम तुझे?" मैंने पूछा,
"भेजा किसी ने नहीं है साहब, बस जगह खाली थी सो चला आया!" उसने कहा,
"खाली जगह?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" उसने कहा,
"समझाओ मुझे तफ्सील से?" मैंने कहा,
"लीजिये, यहाँ भीड़ खड़ी है साहब!" उसने कहा,
"कौन कौन है?" मैंने पूछा,
"अभी बताता हूँ" उसने कहा,
फिर नेहा ने अपनी उँगलियों पर गिना!
"जी यहाँ पर मेरे यार है तीन" वो बोला,
"कौन कौन?" मैंने पूछा,
"जी बजा माफ़ करे, एक मैं हूँ इकराम, दूसरा मेहबूब, तीसरा अशरफ और चौथा एहसान" उसने बताया,
मुझे झटका लगा!
खाली जगह!
अब मैं समझ गया!
समझ गया सारा मसला!
नेहा सवारी थी और ये सारे सवार!
वाह!
भाई वाह!
जो भी खिलाड़ी था बेहद मुलव्विस खेल खेल रहा था!
क्या कहने!
"इकराम, मियाँ बात ऐसी है, अभी इसी वक़त आप और आपके यार, तशरीफ़ ले जाएँ, मुनासिब होगा!" मैंने कहा,
"जी साहब! गुस्सा न करें, अब हमारी क्या बिसात! हम चले यहाँ से, बजा माफ़ करे!" उसने कहा,
चार झटके खाये उसने और साफ़!
अब मैंने शर्मा जी को वहीँ रखा और सभी को बाहर किया वहाँ से, और फिर मैंने बाल पकडे उसके! और इबु का शाही-रुक्का पढ़ दिया!
इबु ज़र्र से हाज़िर हुआ!
मैंने उस से 'जगह' साफ़ करने को कहा!
और अब इबु ने लगाईं झाड़!
एक एक को फेंका उसने!
न जाने कितने सवार!
मचा दी चीख पुकार!
मैंने अब इबु को वहीँ मुस्तैद कर दिया और फिर एक धागा बनाया! धागा अभिमंत्रित किया और नेहा के गले में बाँध दिया! कुछ घंटों के लिए अब कोई सवार नहीं अ सकता था!
अब इबु भी वापिस हो गया!
अन!
सबसे बड़ा सवाल!
कौन है वो खिलाड़ी?
खिलाड़ी!
कौन है ये खिलाडी? जो परदे के पीछे से सारी चाल चल रहा है, बेहद करीने से! मानना पड़ेगा, बहुत कुशल और चालाक खिलाड़ी है! उसने नेहा कि रूह पर कब्ज़ा कर लिया है, और फिर उसको कैडि सा बना कर जगह खाली कर दी है, आये कोई भी आये! ये विद्या काहूत कही जाती है! बदला लेने की ये ज़बरदस्त कारीगरी है! अब यही खोजना था!
नेहा शांत लेटी थी, एक दम शांत, मैंने उसके माँ-बाप को अब बुला लिया अंदर, अब मैं उसको होश में लाने वाला था इसीलिए,
"नेहा?'' मैंने कहा,
वो अलसाई!
"खड़ी हो जाओ" मैंने कहा,
वो कसमसाई, अपने आप में सिमटी,
"उठो?" मैंने कहा,
वो उठ गयी, अंगड़ाई लेते हुए! हमे देख घबरा गयी! हम अनजान थे उसके लिए, उठते ही उसने अपनी चुन्नी ढूंढी जो उसको उसी माता जी ने दे दी, वो समझ नहीं पायी कि आखिर हम कौन लोग हैं और क्यों आये हैं?
"अब कैसी हो?" मैंने पूछा,
"ठीक" उसने कहा,
मुझे तसल्ली हुई!
"नेहा, कुछ सवाल पूछूंगा, मुझे उसके सही सही जवाब देना" मैंने कहा,
अब वो अनजान को सवाल के जवाब क्यों दे?
आखिर में उसके पिता जी ने सारी बात समझायी, वो हुई तो परेशान लेकिन फिर हामी भर ली!
"क्या करती हो?" मैंने पूछा,
"चार महीने पहले नौकरी शुरू कि है एक बीमा एजेंट के यहाँ, साथ ही साथ पढ़ाई भी चल रही है" उसने बताया,
अब शर्मा जी तैयार थे कागज़ और कलम लिए, उन्होंने विवरण लिख लिया,
"कौन है ये बीमा एजेंट?" मैंने पूछा,
"अजय सक्सेना" उसने बताया,
"क्या उम्र होगी?" मैंने पूछा,
"कोई चालीस साल" वो बोली,
"कहाँ रहता है?" मैंने पूछा,
"यहीं रोहतक में" उसने बताया,
"कितने लोग काम करते हैं वहाँ और?" मैंने पूछा,
"चार लोग" उसने बताया,
"और कौन लड़की है वहाँ?" मैए पूछा,
"तीन और हैं" उसने कहा,
"शादी शुदा हैं सभी?" मैंने पूछा,
"दो हैं, एक नहीं" उसने बताया,
अब मैंने सभी के नाम लिख लिए, अर्थात शर्मा जी ने लिख लिए,
"किस के साथ अंतरंगता है तुम्हारी?" मैंने पूछा,
"एक लड़की मनीषा से" मैंने पूछा,
"तुमसे बड़ी है या छोटी?' मैंने पूछा,
"बड़ी है" उसने बताया,
अभी तक तो कोई संदिग्ध नहीं मिला था!
"नेहा, कोई प्रेम-सम्बन्ध है तुम्हारा?" मैंने पूछा,
अब वो चुप!
"चुप न रहो, तुम्हारी जान पर बनी है, समझ जाओ?" मैंने कहा,
अब वो चुप फिर से!
"मुझे बताओ?" मैंने कहा,
"नहीं" उसने कहा,
"झूठ" मैंने कहा,
"नहीं, कोई सम्बन्ध नहीं" उसने कहा,
"फिर से झूठ" मैंने टटोला उसको,
"विश्वास कीजिये" वो बोली,
"ठीक है" मैंने कुछ सोच के बोला,
"तुम बीमार हो?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने गर्दन हिलायी,
"कहीं बाहर गयी थीं?" मैंने पूछा,
"नहीं" उसने उत्तर दिया,
"कुछ बाहर खाया था?" मैंने पूछा,
"नहीं" उसने बताया,
कुछ हाथ नहीं लगा पेंच!
अब कुछ नाम जो आये थे, उनकी जांच करनी थी! हो सकता था कुछ हाथ लग जाए!
"ठीक है, तुम नहा-धो कर आओ पहले" मैंने कहा,
वो उठी और चली गयी अपनी माँ के साथ!
मुझे एक खाली कमरा चाहिए" मैंने अशोक से कहा,
"जी" वे बोले, उठे और चल दिए, हम दोनों उनके पीछे पीछे चल दिए,
उन्होंने एक कमरा दिखा दिया, कमरा खाली था, बस कुछ सामान रखा था वहाँ, उस से कोई परेशानी नहीं थी,
"ये ठीक है" मैंने कहा,
अब शर्मा जी और अशोक को बाहर भेजा मैंने, एक चादर बिछायी और मैं कुछ पढ़ने बैठ गया, एक महाप्रेत का आह्वान किया, ये कारिंदे की तरह से काम करता है, नाम है जल्लू, जल्लू हाज़िर हुआ, मैंने उसको उद्देश्य बताया, उसने सुना और फुर्र हुआ, दूसरे ही क्षण वापिस आ गया, और उसने मुझे एक नाम बताया, गोविन्द, बस! इतना बताते ही वो लोप हो गया, भोग उधार कर गया! अब इस नाम से कुछ पता नहीं चल सकता था, हज़ारों गोविन्द होंगे, अब क्या कौन और कहाँ हैं और कैसे सम्बंधित है नेहा से, क्या पता? इसलिलिये मैंने अब सुजान को हाज़िर किया, सुजान टकराऊ है, सुनता है और समझता है, सुजान हाज़िर हुआ, और अपना उद्देश्य जान वो चला वहाँ से! अब मुझे इत्मीनान हुआ!
कुछ देर हुई!
करीब दस मिनट!
और सुजान वापिस हुआ!
और जो सुजान ने जानकारी दी वो वाक़ई हैरत में दाल देने वाली थी!
सारी गलती इस लड़की नेहा की थी!
दरअसल नेहा के एक लड़के गोविन्द से प्रेम-सम्बन्ध थे, ये मैं जानता था, उसके भाव सबकुछ बता चुके थे, और नेहा उस लड़के पर निरंतर दबाव बनाती थी कि वो शादी का प्रस्ताव लेकर अपने माँ-बाप के साथ उसके घर आये, गोविन्द का भी कोई पक्क रोज़गार नहीं था, पिता पर आश्रित था, दो बड़े भाई थे, एक अविवाहित था, पिता के व्यापार में सभी साझी थे, तो विावह उस समय नहीं हो सकता था, निरंतर त्रस्त रहने से गोविन्द ने ये बात अपने मामा को बताई, उसने मामा अखिल ने इस लड़की नेहा का मुंह बंद करने के लिए एक खिलाडी बाबा असद को चुना और ये लड़की उस चतुर बाबा असद के चंगुल में आ गयी! अब ये बाबा असद की चौपड़ की गोटी थी! बाबा असद इसको जब चाहे, जहां चाहे चल ले!
जड़ पकड़ में आयी तो अब उखाड़ना भी बाकी था, सो मैंने अब रणनीति बनाना आरम्भ किया! मैंने ककश से बाहर आया, शर्मा जी और अशोक वहीँ खड़े थे, मैंने शर्मा जी को अंदर बुला लिया और सारी कहानी से अवगत करा दिया! उनको भी हैरत हुई! नेहा ऐसी लगती नहीं थी!
"अब क्या किया जाए?" मैंने पूछा,
"सबसे पहले तो अशोक को खबर की जाये, फिर इस बाबा असद की खबर लीजये" वे बोले,
"हाँ, ये सही है" मैंने कहा,
अब शर्मा जी ने अशोक को बुलाकर सारी बात बता दी अशोक को! अशोक को तो घड़ों पानी फिर गया, आँखों से आंसू निकल आये!
शर्मा जी ने समझाया बुझाया!
"चलो, अब नेहा से बात करते हैं" मैंने कहा,
"चलिए" अशोक ने कहा,
अब हम नेहा के कमरे में आये, वो नहा-धो कर बैठी थी, साथ में उसकी माता जी भी! हम वहीँ बैठ गए!
"नेहा?" मैंने कहा,
"जी?" वो चौंकी,
"ये गोविन्द कौन है?" मैंने पूछा,
कपडा सा फट गया!
उसको जैसे दामिनी-पात हुआ!
"नहीं पता?" मैंने पूछा,
होंठ चिपक गए उसके!
"बताओ?" मैंने कहा,
अब सबकी निगाह टकराई उस से!
"कौन है ये गोविन्द?' मैंने पूछा,
"म...मुझे नहीं मालूम" वो बोली,
"नहीं मालूम?" मैंने ज़ोर से पूछा,
"नहीं" उसने कहा,
"तुम्हारा प्रेमी नहीं वो?" मैंने अब स्पष्ट किया,
वो चुप!
"बताओ?" मैंने पूछा,
नहीं बोली कुछ!
"ठीक है, अब देखो उसका क्या हाल होता है, जैसा उसने तुम्हारे साथ किया वैसा ही उसके साथ होगा!" मैंने कहा,
प्रेम था तो घबराहट भी होनी ही थी! सो घबरा गयी!
"इसकी नौकरी छुड़वाओ, घर पर बिठाओ और आनन्-फानन में जो रिश्ता मिले इस घर से विदा करो" मैंने जानबूझकर ऐसा कहा,
"जी" अशोक ने समर्थन किया!
"जी, मैं केवल आपसे बात करना चाहती हूँ" नेहा ने कहा,
"नहीं, सबके सामने कहो" मैंने कहा,
फिर से चुप!
अब सबके सामने बात कैसे हो? संकोच जो था! माँ-बाप से छुपाओगे तो यही होगा ना? पुत्र-पुत्री को माता-पिता से और पति को पत्नी से और पत्नी को पति से कभी कुछ नहीं छिपाना चाहिए, गलती भी हो जाए तो बता देना चाहिए अन्यथा परिणाम गम्भीर ही होता है, और यही हुआ था नेहा के साथ, उसने एक तरह से दबाव बनाया गोविन्द पर, और अल्प-बुद्धि गोविन्द जब समझाने से हारा नेहा को तो उसने ये निर्णय लिया!
"बोलो अब?" मैंने कहा,
अब कुछ ना बोले वो!
"बताओ बेटी?" अशोक ने कहा,
माँ पास जा बैठी, सीने से लगाया और पूछा,
अब बोलने लगी नेहा!
सब क़ुबूल कर लिया उसने!
मुझे तसल्ली की साँसें आने लगीं!
'अशोक साहब?" मैंने पूछा,
"हाँ जी?" वे चौंके,
"यदि लड़के के माँ-बाप मान जाएँ विवाह हेतु तो क्या आप विवाह के लिए तैयार हैं नेहा के उस लड़के गोविन्द से?"
"मुझे कोई आपत्ति नहीं" वे बोले,
"ले देख नेहा!" मैंने कहा,
संकोच!
"ले, यदि तूने पहले बता दिया होता तो ये दिन ही नहीं आता, तू काहे परेशान होती?" मैंने कहा,
ग्लानि भावना!
"शर्मा जी, तैयार हो जाइये, अशोक जी आप भी" मैंने कहा,
"मैं तैयार हूँ" अशोक बोले,
दरअसल हमे जाना था बाबा असद के पास! बाबा असद का पता दे दिया था हमको कारिंदे ने!
अब हम चल पड़े वहाँ से! एक बात और, नेहा के पास अभी तक कोई नहीं आया था!
बाबा असद, रोहतक से थोडा दूर दिल्ली-बाय पास के समीप रहता था, हमने फ़ौरन गाड़ी स्टार्ट की और चल दिए!
घंटे भर में वहाँ पहुंचे, रास्ता साफ़ था, सीधे बाबा असद के पास पहुंचे, कोई दिक्कत नहीं हुई!
बाबा असद अपने घर में ही था, छोटा सा घर!
हम घर में घुसे, वो तखत पर बैठा था!
"आइये आइये!" वो बोला और उठा!
करीब साठ का रहा होगा वो!
हम बैठ गए वहाँ, उसने पानी मंगवा लिया, हमने पानी पिया!
"अब ठीक है लड़की?" उसने पूछा,
होश उड़े अशोक के!
"हाँ" मैंने कहा,
"चलो, बड़ी अच्छी बात है" वो बोला,
उसमे कपट नहीं था! क़तई नहीं!
"वैसे बाबा, लड़की मर जाती तो?" मैंने पूछा,
"नहीं, आप तो जानकार हैं, जब आपने छुआ तो मैं समझ गया, और हाँ मियादी कम था, केवल लपेट लगाईं थी, मैं भला क्यों मारूंगा, मैंने तो लड़के को कहा था, कि ये गलत है और तू अपने माँ-बाप से बात कर और मना उन्हें, ब्याह करना ही होगा तुझे" बाबा ने कहा,
ये सच था!
"तो उसने बात की?" मैंने पूछा,
"हाँ, उनके बड़े लड़के का भी रिश्ता तय हो गया है, अब दोनों लड़कों की शादी दो रोज आगे पीछे करेंगे वो! अब आपके पास भी आने ही वाले होंगे!" बाबा ने हंस के कहा,
मैंने यक़ीन किया!
बाबा असद ने फ़ोन किया लड़के के मामा अखिल को, और बुलवा लिया वहाँ, आधे घंटे में पहुँच जाने थे वो!
अब तक चाय और बिस्कुट मंगवा लिए थे बाबा असद ने, हमने चाय भी पी और बिस्कुट भी खाये!
"आजकल का वक़्त बहुत बदल गया है जी, हमारे वाला ज़माना नहीं रहा, अब सब अपनी अपनी मनमर्जी करते हैं, ये लड़का और लड़की अपने अपने घर में बात कर लेते तो ये नौबत कहाँ होती" वे बोले,
"सही कहा जी" मैंने कहा,
"चलो देर आये दुरुस्त आये" वे बोले,
"मैंने लड़के को समझाया था, लक बहुत घबराया हुआ था, लड़की ने ख़ुदकुशी की धमकी दी थी बेचारे को, अब मुझे ऐसा करना ही पड़ा, आप मुझे माफ़ करें, बच्ची हमारे घर में भी है, जैसी आपकी बेटी ऐसी मेरी बेटी, मैंने लड़के को धमकाया भी था, कोई चालगुरेजी की तो रूह को भी सजा दूंगा उसकी!" वे बोले,
लाख पते की बात!
आधा घंटा बीता नहीं होगा कि अखिल भी आ गए वहाँ, परिचय हुआ, बाबा असद ने हमारा ही पक्ष लिया और तज़वीज़ की कि हमको गोविन्द के माँ-बाप से मिलवा दें, बात तय हो जाये तो एक घर बसे! हमने बाबा असद को भी साथ ले लिया, वो ख़ुशी ख़ुशी तैयार हो गए, तैयार इसलिए कि खुद बताएं गोविन्द के माँ-बाप को कि लड़का क्या करवाने आया था अपने मामा के साथ!
और फिर वही हुआ! हम सभी पहुंचे गोविन्द के घर! गोविन्द ने बात कर ली थी अपने घर में! और अब बाबा असद ने सारी बात दोहरा दी! उसके माँ-बाप गोविन्द पर बड़े गुस्सा हुए, बेहद शालीन थे उसके माता-पिता! कुल मिलाकर बात पक्की या रिश्ता पक्का हो गया! आगे का कार्यक्रम भी पक्का हो गया!
बाबा असद को दोनों तरफ से निमंत्रण मिला, बाबा ने नेहा के तरफ से ही निमंत्रण माना और घराती हो गए!
सबकुछ निबट गया!
वर्ष २०१३ में दोनों परिणय-सूत्र में बंध गए! बाबा असद से मेरी मित्रता हो गयी! अब उनका मेरा आना जाना हैं!
नेहा और गोविन्द सभी खुश हैं!
जो मेरा कर्त्तव्य था, मैंने निभा दिया!
साधुवाद!

मई 2012 रोहतक की एक घटना




मई २०१२ का समय था, मेरे पास एक सज्जन आये थे, नाम था अशोक, आये थे जिला रोहतक से, सरकारी मुलाज़िम थे, सीधे सादे और स्पष्ट व्यक्तित्व उनका! साथ में उनकी पत्नी श्रीमती ममता भी थीं, वे भी सरल स्वभाव की महिला थीं, उन्होंने जो समस्या बताई थी उस से मुझे भी झटका लगा था, डॉक्टर्स, अस्पताल सभी चल रहे थे, कई कई परीक्षण भी हुए लेकिन नतीजा सबका वही सिफर का सिफर!
समस्या उनकी बड़ी बेटी नेहा में थी, उसको एक आँख से दीखना बंद हो गया था, एक हाथ ने काम करना बंद कर दिया था, बोला जाता नहीं था और खड़े होते ही पाँव सुन्न हो जाता था उसका डायन, डॉक्टर्स की पकड़ में बात या मसला या मर्ज़ हाथ नहीं आ रहा था, पहले पहल तो मुझे भी ये चिकित्सीय समस्या लगी थी, तब मैंने उसका फ़ोटो मंगवाया था, आज ये फ़ोटो लेकर आये थे, जब मैंने फ़ोटो देखा और देख दौड़ाई तो समय उसी में अर्थात नेहा में ही लगी! अब समस्या क्या थी, ये वहीँ जाकर पता चल सकता था, अतः नेहा को देखने के लिए मैंने आगामी शनिवार जो कि दो दिन बाद था, का समय दे दिया, मैं रोहतक पहुंचूंगा करीब दिन में ग्यारह बजे शर्मा जी के साथ, इसके बाद वे दंपत्ति चले गए थे!
अब शर्मा जी ने पूछा!
"ऐसा क्या हो सकता है?"
"हो तो बहुत कुछ सकता है" मैंने कहा,
"मसलन?" उन्होंने जिज्ञासावश पूछा,
"कोई लपेट, कोई आसक्ति या कोई प्रयोग" मैंने बताया,
"अच्छा!" वे बोले,
"अब रोहतक जाना है?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
शाम हुई!
महफ़िल सजी!
तभी अशोक जी का फ़ोन आया, शर्मा जी ने सुना, पता चला कि छोटी बेटी को भी ऐसे ही लक्षण दिखायी दे रहे हैं और डॉक्टर्स इसको कोई आनुवांशिक रोग केह रहे हैं, मुझे हैरत हुई!
उनको दिलासा दी और फ़ोन काट दिया!
हमने अब अपनी महफ़िल में चार चाँद लगाए मदिरा से!
खा-पी कर सो गए!
फिर आया इतवार!
हम निकल पड़े तभी करीब नौ बजे, मेरे जाने से पहले मुझे किसी के रोने की आवाज़ आयी, मैंने आसपास देख कोई नहीं था, बड़ी अजीब सी बात थी!
खैर, हम चल पड़े!
ग्यारह बजे हम रोहतक पहुंचे, अशोक जी को खबर कर दी गयी थी, वे हमे घर में ही मिले, हम अब घर में गए! घर में मुर्दानगी छायी थीं, एक मनहूसियत!
"नेहा कहाँ है?" मैंने पूछा,
"ऊपर के कमरे में है" वे बोले,
"मुझे दिखाइये?" मैंने कहा,
"चलिए" वे बोले,
हम चले,
मैं अंदर घुसा तो बदबू का भड़ाका आया! मुर्दे की सड़ांध की बदबू! असहनीय बदबू! मैंने रुमाल से नाक भींच ली,
सो रही थी नेहा, एक दरम्याने कद के लड़की!
"नेहा?" उसके पिता जी ने आवाज़ दी,
वो नहीं उठी!
और तभी मैंने एक बात पर गौर किया!
एक दीवार पर करीब छह छिपकलियां इकट्ठी हो गयीं थीं, सर उठाये सभी मुझे ही घूर रही थीं!
मैं एक कुर्सी पर बैठ गया!
कई आवाज़ें दीं तो उठी नेहा!
और...

आँखें मींडते हुए उठ गयी नेहा, उसने हमे देख नमस्कार की और एक अनजान सी निगाह से हमको देखा, उम्र रही होगी करीब इक्कीस या बाइस बरस, उस से अधिक नहीं, मैंने उसको पूरा देखा, ऊपर से नीचे तक, कोई निशान या कोई लपेट नहीं थी उसमे, ये चौंकाने वाली बात थी!
"अशोक जी, एक गिलास पानी लाइए" मैंने कहा,
वो पानी लेने गए,
"क्या नाम है तुम्हारा?" मैंने नेहा से पूछा,
जानबूझकर!
"ने...ने...नेहा" उसने उबासी लेते हुए बताया,
"क्या समस्या है तुम्हारे साथ?" मैंने पूछा,
"कुछ भी नहीं? क्यों?" उसने मुझसे ही प्रश्न कर दिया,
अब तक पानी आ गया था, बात आधी ही रह गयी,
मैंने पानी को अभिमंत्रित किया और नेहा से कहा, "ये पानी पियो"
"उसने पानी का गिलास लिया!
उसको देखा,
सूंघा!
और नीचे बिखेर दिया!
बड़ी अजीब सी बात थी!
"नेहा?" चिल्लाये अशोक!
"ये क्या तंतर-मंतर है?" उसने पिता पर ध्यान नहीं दिया और मुझसे ही पूछा,
"किसने कहा ये तंतर-मंतर है?" मैंने उस से पूछा,
उसने मुंह फेर लिया!
"पापा, इनसे कहो ये जाएँ यहाँ से इसी वक़्त" उसने धमका के कहा!
अब मैं कुछ समझा!
"नेहा?" मैंने कहा,
"क्या है?" उसने झुंझला के पूछा,
"क्या नाम बताया तुमने अपना?" मैंने पूछा,
"क्यों? सुना नहीं?" उसने आँखें निकाल कर कहा!
"नहीं, भूल गया!" मैंने तपाक से उत्तर दिया!
"नेहा!" उसने कहा,
"नेहा तो इस लड़की का नाम है जिसकी देह है, तेरा नाम क्या है?" मैंने पूछा,
इस सवाल से अशोक जी को करंट सा लग गया! और नेहा संयत हो गयी!
"क्यों तुम्हे मैं कौन लगती हूँ?" उसने प्रश्न किया,
"मुझे तुम नेहा नहीं लगती" मैंने कहा,
"फिर?" उसने पूछा,
"ये तो तुम ही बताओ?" मैंने कहा,
अशोक जी घबराये!
मैंने उनको उनका हाथ पकड़ के नीचे बिठा लिया सोफे पर!
"हाँ? बता?" मैंने पूछा,
"जा,जा अब जा यहाँ से" उसने बेढंग से कहा,
"और न जाऊं तो?" मैंने कहा,
"तेरे बसकी बात नहीं, सुना?" उसने कहा,
अब तय हो गया कि नेहा, नेहा नहीं!
"तू बताती है या बकवाऊं तुझसे?" मैंने खड़े होकर पूछा,
'अच्छा! हाथ तो लगा कर देख, उखाड़ के फेंक दूँगी!" उसने कहा,
इतना सुन्ना था और मैंने खींच के एक झापड़ रसीद कर दिया उसको, वो पीछे गिर पड़ी!
खूंखार कुत्ते के भंति मुझपर झपटी तो मैंने एक और हाथ दिया उसको! वो फिर से नीचे गिरी, वो फि उठी तो अबकी बार शर्मा जी और अशोक ने पकड़ लिया उसे! वो अशोक के गर्दन पर काटने के लिए मशक्क़त करने लगी!
मुझे समय मिला और मैंने हामिर-अमल पढ़ दिया! और उसके चेहरे पर पानी फेंक मारा! झटके खाकर वो ढीली होती चली गयी और उन दोनों की बाजुओं में झूल गयी!
"लिटा दो इसको" मैंने कहा,
उन्होंने लिटा दिया!
वो लेट गयी, आँखें बंद करके!
और मैं वहीँ सोफे पर बैठ गया!


ये लपेट लगती थी, परन्तु ये पता लगाना था कि ये लपेट कहीं से लगी है या फिर किसी ने लगायी है, और नेहा हर हालत में ये कभी नहीं बताने वाली थी, इसीलिए मैंने अशोक जी से ही सवाल किये, "किसी से कोई पारिवारिक शत्रुता तो नहीं?"
"नहीं गुरु जी" वे बोले,
पहली शंका समाप्त!
"अच्छा, नेहा का किसी से कोई प्रेम-प्रसंग तो नहीं?" मैंने पूछा,
"नहीं गुरु जी" वे बोले,
दूसरी शंका भी समाप्त!
"आपने फ़ोन पर बताया था कि छोटी लड़की के ऊपर भी ऐसे ही असरात हैं, वो कहाँ है?" मैंने पूछा,
"अब वो ठीक है, आज अपनी बुआ के घर गयी है" वे बोले,
"अच्छा, एक बात और नेहा कहीं जल्दी में बाहर गयी थी?" मैंने पूछा,
"नहीं गुरु जी" वे बोले,
तीसरी शंका ने भी दम तोड़ा!
अब तक नेहा की माता जी भी आ चुकी थीं वहाँ, वो दरअसल चाय के लिए आयी थीं, बताने, नेहा को सोते देखा तो घबरा गयीं, शर्मा जी ने समझा बुझा दिया, फिर भी वे वहीँ बैठ गयीं,
अब मैंने ममता जी से प्रश्न किया, "क्या कोई ऐसी बात तो नेहा ने आपको बताई हो?"
"नहीं जी" उन्होंने उत्तर दिया,
अर्थात मेरे लिए और मुश्किलें बढ़ीं!
"आपकी छोटी बेटी का क्या नाम है?'' मैंने पूछा,
"सोनिया" वे बोलीं,
"क्या उसने कुछ बताया हो?'' मैंने पूछा,
"नहीं जी" वे बोलीं,
यहाँ भी रास्ता बंद!
तभी नेहा के बदन में झटके से लगे! वो झूलती हुई सी खड़ी हो गयी, बैठ गयी, डरावने तरीके में, गर्दन नीचे किये हुए और दोनों हाथ आगे करके!
ये निश्चित रूप से भयानक लपेट थी!
उसको ऐसा करते देख अशोक और ममता जी चिल्लाने लगे, हाल ऐसा कि जैसे बकरे को कसाई का चापड़ दिखायी दे जाए! बड़ी मुश्किल से उनको शांत किया, रोते-चिल्लाते ममता जी कमरे से बाहर भाग गयीं!
अब मैं खड़ा हुआ!
उसके पास तक गया, वो उसी रूप में गर्दन नीचे किये मेरी तरफ घूम गयी!
"कौन है तू?" मैंने पूछा,
कोई जवाब नहीं!
"बता? क्यों इस लड़की के पीछे पड़ी है?" मैंने पूछा,
पुनः कोई उत्तर नहीं!
अब मैंने एक मंत्र पढ़ा! इसको आमद-अमल कहा जाता है, मैंने मंत्र पढ़कर उसकी दिशा में फूंक मार दी, उसने मेरी तरफ झटके से गर्दन उठाई! उसकी काली पुतलियाँ गायब थीं, चढ़ा ली थीं उसने ऊपर! फिर हलके से मुस्कुराई!
"कौन है तू?" उसने मुझसे पूछा,
मैं कुछ नहीं बोला,
उसने फिर से गर्दन नीचे की,
मैंने फिर से मंत्र फूंका,
उसने फिर से गर्दन ऊपर उठायी, अबकी काली पुतलियाँ अपनी जगह थीं!
"कौन है तू?" उसने पूछा,
अब मैंने अपना परिचय दे दिया, देना पड़ा!
"क्या करने आया है?" उसने पूछा,
"कौन है तू ये बता?" मैंने कहा,
"क्या करेगा?" उसने नशे की सी हालत में पूछा,
"बकवास न कर, जल्दी बता?" मैंने कहा,
ना बोली वो कुछ भी!
फिर से झटके खाये और नीचे गिर गयी!
जो भी था या थी, अब नहीं था या थी, वो जा चुका था!
मैं फिर से अपनी जगह जा बैठा!

ये..क....क्या है गुरु जी?" कांपते से बोले अशोक जी,
"कोई लपेट है अशोक जी, वही पता कर रहा हूँ" मैंने कहा,
"ये ठीक तो हो जायेगी न?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, हाँ क्यों नहीं" मैंने कहा,
"मेरी बच्ची को बचा लो गुरु जी, बड़ा एहसान होगा आपका!" उनकी रुलाई फूट पड़ी ये कहते ही,
मैंने चुप किया उनको,
"आप ज़रा बाहर जाएँ, मैं मालूम करता हूँ" मैंने कहा,
वे बाहर गए तो मैंने दरवाज़ा बंद कर दिया अंदर से,
"शर्मा जी, वो लौंग का जोड़ा निकालिये" मैंने कहा,
"उन्होंने एक पोटली से लौंग का जोड़ा निकल लिया और मुझे दे दिया,
मैंने उस जोड़े को एक मंत्र पढ़ते ही जला दिया,
वो जल पड़ा,
जलते ही खड़ी हो गयी वो!
गर्दन नीचे किये हुए,
"अब बता कौन है तू?" मैंने पूछा,
वो हंसने लगी!
हंसती रही!
और तेज!
और तेज!
मैंने एक लौंग मंत्र पढ़कर मारी उसको, लौंग लगते ही वो चिल्लाई और वहीँ बैठ गयी!
फिर हंसने लगी!
अब मुझे गुस्सा आया!
"बताती है या बकवाऊं?" मैंने कहा,
"जो करना है कर ले" उसने धीरे से कहा,
"ठीक है, ऐसे नहीं मानेगी तू" मैंने कहा, और अब मैंने एक मंत्र पढ़ा, अपने एक महाप्रेत को बुलाने के लिए!
आश्चर्य वो हाज़िर नहीं हुआ!
मतलब ये ताक़त वैसी नहीं है जैसा मैंने अनुमान लगाया था!
उसने ताली मारी!
"नहीं आया!" वो बोली,
ताली मारी!
"नहीं आया! मेरा बच्चा नहीं आया!" वो बोली,
क्या?
बच्चा?
महाप्रेत बच्चा?
ये कौन है फिर?
"कौन है तू?" मैंने पूछा,
अब उसने एक अजीब सी भाषा बोली, बेहद अजीब, मुझे कुछ भी समझ नहीं आया, ख़ाकधूर!
"क्या हुआ रे?" उसने हँसते हुए कहा,
इस से पहले मैं जवाब देता वो लपक के मेरी और आयी और मुझे मेरे गले से पकड़ लिया! मेरे गले पैर उसके नाख़ून गढ़ गए, शर्मा जी ने छुड़ाने की कोशिश की तो उनको एक हाथ से धक्का देकर बिस्तर पर गिरा दिया! बड़ी भयानक स्थिति, वो गुस्सैल कुत्ते की तरह गुर्राए जा रही थी! संघर्ष ज़ारी रहा!
"बुला? किसको बुला रहा है, मैं भी देखूं?" उसने कहा,
अब मेरे पास कोई रास्ता नहीं था, मैंने तभी इबु का शाही रुक्का पढ़ा!
इबु! हाज़िर हुआ इबु! उसने आव देखा न ताव, नेहा को उठाया और सामने दीवार पर फेंक के मारा! मेरी गर्दन से रगड़ते नाखूनों ने खून निकाल दिया! इबु फिर बढ़ा और और उसको उठाया और फिर बिस्तर में मारा फेंक कर, दीवान का पाट टूटा और वो उसके अंदर!
इबु फिर भी नहीं रुका, उसको उसकी टांग से पकड़ा और फिर खींच कर बाहर निकला, तब तक उसके अंदर से वो बहार निकल चुकी थी या था, जो कुछ भी था!
गुस्से में फुफकारता हुआ खड़ा रह गया!
अब मैंने इबु को वहाँ से लोप किया,
तोड़-फोड़ और छीन-झप्पटा सुनकर सभी भागे वहाँ! दीवान टूटा था, वे घबराये, शर्म जी को मैंने देखा, उनका चेहरा छिल गया था, ऊँगली का नाख़ून फट गया था! और नेहा टूटे दीवान पर औंधे मुंह लेटी हुई थी!
"क्या हुआ गुरु जी?" अशोक ने कांपते कांपते पूछा,
"ये जो कोई भी है बहुत शक्तिशाली है" मैंने कहा,
"कौ...कौन है ये?" उन्होंने पूछा,
"अभी नहीं पता" मैंने कहा,
वे ठगे से रह गए!
"शर्मा जी के साथ मैं बहार निकला, अशोक भी आ गए बाहर, मेरा खून और शर्मा जी का हाल देखकर वे अब घबरा गए!
अब मैंने वो कमरा और उसका प्रवेश-द्वार कीलित कर दिया!
"डॉक्टर पर चलिए" मैंने कहा,
"जी" अशोक जी ने कहा,
हम डॉक्टर पर गए, टिटनेस के इंजेक्शन लगवाए और शर्मा जी का नाख़ून काट कर पट्टी कर दी डॉक्टर ने!
वापिस घर आये!
नेहा कमरे में कुछ गाना सा गा रही थी!
उसने हमको देखा!
हंसी! ताली मारी!
"तू फिर आ गया?" उसने पूछा,
"हाँ! तू भाग गयी थी ना, इसलिए?" मैंने कहा,
"भागी कहाँ?" उसने पूछा,
"बकवास ना कर" मैंने कहा,
अब वो हंसी! जैसे मैंने मजाक किया हो!
"मैं तो कहीं नहीं भागी?'' वो बोली,
"झूठ बोलती है?" मैंने कहा,
"मुझे किसका डर पड़ा जो भागूंगी?" उसने कहा,
अब मैं घूमा! घूमा इसलिए कि ये सच में ही नहीं भागी, भागा कोई और था, और ये कोई और थी, दो सवार थीं उस पर! अब मैंने जानने का प्रयास किया, ताकि कुछ हाथ लगे,
"कौन है तू?" मैंने पूछा,
"विमला" उसने कहा,
"कौन विमला?'' मैंने पूछा,
"बहादुरगढ़ वाली विमला, ये अशोक जानता है" वो बोली,
अब अशोक का रहा मुंह खुला!
ममता जैसे गिरने ही वाली थीं ज़मीन पर!
"कौन है ये विमला?" मैंने अशोक से पूछा,
"जी...जी..." शब्द न निकले मुंह से उनके,
"बताइये?" मैंने पूछा,
"जी...मेरी बहन, बड़ी बहन" वो बोले,
"हाँ! अब बोला कुत्ता!" नेहा ने हँसते हुए कहा,
कुत्ता?
एक बहन अपने भाई को कुत्ता क्यों बोल रही है?
"अशोक जी? इसने आपको कुत्ता क्यों कहा?" मैंने पूछा,
"इसकी बनती नहीं थी हमारे परिवार से" वे बोले,
"झूठ बोलता है कुत्ता!" नेहा ने कहा,
"झूठ कैसे?" मैंने पूछा,
"इसने पैसा नहीं दिया मेरा, मेरा घर गिरवी पड़ा था, आदमी मेरा था नहीं, इसको मालूम था, बीमार पड़ी मैं बहुत, मैं चल बसी, मेरा बेटा इसके पास आया इसने झूठ बोला कि कोई पैसा नहीं लिया, पूछो इस से?" वो गुस्से से बोली,
"क्या ये सच है?" मैंने पूछा अशोक से,
"हा..जी" वे बोले,
चेहरा फक्क!
हालत पस्त!
रंगे हाथ पकड़ा गया हो चोर जैसे!
"कितना पैसा लिया था?" मैंने पूछा,
"पांच लाख" वे बोले,
"कब?" मैंने पूछा,
"दस साल हुए" वे बोले,
"हम्म, किया तो आपने बहुत ही गलत, और भुगत रही है बेचारी ये लड़की" मैंने कहा,
"विमला?" मैंने पूछा,
"हाँ?" उसने कहा,
"तेरे पैसे मिल जायेंगे तुझे मय ब्याज" मैंने कहा,
वो रो पड़ी!
रोते रोते जो समझ आया वो यही कि अब उसका लड़का भी ज़िंदा नहीं था, उसने आत्महत्या कर ली थी,
बहुत बुरा हुआ था,
मैं भी परेशान हो गया,
अशोक की रुलाई फूट पड़ी,
दोषाभिव्यक्ति से!
"विमला?" मैंने पूछा,
"हाँ?" उसने कहा,
"तुझे किसी ने भेज या तू स्व्यं आयी यहाँ?" मैंने पूछा,
"खुद आयी हूँ" उसने कहा,
इतना कहा और धम्म से गिर पड़ी नेहा!
चली गयी विमला!
ये विमला थी तो पहले कौन था?
ये क्या हो रहा था?
नेहा कहाँ है?
बड़ा अजीबोगरीब किस्सा हो चला था ये!
तभी फिर से हरक़त हुई उसमे! कमर अकड़ गयी उसकी और फिर उठ बैठी!
"कौन?" मैंने पूछा,
"सलाम उस्ताद!" उसमे से एक मर्दाना आवाज़ आयी!
मैं चौंका!
"कौन?" मैंने पूछा,
"इकराम हूँ साहब मैं!" उसने बताया,
अब जैसे मेरे ऊपर पानी का बड़ा सा भांड फूटा, जैसे आँखें खोलने का मौका भी नहीं मिला और फुरफुरी चढ़ गयी!
"कहाँ से आये हो?" मैंने पूछा,
"यहीं से, हुमायुंपुर से ही?" उसने हंस के कहा,
"अच्छा, यहाँ क्या कर रहे हो?" मैंने पूछा,
"तफरीह!" उसने कहा,
बड़ा बेबाक था!
"किसने भेजा इकराम तुझे?" मैंने पूछा,
"भेजा किसी ने नहीं है साहब, बस जगह खाली थी सो चला आया!" उसने कहा,
"खाली जगह?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" उसने कहा,
"समझाओ मुझे तफ्सील से?" मैंने कहा,
"लीजिये, यहाँ भीड़ खड़ी है साहब!" उसने कहा,
"कौन कौन है?" मैंने पूछा,
"अभी बताता हूँ" उसने कहा,
फिर नेहा ने अपनी उँगलियों पर गिना!
"जी यहाँ पर मेरे यार है तीन" वो बोला,
"कौन कौन?" मैंने पूछा,
"जी बजा माफ़ करे, एक मैं हूँ इकराम, दूसरा मेहबूब, तीसरा अशरफ और चौथा एहसान" उसने बताया,
मुझे झटका लगा!
खाली जगह!
अब मैं समझ गया!
समझ गया सारा मसला!
नेहा सवारी थी और ये सारे सवार!
वाह!
भाई वाह!
जो भी खिलाड़ी था बेहद मुलव्विस खेल खेल रहा था!
क्या कहने!
"इकराम, मियाँ बात ऐसी है, अभी इसी वक़त आप और आपके यार, तशरीफ़ ले जाएँ, मुनासिब होगा!" मैंने कहा,
"जी साहब! गुस्सा न करें, अब हमारी क्या बिसात! हम चले यहाँ से, बजा माफ़ करे!" उसने कहा,
चार झटके खाये उसने और साफ़!
अब मैंने शर्मा जी को वहीँ रखा और सभी को बाहर किया वहाँ से, और फिर मैंने बाल पकडे उसके! और इबु का शाही-रुक्का पढ़ दिया!
इबु ज़र्र से हाज़िर हुआ!
मैंने उस से 'जगह' साफ़ करने को कहा!
और अब इबु ने लगाईं झाड़!
एक एक को फेंका उसने!
न जाने कितने सवार!
मचा दी चीख पुकार!
मैंने अब इबु को वहीँ मुस्तैद कर दिया और फिर एक धागा बनाया! धागा अभिमंत्रित किया और नेहा के गले में बाँध दिया! कुछ घंटों के लिए अब कोई सवार नहीं अ सकता था!
अब इबु भी वापिस हो गया!
अन!
सबसे बड़ा सवाल!
कौन है वो खिलाड़ी?
खिलाड़ी!
कौन है ये खिलाडी? जो परदे के पीछे से सारी चाल चल रहा है, बेहद करीने से! मानना पड़ेगा, बहुत कुशल और चालाक खिलाड़ी है! उसने नेहा कि रूह पर कब्ज़ा कर लिया है, और फिर उसको कैडि सा बना कर जगह खाली कर दी है, आये कोई भी आये! ये विद्या काहूत कही जाती है! बदला लेने की ये ज़बरदस्त कारीगरी है! अब यही खोजना था!
नेहा शांत लेटी थी, एक दम शांत, मैंने उसके माँ-बाप को अब बुला लिया अंदर, अब मैं उसको होश में लाने वाला था इसीलिए,
"नेहा?'' मैंने कहा,
वो अलसाई!
"खड़ी हो जाओ" मैंने कहा,
वो कसमसाई, अपने आप में सिमटी,
"उठो?" मैंने कहा,
वो उठ गयी, अंगड़ाई लेते हुए! हमे देख घबरा गयी! हम अनजान थे उसके लिए, उठते ही उसने अपनी चुन्नी ढूंढी जो उसको उसी माता जी ने दे दी, वो समझ नहीं पायी कि आखिर हम कौन लोग हैं और क्यों आये हैं?
"अब कैसी हो?" मैंने पूछा,
"ठीक" उसने कहा,
मुझे तसल्ली हुई!
"नेहा, कुछ सवाल पूछूंगा, मुझे उसके सही सही जवाब देना" मैंने कहा,
अब वो अनजान को सवाल के जवाब क्यों दे?
आखिर में उसके पिता जी ने सारी बात समझायी, वो हुई तो परेशान लेकिन फिर हामी भर ली!
"क्या करती हो?" मैंने पूछा,
"चार महीने पहले नौकरी शुरू कि है एक बीमा एजेंट के यहाँ, साथ ही साथ पढ़ाई भी चल रही है" उसने बताया,
अब शर्मा जी तैयार थे कागज़ और कलम लिए, उन्होंने विवरण लिख लिया,
"कौन है ये बीमा एजेंट?" मैंने पूछा,
"अजय सक्सेना" उसने बताया,
"क्या उम्र होगी?" मैंने पूछा,
"कोई चालीस साल" वो बोली,
"कहाँ रहता है?" मैंने पूछा,
"यहीं रोहतक में" उसने बताया,
"कितने लोग काम करते हैं वहाँ और?" मैंने पूछा,
"चार लोग" उसने बताया,
"और कौन लड़की है वहाँ?" मैए पूछा,
"तीन और हैं" उसने कहा,
"शादी शुदा हैं सभी?" मैंने पूछा,
"दो हैं, एक नहीं" उसने बताया,
अब मैंने सभी के नाम लिख लिए, अर्थात शर्मा जी ने लिख लिए,
"किस के साथ अंतरंगता है तुम्हारी?" मैंने पूछा,
"एक लड़की मनीषा से" मैंने पूछा,
"तुमसे बड़ी है या छोटी?' मैंने पूछा,
"बड़ी है" उसने बताया,
अभी तक तो कोई संदिग्ध नहीं मिला था!
"नेहा, कोई प्रेम-सम्बन्ध है तुम्हारा?" मैंने पूछा,
अब वो चुप!
"चुप न रहो, तुम्हारी जान पर बनी है, समझ जाओ?" मैंने कहा,
अब वो चुप फिर से!
"मुझे बताओ?" मैंने कहा,
"नहीं" उसने कहा,
"झूठ" मैंने कहा,
"नहीं, कोई सम्बन्ध नहीं" उसने कहा,
"फिर से झूठ" मैंने टटोला उसको,
"विश्वास कीजिये" वो बोली,
"ठीक है" मैंने कुछ सोच के बोला,
"तुम बीमार हो?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने गर्दन हिलायी,
"कहीं बाहर गयी थीं?" मैंने पूछा,
"नहीं" उसने उत्तर दिया,
"कुछ बाहर खाया था?" मैंने पूछा,
"नहीं" उसने बताया,
कुछ हाथ नहीं लगा पेंच!
अब कुछ नाम जो आये थे, उनकी जांच करनी थी! हो सकता था कुछ हाथ लग जाए!
"ठीक है, तुम नहा-धो कर आओ पहले" मैंने कहा,
वो उठी और चली गयी अपनी माँ के साथ!
मुझे एक खाली कमरा चाहिए" मैंने अशोक से कहा,
"जी" वे बोले, उठे और चल दिए, हम दोनों उनके पीछे पीछे चल दिए,
उन्होंने एक कमरा दिखा दिया, कमरा खाली था, बस कुछ सामान रखा था वहाँ, उस से कोई परेशानी नहीं थी,
"ये ठीक है" मैंने कहा,
अब शर्मा जी और अशोक को बाहर भेजा मैंने, एक चादर बिछायी और मैं कुछ पढ़ने बैठ गया, एक महाप्रेत का आह्वान किया, ये कारिंदे की तरह से काम करता है, नाम है जल्लू, जल्लू हाज़िर हुआ, मैंने उसको उद्देश्य बताया, उसने सुना और फुर्र हुआ, दूसरे ही क्षण वापिस आ गया, और उसने मुझे एक नाम बताया, गोविन्द, बस! इतना बताते ही वो लोप हो गया, भोग उधार कर गया! अब इस नाम से कुछ पता नहीं चल सकता था, हज़ारों गोविन्द होंगे, अब क्या कौन और कहाँ हैं और कैसे सम्बंधित है नेहा से, क्या पता? इसलिलिये मैंने अब सुजान को हाज़िर किया, सुजान टकराऊ है, सुनता है और समझता है, सुजान हाज़िर हुआ, और अपना उद्देश्य जान वो चला वहाँ से! अब मुझे इत्मीनान हुआ!
कुछ देर हुई!
करीब दस मिनट!
और सुजान वापिस हुआ!
और जो सुजान ने जानकारी दी वो वाक़ई हैरत में दाल देने वाली थी!
सारी गलती इस लड़की नेहा की थी!
दरअसल नेहा के एक लड़के गोविन्द से प्रेम-सम्बन्ध थे, ये मैं जानता था, उसके भाव सबकुछ बता चुके थे, और नेहा उस लड़के पर निरंतर दबाव बनाती थी कि वो शादी का प्रस्ताव लेकर अपने माँ-बाप के साथ उसके घर आये, गोविन्द का भी कोई पक्क रोज़गार नहीं था, पिता पर आश्रित था, दो बड़े भाई थे, एक अविवाहित था, पिता के व्यापार में सभी साझी थे, तो विावह उस समय नहीं हो सकता था, निरंतर त्रस्त रहने से गोविन्द ने ये बात अपने मामा को बताई, उसने मामा अखिल ने इस लड़की नेहा का मुंह बंद करने के लिए एक खिलाडी बाबा असद को चुना और ये लड़की उस चतुर बाबा असद के चंगुल में आ गयी! अब ये बाबा असद की चौपड़ की गोटी थी! बाबा असद इसको जब चाहे, जहां चाहे चल ले!
जड़ पकड़ में आयी तो अब उखाड़ना भी बाकी था, सो मैंने अब रणनीति बनाना आरम्भ किया! मैंने ककश से बाहर आया, शर्मा जी और अशोक वहीँ खड़े थे, मैंने शर्मा जी को अंदर बुला लिया और सारी कहानी से अवगत करा दिया! उनको भी हैरत हुई! नेहा ऐसी लगती नहीं थी!
"अब क्या किया जाए?" मैंने पूछा,
"सबसे पहले तो अशोक को खबर की जाये, फिर इस बाबा असद की खबर लीजये" वे बोले,
"हाँ, ये सही है" मैंने कहा,
अब शर्मा जी ने अशोक को बुलाकर सारी बात बता दी अशोक को! अशोक को तो घड़ों पानी फिर गया, आँखों से आंसू निकल आये!
शर्मा जी ने समझाया बुझाया!
"चलो, अब नेहा से बात करते हैं" मैंने कहा,
"चलिए" अशोक ने कहा,
अब हम नेहा के कमरे में आये, वो नहा-धो कर बैठी थी, साथ में उसकी माता जी भी! हम वहीँ बैठ गए!
"नेहा?" मैंने कहा,
"जी?" वो चौंकी,
"ये गोविन्द कौन है?" मैंने पूछा,
कपडा सा फट गया!
उसको जैसे दामिनी-पात हुआ!
"नहीं पता?" मैंने पूछा,
होंठ चिपक गए उसके!
"बताओ?" मैंने कहा,
अब सबकी निगाह टकराई उस से!
"कौन है ये गोविन्द?' मैंने पूछा,
"म...मुझे नहीं मालूम" वो बोली,
"नहीं मालूम?" मैंने ज़ोर से पूछा,
"नहीं" उसने कहा,
"तुम्हारा प्रेमी नहीं वो?" मैंने अब स्पष्ट किया,
वो चुप!
"बताओ?" मैंने पूछा,
नहीं बोली कुछ!
"ठीक है, अब देखो उसका क्या हाल होता है, जैसा उसने तुम्हारे साथ किया वैसा ही उसके साथ होगा!" मैंने कहा,
प्रेम था तो घबराहट भी होनी ही थी! सो घबरा गयी!
"इसकी नौकरी छुड़वाओ, घर पर बिठाओ और आनन्-फानन में जो रिश्ता मिले इस घर से विदा करो" मैंने जानबूझकर ऐसा कहा,
"जी" अशोक ने समर्थन किया!
"जी, मैं केवल आपसे बात करना चाहती हूँ" नेहा ने कहा,
"नहीं, सबके सामने कहो" मैंने कहा,
फिर से चुप!
अब सबके सामने बात कैसे हो? संकोच जो था! माँ-बाप से छुपाओगे तो यही होगा ना? पुत्र-पुत्री को माता-पिता से और पति को पत्नी से और पत्नी को पति से कभी कुछ नहीं छिपाना चाहिए, गलती भी हो जाए तो बता देना चाहिए अन्यथा परिणाम गम्भीर ही होता है, और यही हुआ था नेहा के साथ, उसने एक तरह से दबाव बनाया गोविन्द पर, और अल्प-बुद्धि गोविन्द जब समझाने से हारा नेहा को तो उसने ये निर्णय लिया!
"बोलो अब?" मैंने कहा,
अब कुछ ना बोले वो!
"बताओ बेटी?" अशोक ने कहा,
माँ पास जा बैठी, सीने से लगाया और पूछा,
अब बोलने लगी नेहा!
सब क़ुबूल कर लिया उसने!
मुझे तसल्ली की साँसें आने लगीं!
'अशोक साहब?" मैंने पूछा,
"हाँ जी?" वे चौंके,
"यदि लड़के के माँ-बाप मान जाएँ विवाह हेतु तो क्या आप विवाह के लिए तैयार हैं नेहा के उस लड़के गोविन्द से?"
"मुझे कोई आपत्ति नहीं" वे बोले,
"ले देख नेहा!" मैंने कहा,
संकोच!
"ले, यदि तूने पहले बता दिया होता तो ये दिन ही नहीं आता, तू काहे परेशान होती?" मैंने कहा,
ग्लानि भावना!
"शर्मा जी, तैयार हो जाइये, अशोक जी आप भी" मैंने कहा,
"मैं तैयार हूँ" अशोक बोले,
दरअसल हमे जाना था बाबा असद के पास! बाबा असद का पता दे दिया था हमको कारिंदे ने!
अब हम चल पड़े वहाँ से! एक बात और, नेहा के पास अभी तक कोई नहीं आया था!
बाबा असद, रोहतक से थोडा दूर दिल्ली-बाय पास के समीप रहता था, हमने फ़ौरन गाड़ी स्टार्ट की और चल दिए!
घंटे भर में वहाँ पहुंचे, रास्ता साफ़ था, सीधे बाबा असद के पास पहुंचे, कोई दिक्कत नहीं हुई!
बाबा असद अपने घर में ही था, छोटा सा घर!
हम घर में घुसे, वो तखत पर बैठा था!
"आइये आइये!" वो बोला और उठा!
करीब साठ का रहा होगा वो!
हम बैठ गए वहाँ, उसने पानी मंगवा लिया, हमने पानी पिया!
"अब ठीक है लड़की?" उसने पूछा,
होश उड़े अशोक के!
"हाँ" मैंने कहा,
"चलो, बड़ी अच्छी बात है" वो बोला,
उसमे कपट नहीं था! क़तई नहीं!
"वैसे बाबा, लड़की मर जाती तो?" मैंने पूछा,
"नहीं, आप तो जानकार हैं, जब आपने छुआ तो मैं समझ गया, और हाँ मियादी कम था, केवल लपेट लगाईं थी, मैं भला क्यों मारूंगा, मैंने तो लड़के को कहा था, कि ये गलत है और तू अपने माँ-बाप से बात कर और मना उन्हें, ब्याह करना ही होगा तुझे" बाबा ने कहा,
ये सच था!
"तो उसने बात की?" मैंने पूछा,
"हाँ, उनके बड़े लड़के का भी रिश्ता तय हो गया है, अब दोनों लड़कों की शादी दो रोज आगे पीछे करेंगे वो! अब आपके पास भी आने ही वाले होंगे!" बाबा ने हंस के कहा,
मैंने यक़ीन किया!
बाबा असद ने फ़ोन किया लड़के के मामा अखिल को, और बुलवा लिया वहाँ, आधे घंटे में पहुँच जाने थे वो!
अब तक चाय और बिस्कुट मंगवा लिए थे बाबा असद ने, हमने चाय भी पी और बिस्कुट भी खाये!
"आजकल का वक़्त बहुत बदल गया है जी, हमारे वाला ज़माना नहीं रहा, अब सब अपनी अपनी मनमर्जी करते हैं, ये लड़का और लड़की अपने अपने घर में बात कर लेते तो ये नौबत कहाँ होती" वे बोले,
"सही कहा जी" मैंने कहा,
"चलो देर आये दुरुस्त आये" वे बोले,
"मैंने लड़के को समझाया था, लक बहुत घबराया हुआ था, लड़की ने ख़ुदकुशी की धमकी दी थी बेचारे को, अब मुझे ऐसा करना ही पड़ा, आप मुझे माफ़ करें, बच्ची हमारे घर में भी है, जैसी आपकी बेटी ऐसी मेरी बेटी, मैंने लड़के को धमकाया भी था, कोई चालगुरेजी की तो रूह को भी सजा दूंगा उसकी!" वे बोले,
लाख पते की बात!
आधा घंटा बीता नहीं होगा कि अखिल भी आ गए वहाँ, परिचय हुआ, बाबा असद ने हमारा ही पक्ष लिया और तज़वीज़ की कि हमको गोविन्द के माँ-बाप से मिलवा दें, बात तय हो जाये तो एक घर बसे! हमने बाबा असद को भी साथ ले लिया, वो ख़ुशी ख़ुशी तैयार हो गए, तैयार इसलिए कि खुद बताएं गोविन्द के माँ-बाप को कि लड़का क्या करवाने आया था अपने मामा के साथ!
और फिर वही हुआ! हम सभी पहुंचे गोविन्द के घर! गोविन्द ने बात कर ली थी अपने घर में! और अब बाबा असद ने सारी बात दोहरा दी! उसके माँ-बाप गोविन्द पर बड़े गुस्सा हुए, बेहद शालीन थे उसके माता-पिता! कुल मिलाकर बात पक्की या रिश्ता पक्का हो गया! आगे का कार्यक्रम भी पक्का हो गया!
बाबा असद को दोनों तरफ से निमंत्रण मिला, बाबा ने नेहा के तरफ से ही निमंत्रण माना और घराती हो गए!
सबकुछ निबट गया!
वर्ष २०१३ में दोनों परिणय-सूत्र में बंध गए! बाबा असद से मेरी मित्रता हो गयी! अब उनका मेरा आना जाना हैं!
नेहा और गोविन्द सभी खुश हैं!
जो मेरा कर्त्तव्य था, मैंने निभा दिया!
साधुवाद!

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